जागो और पुरुषार्थी बनो।

September 1955

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(श्री स्वामी प्रभु आश्रित जी महाराज)

यदग्ने स्यामहं त्वं, त्वं बाघास्याऽहं। स्युष्टे सत्या इहाशिषः॥ ऋ॰ 8।44।23

शब्दार्थ—(अग्ने) प्रकाश स्वरूप (यत् अहं त्वं स्याम्) जब मैं तू हो जाऊँ (बाघ) या (त्वं अहं स्यामः) तू मैं हो जाय (ते इह आशीषः) तेरे ये सभी आशीषों (सत्यः स्यु) सत्य हो जायें।

भावार्थ—हे प्रकाश रूप मेरे प्रभो! वह समय अब कितनी दूर है, जिस दिन अनन्त अपार प्रेम अम्बुधि में मिलकर मैं, तुम हो जाऊँगा, या तुम ही मैं हो जाओगे। जिस दिन इस सृष्टि में तेरी सारी कल्याणमयी आशीष भावना मानव−जीवन का सत्य बन कर चरितार्थ होगी!

यह भारतीय ऋषियों की दिव्य वाणी है, भक्त हृदय का सर्वोत्कृष्ट उद्गार है। जीवात्मा के अन्तर में अनादि काल से यही वाणी गुञ्जन कर रही है, जो संवेग की विशालता से स्फुटित होकर स्थूल, वेद वाणी धारण कर लेती है।

ईश्वर, आनन्द का केन्द्र है। सृष्टि के हेतु से जीव उनसे बिछुड़कर बहुत दूर नीचे उतर आया है। वह उस आनन्द केन्द्र से बहुत दूर चला आया है, पर अन्तर में उनके की वियोग की वेदना का सागर उत्ताल तरंगें उठाये जा रहा है। वह उस आनन्द केन्द्र से बिछुड़कर दुःखी बन गया है, उस चिदाग्नि से विलग होने के कारण, काला−कोयला बन रहा है। अभी यदि वह, उस सच्चिदानन्द के निकट चला गया तो यह कोयला रूपता, तुरन्त ही अग्नि का प्रचण्ड गोला और स्वयं अग्नि रूप ही बन जायगी। जितने भी साधन हम करते हैं, ये सारे के सारे उस दूरी को हटाने के लिए ही किये जाते हैं। यज्ञ, दान, तप, परोपकार−सत्संग आदि सभी उस दूरी को हटाने और सच्चिदानन्द भगवान को प्राप्त करने के साधन समूह हैं।

सैकड़ों—हजारों लोग कारावास में पड़े हैं और इसी भाँति अनेकों रोगी, चिकित्सालय में कराह रहे हैं। हम भी कैदी और रोगी हैं। वे शरीर के बन्धन में हैं, शारीरिक रोगों से उत्पीड़ित हो रहे हैं और हम,—प्रभु से दूरी हटाने की इच्छा रखने वाले साधक गण, अन्तर से बन्धे और आन्तरिक रोगों से छटपटा रहे हैं। पर, हम लोगों को उस कृपालु प्रभु को धन्यवाद करना चाहिए। हम साधना और सत्संग करने वाले बन्दियों और रोगियों पर, प्रभु की अपार करुणा, धारा वाही रूप में बरस रही है और हम उसे प्राप्त कर रहे हैं। ये सत्संगादि साधन, प्रभु की दया का प्रसाद ही है। सभी इसे कहाँ प्राप्त करते हैं?

