गायत्री उपासना से आत्म कल्याण

September 1955

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(श्री गायत्रीस्वरूपजी वानप्रस्थी)

गायत्री त्रिपदाँ त्रिबीज सहिताँ त्रिव्याहृतिं त्रैपदाँ त्रिब्रह्म त्रिगुणाँ त्रिकाल नियमाँ वेदवयीं ताँ पराम् साँख्यादिवय रूपिणीं त्रिनयनाँ मातृ त्रयीं तत्पराम् त्रैलोक्य−त्रिदश−त्रिकोटि−सहिताँ संध्यात्रयीं ताँ नमः।1।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हम तीनों ही वर्ण द्विज कहलाते हैं। तीनों का कर्त्तव्य है, श्री जगज्जननी वेदमाता गायत्री की उपासना करें। प्राचीन समय में इसी के प्रताप से हमने विश्व में अपने प्रभुत्व का डंका बजाया था, किन्तु आज हमारी उस उपासना के त्यागने से जो दुर्गति हुई है, वह छिपी नहीं, उसे देख कर हम दुःखित तो अवश्य होते हैं, परन्तु करते कुछ नहीं। हम इतने अकर्मण्य हो गये है कि 24 घंटों में 1 घंटा तो दूर रहा, पर कुछ मिनट भी उस पतितपावनी माँ गायत्री की विधिपूर्वक उपासना नहीं करते।

इस गोपनीय मंत्र की साधना के लिये पहले इस मंत्र के रूप, महत्त्व, अर्थ, पुरश्चरण, सिद्धि तथा सिद्धि प्राप्त महापुरुषों के विषय में जानना परमावश्यक है। प्रथम गायत्री का क्या स्वरूप है? गायत्री के स्वरूप के विषय में भगवान् शंकराचार्य जी ने कहा है कि—

इदं सर्व भूतं प्राणिजातंयत्किञ्चित् स्थावरं जंगमंवासर्वं गायत्री एवं ॥

अर्थात् ये जो स्थावर जंगम समस्त सर्वभूतात्मक जगत है, वही गायत्री का स्वरूप है।

इसी प्रकार छाँदोग्य उपनिषद् में लिखा है कि− गायत्री वा इदं सर्व भूतं यदिदं किंचित्, वाग्वै− गायत्री बाग्वा इदं सर्वं भूतं गायति त्रायते च॥

अब स्वरूप के बाद गायत्री का क्या महत्त्व है इसके लिये महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने लिखा है कि:−

सारभूततास्तु वेदानाँ गुह्योपनिषदो स्मृताः तेषाँसारस्तुगायत्री तिस्त्रो व्याहृतयस्तथा॥

अर्थात्−वेदों के सारभूत उपनिषद् और उपनिषदों का सार जो है, वह तीन व्याहृति तथा गायत्री है। इस लिये ही इसके जानने से सब जाना जाता है, यथा उक्त ऋषि ने कहा है कि—

एतया ज्ञातया सर्वं वाङ्मयं विदितं भवेत् उपासितंभवेत्तेन विश्वं भुवनसप्तकम्॥

अर्थात्− जिसने इस की उपासना की उसने सब उपासनाएँ करलीं। इसका अर्थ भगवान् वेदव्यास ने इस प्रकार किया है कि:−

गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते ततः॥

बृहदारण्यक उपनिषद् में भी लिखा है कि—

तद्वैतत् सत्यंबलं प्रतिष्ठितं प्राणो वैबलं तत् प्राणो प्रतिष्ठितमित्यादि। साहैपा गयाँ स्तत्वे प्राणावै गयाँस्तान् प्राणास्तत्वै यस्माद् गयाँस्तत्रे तस्माद् गयात्री नाम॥

अर्थात्− जो पवित्र कर शुद्धज्ञान द्वारा जीव के अन्तः करण को प्रकाशित करती है कि जिससे वह स्व सत्स्वरूप को जान कर जीवनमुक्त हो जाते हैं।

पुरश्चरण−उसकी आवश्यकता और उसके प्रकार−मंत्र सिद्धि के लिये पुरश्चरण करना परमावश्यक है। संख्या के लिए गायत्री पंचांग में लिखा है कि—

गायत्री छन्दमंत्रस्य यथासंख्याक्षराणि च तावल्लक्षाणिकर्तव्यं पुरश्चरणक तथा॥

इस वचनानुसार गायत्री मंत्र के 24 अक्षर होने से 24 लक्ष का पुरश्चरण होता है। पुरश्चरण किसका कहते हैं, इसके लिये उक्त शास्त्र में लिखा है कि—

पंचांगानि महादेवि जपो होमश्च तर्पणम् अभिषेकश्चविप्राणा−माराधनमपीश्वरी पूर्वपूर्वं दशाँशेन पुरश्चरणमुच्यते॥

