“आध्यात्मिक शक्तियों का साक्षात्कार”

September 1955

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(श्री लालजी राम जी शुक्ल)

मनुष्य की मानसिक शक्तियाँ बिखरी रहती हैं। अतएव उनका साक्षात्कार करना कठिन होता है। इसके परिणाम स्वरूप उसका मन अनेक विषयों में फस जाता है। जब मन बाह्य विषयों में एक बार फस जाता है, तो मनुष्य उनसे मुक्त होने की चेष्टा जितनी ही करता है, मन और भी फँसता जाता है। विषयों का अधिक चिन्तन करने तथा मानसिक अन्तर द्वन्द्व के कारण मन की सारी शक्ति का ह्रास हो जाता है और तब मनुष्य अशान्त रूप हो जाता है।

हमारी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास अपने आप को बाह्य विषयों से मुक्त करके अपने आप में ही केन्द्रित करने से होता है। निर्मल मन ही शक्ति शाली होता है। बाह्य विषयों में फँसा मन शक्ति शाली कदापि नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति का मन जितना ही उद्विग्न होता है वह उतना ही शक्ति हीन होता है। जो व्यक्ति का साक्षात्कार कर सकता है। आत्मा की शक्ति का साक्षात्कार कर सकता है। आत्मा की शक्ति का साक्षात्कार कर सकता है। आत्मा की शक्ति कर साक्षात्कार करने के लिए पहली आवश्यकता अपनी इन्द्रियों को वश में करने की है। जहाँ जहाँ इंद्रियां जावें अथवा आकर्षित हों वहाँ−वहाँ से मन को रोकना चाहिये। इसके लिये मनुष्य को सदा जागरुक होकर रहना पड़ेगा। विद्वान से विद्वान व्यक्ति का मन इन्द्रियों के द्वारा चलित हो जाती है। इन्द्रियों के विषय सामने रहने पर अपने मन को रोकना बड़ा पुरुषार्थ है। पर इस प्रकार का पुरुषार्थ अभ्यास−द्वारा सिद्ध हो जाता है।

जिस प्रकार इन्द्रियों के विषयों से मन को रोकना आवश्यक है उसी तरह मन को प्रबल संवेगों से रोकना आवश्यक है। प्रत्येक प्रकार का मानसिक विचार मन की−शक्ति का विनाश करता है। यदि हम अपनी शक्ति का संक्षय करना चाहते हैं तो मानसिक विकारों से मुक्त होना अत्यन्त आवश्यक है। शाँत मन में ही शक्ति का उदय होता है।

जब मन शान्त हो जाय तो मनुष्य को उसे स्वरूप के बारे में चिन्तन करने में लगाना चाहिये। शान्त अवस्था में मनुष्य जैसा अपने विषय में विचार करता है वह वैसा ही अपने आप को पाता है। किसी भी प्रकार का निश्चय जब किसी−प्रकार के संशय से दूषित नहीं होता तो फलित होता है। कितने ही लोग किसी विशेष प्रकार की शक्ति की प्राप्ति के लिये मन्त्र, जप अथवा यज्ञ आदि करते हैं। ये सब क्रियाएं अपने निश्चय को दृढ़ करने के लिये आवश्यक हैं। निश्चय की दृढ़ता ही सफलता की कुञ्जी है।

मानसिक शक्ति के विकास के लिए अपने आप को सदा परोपकार में लगाये रहना आवश्यक है। स्वार्थ के कार्यों में लगे हुए व्यक्ति की शक्ति का ह्रास, चिन्ता, भय, संशय आदि मनोवृत्तियों के कारण हो जाता है। परोपकार की भावना इन मनोवृत्तियों का विनाश करती है। जो मनुष्य जितना ही अधिक अपने स्वार्थ से मुक्त रहता है उतना ही अधिक उसमें संकल्प की सफलता लाने की शक्ति का उदय होता है। अपने मन को परोपकार में लगाना स्वयं के बृहत् रूप को पहचानना है। इस बृहत् स्वरूप में सभी संकल्पों की सिद्धि करने की शक्ति है। अपने व्यक्ति गत स्वार्थ के विषय में सोचना ही मानसिक पतन है। मानसिक शक्तियों का विकास प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने से भी होता है। जो व्यक्ति जितना अधिक किसी सिद्धान्त के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करता है वह उतना ही अधिक अपने मन को दृढ़ बनाता है। मानसिक दृढ़ता आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए परमावश्यक है। जो व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों से डर जाता है उसे कहीं चैन नहीं मिलती। बहुत सी−कल्पित होती हैं। इनकी भयानकता मन की दुर्बलता के कारण बढ़ जाती है। डरपोक को छाया भूत के रूप में दिखाई देती है। यदि ऐसा मनुष्य साहस कर उस छाया के पास जाय तो भूत का भय मिट जाता है।

अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित करने के लिये सच्चा व्यवहार व विचार रखना आवश्यक है। जो व्यक्ति जितना ही अधिक साँसारिक व्यवहारों में कुशल होता है वह उतना ही आध्यात्मिक ज्ञान के लिए अनुपयुक्त होता है। ऐसे व्यक्ति का मन सदा संशययुक्त होता है। वह न किसी दूसरे व्यक्ति की बातों पर विश्वास करता है और न स्वयं पर। यदि ऐसे व्यक्ति के मन में कोई भला विचार आ जाय तो उसके फलित होने में उसे विश्वास नहीं होता। संशययुक्त मन रहने के कारण ऐसा व्यक्ति अपने सभी मित्रों को खो देता है। उसे संसार शत्रुओं से भरा दीख पड़ता है। जैसा वह दूसरे लोगों को धोखा देता है, वैसा ही वह जानता है कि दूसरे लोग भी उसे धोखा देंगे। वह कुचिन्तन में ही अपना समय व्यतीत करता है। इस तरह के कुचिंतन में ही अपना समय व्यतीत करता है। इस तरह के कुचिंतन से उसका आध्यात्मिक बल नष्ट हो जाता है और वह दुःख में डूब जाता है।

मानसिक शक्तियों के विकास के लिए भोले स्वभाव का होना ही श्रेयस्कर है। अंग्रेजी में कहावत है कि शैतान गधा होता है। यह कहावत चतुर लोगों की मूर्खता को प्रदर्शित करती है। जो मनुष्य बाहर—भीतर एक रूप रहता है, वास्तव में वही अपने स्वरूप को पहचानता है। यदि मनुष्य अपने विचार और व्यवहार में सत्यता ले आवे तो उसका आचार अपने आप ही उच्च कोटि का हो जावे। जो व्यक्ति अपने किसी प्रकार के दोष को छिपाने की चेष्टा नहीं करता उसके चरित्र में कोई दोष भी नहीं रहता। पुराने पापों के परिणाम भी सच्चाई की मनोवृत्ति के उदय होने पर नष्ट हो जाते हैं। ढका हुआ पाप लगता है, खुला पाप मनुष्य को नहीं लगता। जो स्वयं को जितना अधिक सोचता है वह उतना ही अधिक अपने आप को पुण्यात्मा बनाता है। ऐसा ही व्यक्ति दूसरी आध्यात्मिक शक्तियों को प्राप्त करता है।


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