अब हम प्रभु से एकीभूत होने के लिये जो कुछ हमारे पास है, उस पर एक सरसरी दृष्टि डाल लें और देखें कि इनमें कहाँ, क्या शक्तियां हैं।

यह शरीर। इसकी शक्ति बहुत सीमित है। आँखें कितनी भी अच्छी हों, पर एक सीमा तक ही देख सकती हैं। दीवाल के उस पार नहीं देख सकतीं। इसी भाँति, कान, नाक, त्वचा, जीभ सभी को अपनी−अपनी शक्तियों की निर्दिष्ट सीमा है, परन्तु मन पर कोई बन्धन नहीं लगा सकता (स्थूल इन्द्रियों की भाँति)। वह कोटि मीलों की दूरी पर उड़ान कर सकता है। उसकी गति अद्भुत है, इसी लिये मान सरोवर से भी इसकी तुलना की जाती है।

मान सरोवर की यात्रा बड़ी कठिन है। लोग दूर राज पर्वतीय प्रदेशों को, बद्री नारायण, केदार आदि की यात्रा कर आते हैं, किन्तु मान सरोवर की यात्रा, जहाँ हंस निवास करते हैं—कोई विरला ही वास करते और जा पाते हैं। मान−सरोवर की यात्रा भी कोई विरला ही करते और पहुँच पाते हैं। जिस भाँति मान−सरोवर में विविध तरंगें उठती रहती हैं, उसी भाँति मन−सरोवर में लहरें उठती हैं, मान सरोवर की भाँति मन−सरोवर भी अतीव विशाल है।

मान−सरोवर में मेंढक, मीनादि फुदकती हैं और मनः सरोवर में उसी भाँति वासनायें मचलती हैं। अगर अन्तर में कोई वासना जगती है तो वह गोलाकार बन जाती है, इसीलिए उसे वृत्ति कहते हैं। यह वृति, कर्म उत्पन्न करती है और कर्म, फल को, फल, बीज को इस भाँति यह चक्राकार गति में घूमती रहती है। इसकी कोई सीमा नहीं, अतः हमारी वासनाएँ भी अनन्त हैं, जो सदा इसी भाँति जगती रहती हैं।

अमावस्या और पूर्णिमा में समुद्र की भाँति मान सरोवर और मनः सरोवर में भी भाटा−ज्वार आता है, कभी वैराग्य का भाटा और कभी ज्ञान का ज्वार। पूर्णिमा में प्रियतम से मिलने के लिए उस की तरंगें क्रमशः ऊँची से ऊँची ही उठती चली जाती हैं; मानों, ज्ञान के एक एक सोपानों पर चढ़ता हुआ वह सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के नजदीक पहुँचाने का प्रयत्न कर रहा हो और जब वैराग्य का भाटा आता है तो बाह्य विश्व की विस्तृति और ऊँचाई का परित्याग कर नीचे से नीचे, सूक्ष्मता से सूक्ष्मतरता में डुबकी लगाये चला जाता है और सारे स्थूल एवं सूक्ष्म को छोड़ कर सूक्ष्मतम परमात्मा तक जा पहुँचते हैं, जैसे बुद्धदेव भगवान और स्वामी दयानन्द जी महाराज ने संसार के स्थूल−सूक्ष्म सभी रूपों का परित्याग कर दिया था।

प्राण। एक वह प्राण है, जो हर समय हम श्वास के रूप में ले रहे हैं। दूसरा वह प्राण है, जिससे पंच तत्वों को संयुक्त कर शरीर का निर्माण किया। तीसरा सूक्ष्म प्राण वह है, जो जीवनी शक्ति प्रदान करता और आत्मा के साथ रहता है। यज्ञ, प्राण गति देने वाला है। यह मन को भी गति प्रदान करता तथा आगे−आगे चलता है।

पवन, जो हमें पवित्र बनाये रहता है। प्रातः काल जब हम उठते हैं, उस समय हमारे अन्दर सात्विकता रहती है। भगवान का नाम लें या नहीं लें, पर उस समय स्वाभाविक सात्विकता रहती है। यदि मनुष्य के अन्दर यह सात्विकता न आये, तो वह जी ही नहीं सकता। इस सात्विकता के उदय होने के कारण है, सन्धि काल। उस समय (श्वास के) दोनों स्वर इकट्ठे ही चलते हैं।