अर्थात् जप, होम, तर्पण, मार्जन और ब्राह्मण भोजन। जप का दशाँश हवन, उसका दशाँश तर्पण, दशाँश मार्जन तथा ब्राह्मण भोजन यह विधिपूर्वक किये हुए कर्म, पुरश्चरण कहलाते हैं। ये अनेक प्रकार की संख्या के हैं यथा सपादकोट्यात्मक, चतुविशतिलक्षात्मक, सपादलक्षात्मक तथा चत्त्वारिंशत् सहस्त्रात्मक इन की विधि गुरुगम्य है। उपासक यदि इसके पूर्णज्ञाता गुरु द्वारा विधि समझकर पुरश्चरणादिक करता है, तो वह अवश्य सफल होता है।

जिन्होंने श्री वसिष्ठ तथा विश्वामित्र ऋषि का इतिहास पढ़ा है उनको यह विदित ही होगा कि श्री वसिष्ठ जी ने इस गायत्री मंत्र की सिद्धि से ही विश्वामित्र के विपुल सैन्य बल को कुँठित कर दिया था और अन्त में विश्वामित्र जीने भी गायत्री मंत्र को ही सर्वश्रेष्ठ जान कर और उसकी उपासना करके नया विश्व बना सके, ऐसी सिद्धि प्राप्त की थी। सिद्धि प्राप्त पुरुषों के नाम कौन गिना सकता है? तथापि मुख्य मुख्य महापुरुष इसी मंत्र के उपासक थे। साक्षात् भगवान् रामचन्द्र जी और श्री कृष्णचंद्र भगवान् भी प्रतिदिन नियमपूर्वक गायत्री की उपासना करते थे जिसके प्रमाण रामायण, भागवतादि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं तथा वसिष्ठ, गौतम, अवि, कश्यप, भरद्वाज, जमदग्नि आदि महर्षिगण गायत्री के परमोपासक थे तथा कुछ समय पहले श्री विद्यारण्य मुनि, श्री लोकमणिजी करके सिद्ध पुरुष हो गये हैं और आज भी मुझे विश्वास है कि यह वसुँधरा सिद्धि से खाली नहीं है।

यदि हम अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करना चाहते हैं तो वेद−शास्त्रों की सारभूता श्री गायत्री की उपासना में प्रवृत्त हो जाना चाहिये क्योंकि−

अनन्त पारं किल शब्द शास्त्रंस्वल्पंतथायुः बहक्श्च विघ्नाः। सारं ततो ग्राह्य मपास्य फल्गु हंसो यथा क्षीर मिवाम्बुमध्यात्॥

अर्थात्−शास्त्र तो अनंत है, आयुस्वल्प और विघ्न−बाधाओं से छुटकारा कठिन है इसलिये हंस के समान सार वस्तु को ग्रहण करो। अन्त में अब मैं विप्रमण्डली से भी करबद्ध होकर प्रार्थना करता हूँ हे परम तेजस्वी ऋषियों की संतानों! आप अपनी परमोपास्या को क्यों भूल गये हो? देखो। शास्त्रकारों ने ब्राह्मण के लिये गायत्री की उपासना कितनी जरूरी बतलाई है। भारद्वाज ऋषि कहते हैं कि—

संध्याँ तोपास−तेविप्राः कथं ते ब्राह्मणाः स्मृताः यज्ञदानरतो विद्वान्, साँगवेदस्तु पाठकः गायत्री ध्यानपूतस्य कलाँनार्हन्ति षोडशीम्।

सर्व देवताओं का पूजन भी गायत्री की पूजा के सिवाय किसी काम का नहीं, जैसा गायत्री तन्त्र दशम पटल में लिखा है कि—

“शिव पूजा शक्ति पूजा, विष्णुपूजादिका च या सर्वापूजा वृथा भद्रे गायत्री−पूजनं बिना”

अपने प्राचीन गौरव को याद करो, आप उन्हीं की संतान हैं, जिनके समस्त राष्ट्र कृपाकाँक्षी थे फिर क्यों नहीं अपने अतीत गौरव को प्राप्त करके संसार में अपने ब्रह्म बल की विजय दुन्दुभी बजावें? हम यदि भक्ति भावना से महामाया गायत्री की उपासना करेंगे तो सब सिद्धियाँ हमारे सामने करबद्ध होकर उपस्थित रहेंगी। गायत्री के सिवाय जो अन्य मन्त्रों की उपासना करता है वह तो—

“गायत्रींतु परित्वज्य, अन्यमंत्रं उफसते,

सिद्धान्नं च परित्यज्य भिक्षामटति दुर्मतिः”

अर्थात् — जो गायत्री मंत्र को त्याग कर अन्य मन्त्रों की उपासना में लगा रहता है वह पके पकाये सुन्दर भोजन को त्यागकर, दर−दर भीख माँगने की गलती करता है।


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