यज्ञ का महत्व

September 1955

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(श्री देवराजजी)

यज्ञ के महत्व को अनेक दृष्टियों से देखा जा सकता है। यहाँ पर हम यज्ञ को समर्पण की दृष्टि से देखेंगे। वेद के पुरुष सूक्त में सृष्टि निर्माण से लिये सर्वहुत यज्ञ का वर्णन आया है। इस सर्वहुत यज्ञ में चेतना सत्ता ने जड़ सत्ता में और जड़ सत्ता ने चेतन सत्ता में अपने आपको पूर्णतया हवन कर दिया है। उभय सत्ताओं से सम्मिश्रण से सृष्टि रचना के विभिन्न रूप प्रकट हुए हैं। इस सम्मिश्रण में उभय सत्ताएँ ओत प्रोत होकर ऐसे रूपों को हमारे सामने प्रकट कर रही हैं कि उनमें एक को दूसरे से पृथक करके पहचानना अति कठिन हुआ है। किसका कितना महत्व है यह सृष्टि को देख कर कहा नहीं जा सकता। जड़ सत्ता का आश्रय लेकर चेतन सत्ता अपने ज्ञान को विविध रूपों में प्रकाशित कर रही है अथवा यों कह सकते हैं कि जड़ सत्ता चेतन सत्ता के ज्ञान को विविध रूपों में दिखलाने के लिये अपने आपको विविध रूपों में प्रकट कर रही है जिस ज्ञान के आधार पर जड़ सत्ता विविध भावों में प्रकट होती है उन भावों में उस ज्ञान का प्रकाश सर्वहुत यज्ञ का बड़ा महत्व प्रकट हो रहा है। कहा है

तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः ऋच सामानि जज्ञिरे।

छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् यजुसतस्मा अजायतः॥

यदि सर्वहुत यज्ञ न होता तो न सृष्टि बनती और न ज्ञान का प्रकाश होता सृष्टि रचना में रचना करने वाले का एक दूसरे के लिए पूर्ण तथा आत्म समर्पण करते हैं। उनके इस आत्म समर्पण समर्पण में एकात्मक भाव के रूप में सन्तान उत्पन्न होती है। गीता में अनेक यज्ञों का वर्णन है।

श्लोक

द्रव्य यज्ञास्तपोयज्ञाः योग यज्ञास्तथा परे। स्वाध्याय ज्ञान यज्ञाश्चयतयः संशित ब्रताः॥

द्रव्य यज्ञ में द्रव्य के साथ जुड़े हुए अपनेपन को छोड़कर लोक कल्याण के लिए अग्नि में समर्पण किया जाता है ज्ञानाग्नि से सम्पन्न गुरु की आत्माग्नि से अपने आत्मा को प्रकाशित करने के लिये शिष्य अपने आपको गुरु के समर्पण करता है। यह स्वाध्याय एवं ज्ञान यज्ञ भी समर्पण के द्वारा यज्ञ के महत्व को सूचित करता है। किसी भी कार्य की सफलता बिना तप के नहीं होती। कार्य सिद्धि के लिए अपने आपको समर्पित करना यह तपो यज्ञ है। आत्मा और परमात्मा के साथ मेल करने के लिये अनात्म भाव का निराकरण योग−यज्ञ है। इसमें भी आत्मा अपने आपको परमात्मा के लिये समर्पण करता है। ऐसा समर्पण वही साधक कर सकते हैं जो अपने लक्ष्य के लिये कटिबद्ध होकर यत्नशील हों और जिन्होंने व्रतों को पालन करने के लिए ऐसा तेज कर डाला है कि किसी भी प्रकार का विघ्न उनके सामने छिन्न भिन्न हो जाता है। उदाहरण के लिए प्रदीप्त हुई अग्नि में डाली गई समिधा का उदाहरण ले सकते हैं। सूखी समिधा को अग्नि, अपने रूप में कर लेती है। समिधा भी यह नहीं सोचती कि उसमें जल जाना है, परन्तु वह तो यह सोचती है कि जैसा अग्नि चमकदार है, वैसा उसे भी चमकदार हो जाना है। यदि उस समिधा में गीलेपन के कारण अपने आपको पृथक रखने के लिए पूर्ण समर्पण का भाव न हो, तो वहाँ धुंआ पैदा हो जावेगा और जब तक अहंकार रूपी समिधा का गीलापन दूर नहीं हो जायगा, तब तक वह समिधा, अग्नि की तेज को धारण नहीं कर सकेगी। प्राचीन परिपाटी में, शिष्य सूखी समिधा हाथ में लेकर किसी महान गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए जाया करता था। सूखी समिधा लेकर गुरु के सामने उपस्थित होना यह समर्पण का भाव है।