स्वर दो हैं; सूर्य स्वर और चन्द्र स्वर। यह स्वर बारी बारी से चलते रहते हैं। हर घण्टे बाद प्रायः स्वर बदलता रहता है। बदलते समय दोनों स्वर इकट्ठे हो जाते हैं और इन दोनों के मिलते ही सुषुम्ना खुल जाती है। सुषुम्ना का खुलना ही उक्त सात्विकता का कारण है। इस सात्विकता के राज्य काल के लिये शास्त्रकारों ने कहा है:−

1−सन्धिकाल में सोना पाप है।

2−उस समय न जल पीवे, न अन्न ग्रहण करे।

3−उस पुनीत काल में भगवद् स्मरण करे।

4− उस समय मन की साम्य अवस्था होती है, उसमें न रोग होता है, न कोई विकार होता है। इसको शुद्ध करने वाला पवन है।

कोई ऐसा मनुष्य नहीं, जिसके अन्दर यह पवित्र करने वाला पवन न चलता हो−सन्धि काल न आता हो।

हृदय दो भाँति के होते हैं, मृदुल और कठोर। महात्मा बुद्ध सुकोमल हृदय वाले थे, जरा, मृत्यु और रोग को देखते ही घायल हो गये और जब तक भगवान रूपी चिकित्सा मन्दिर जाकर जरा−मृत्यु रोग से ऊपर नहीं उठ गये, तब तक घायल से कराहते रहे और दूसरे हम लोग हैं कठोर हृदय वाले कि रात दिन रोग, बुढ़ापा और मृत्यु को आँख पसार कर देखते हैं पर हमारे हृदय को जरा भी चोट नहीं लगती। हम टस से मस नहीं होते। ऐसे कठोर अथवा वीर हृदय वाले हैं हम।

सुखद स्थिति, जो कि परिस्थिति वश स्वभावतया ही किसी को प्राप्त है उसका मूल्य उसे तब तक मालूम नहीं हो पाता, जब तक वह उससे छिन नहीं जाता। बुद्धिमान को बुद्धि की कीमत तब मालूम होती है, जब भगवान उसे विक्षिप्त—पागल कर देते हैं, इसी भाँति धनवानों को दरिद्र बनने पर, बलवानों को रोगी और अशक्त होने पर, शासक को पदच्युत होने पर उसका वास्तविक महत्व समझ में आता है। उसी भाँति जब जीव को परमात्मा की वियोग स्थिति का सही ज्ञान और अनुभव हो जाता है, तब वह उसे पाने के लिए जल वियोगिनी मछली की भांति लगता है।

यह देखने में लगता है कि शास्त्रों में वर्णित परिणाम के अनुसार कभी−कभी किसी सद्नुष्ठानों का फल प्राप्त नहीं होता, इसका कारण काम, क्रोध, अभिमानादि दैवी विघ्नादि हैं। यदि हम ठीक−ठीक परिशुद्ध भावना के साथ सद्नुष्ठान पूर्ण कर सकें, तब तो शास्त्रवर्णित फलों का मिलना निश्चित ही है, किन्तु बीच में कभी कभी विघ्न आकर उसे बिगाड़ देते हैं, इसलिए परिशुद्ध फल की प्राप्ति नहीं हो पाती है।

क्रोध इन सद्नुष्ठानों के परिणाम को नष्ट करने में बड़ी भयंकर अग्नि है; अतः इस क्रोध के नाश करने के सम्बन्ध में विचारें। क्रोध को, तीन भाँति से मनुष्य दबाते हैं:—

1- आत्मिक पतन से अपने को बचाने के लिये। ऐसा साधक उसे विवेक से बाहर निकालता है, क्रोध आ जाने पर उसे लज्जा वश छिपाता नहीं, स्पष्ट कह देता है।

2- भय और कमजोरी के कारण भीतर ही क्रोध को रोक लेता है और जलता है। ऐसे लोगों को दमा का रोग हो जाता है।


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