वेद में कहा है “यज्ञो वै श्रेष्ठतमम् कर्म” इस वाक्य में यज्ञ को सब कर्मों से अधिक उत्तम कर्म कहा है। यहाँ पर विचारणीय है कि सब कर्मों से अधिक उत्तम कर्म यज्ञ किस प्रकार है? राष्ट्र निर्माण के स्वरूप पर विचार करते हुए प्रतीत होता है कि व्यष्टि अपने आप को समष्टि के लिए अर्पण किये हुए हैं। परिवार का एक−एक व्यक्ति अपने आपको परिवार की समष्टि आत्मा की उन्नति के लिये समर्पण करता है। एक−एक परिवार अपने ग्राम की समष्टि आत्मा की उन्नति के लिए अपने आपको समर्पण करता है। इसी प्रकार एक−एक ग्राम अपने आपको प्रान्त की समष्टि आत्मा कीं उन्नति के लिये समर्पण करता है। इसी प्रकार सब प्रान्त मिलकर अपने आपको राष्ट्र की समष्टि आत्मा की उन्नति के लिये समर्पण किये हुए हैं। इसी प्रकार सब राष्ट्र मिलकर अपने आपको विश्व की समष्टि आत्मा की उन्नति के लिये समर्पण किये हुए हैं। यह अर्पण का भाव, जिससे सारे विश्व की उन्नति होती है, श्रेष्ठतम यज्ञ कर्म है। यह महा समष्टि आत्मा, जिसमें छोटी छोटी सब समष्टियाँ सम्मिलित हैं, गीता में बतलाया गया उत्तम पुरुष वाच्य, अहम् शब्द से कहा गया, श्रीकृष्ण परम तत्व है। इसी परम तत्व को लेकर अर्जुन को कहा है कि जो कुछ तू करता है, खाता पीता है या तप करता है या दान करता है या हवन करता है, वह सब मेरे अर्पण करदे अर्थात् उस समष्टि आत्मा के अर्पण करदे, जिसका तू अंग है। प्रत्येक मनुष्य को कुछ भी ज्ञान एवं कर्म करते हुए यह ध्यान रखना चाहिये कि उसके मन, वचन और शरीर से ऐसा तो कुछ नहीं होता, जिससे, उसके राष्ट्र की एवं समष्टि आत्मा की हानि होती हो। इस प्रकार यज्ञार्थ कर्म करते हुए कर्त्तव्य बुद्धि से अपना कार्य करता है, किसी प्रकार की भावना से बद्ध हुआ कार्य नहीं करता, भावना से बद्ध होकर कार्य करने से संग दोष पैदा हो जाता है, जिसके कारण यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म नहीं करता। इसी भाव को गीता में कहा है:—

यज्ञार्थात् कर्मणोन्यत्र लोकोयम् कर्मबंधनः। तदर्थम् कर्म कौन्तेय मुक्त संगत्समाचर॥

इसी श्रेष्ठतम यज्ञ को पवित्र कारक कहा है।

“यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्”

उपरोक्त लेख से स्पष्ट विदित होता है कि यज्ञ का महत्व समर्पण में छिपा है। यज्ञ के महत्व को समझते हुए अहम् भाव से रहित होकर समर्पण बुद्धि के साथ अपना कर्त्तव्य कर्म करने की मनुष्यों को आदत डालनी चाहिये।


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