अन्दर की पुस्तक भी पढ़िये

September 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(कुमारी भारती)

—यह ठीक है कि तुम बहुत पुस्तकें पढ़ते हो। विद्वान् और प्रतिष्ठित हो यह भी ठीक है। परन्तु चाहे तुमने कितने ही बड़े−बड़े ग्रन्थ पढ़े हों तब भी जब तक तुमने अन्दर की किताब नहीं पढ़ी तब तक अनपढ़ ही हो। इसलिए तुम अन्दर की किताब पढ़ो।

—एक पहुँचे हुए सन्त महात्मा की प्रशंसा सुनकर एक बार कालेज के एक प्रोफेसर महोदय दर्शन के लिये उनके पास पहुँचे। महात्मा आनन्द के साथ अपनी कुटिया में बैठे थे, उनकी मुख−मुद्रा शान्त और प्रसन्न थी जिससे यह स्पष्ट प्रतीत होता था कि यह पहुँचे हुए सन्त हैं। प्रोफेसर जी ने सन्त से पूछा “आपने उपनिषद्, गीता और अन्य ग्रन्थ पढ़े हैं? आपने वेदों का और दर्शनशास्त्रों का अध्ययन किया है?” प्रश्न को सुनकर महात्मा जोर से हँसा और बोला—”बाबा अन्दर की किताब पढ़ो इस उत्तर में स्यष्टोक्ति और सत्य है। प्रोफेसर जी की इच्छा सन्त से आत्मा, परमात्मा और मोक्ष के बारे में शास्त्रार्थ अथवा चर्चा करने की थी परन्तु उसने उत्तर ने प्रोफेसर जी की इच्छा पूरी न होने दी।

—तुम कुछ किताबें बाहरी आँखों से पढ़ लेने भर से अपने आपको इस योग्य मान रहे हो कि तुम्हें ब्रह्म और अध्यात्म के बारे में चर्चा करने का अधिकार है। यह तुम्हारी भूल है।

—अध्यात्म-चर्चा का सबको अधिकार है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि अध्यात्म-चर्चा का वही अधिकारी हो सकता है जिसमें प्रपत्ति अर्थात् ईश्वर शरणागति की भावना जागृत हो गई है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश तब सुनाया है, जब उसने अपने आपको भगवान के चरणों में अर्पण कर दिया। “शिष्यस्तेऽहं शाधिमां त्वां प्रपन्नम्।”

—जो मनुष्य अपनी विद्या अथवा पुस्तक−ज्ञान के बल पर अभिमान करता है वह अध्यात्म से बहुत दूर है। इस अभिमान को निर्मूल करने के लिए अन्दर की किताब पढ़ो।

—इस किताब को पढ़ने के लिये तुम्हें बाहर की आँखें बन्द करनी होंगी और साथ ही जागृत रहना होगा। यदि बाहर को आंखें बन्द करने पर तुम सो गये तो तुम्हारा उद्देश्य पूरा न होगा। अन्दर की किताब को पढ़ने के लिए अधिक जागरुकता की आवश्यकता है। अन्दर और बाहर की किताब में एक स्पष्ट अन्तर है, बाहर की किताब पढ़ते−पढ़ते तुम थक जाते हो उसमें न्यूनता की इच्छा और आवश्यकता रहती है। अतः अन्दर की किताब यदि तुमने एक बार पढ़ली तो और सब फीका लगेगा तथा इस किताब से तुम कभी नहीं छोड़ेंगे। इसी किताब को पढ़ते−पढ़ते ईसामसीह खुशी से सूली पर लटक गये। भगवान् बुद्ध ने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे−बैठे छह वर्ष, छह क्षण के समान समझ कर बिताये। ऋषि दयानन्द ने विषपान करके मृत्यु के समय ‘ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो’ का जो नारा बुलन्द किया था उसका भी कारण यही था।

—वृद्ध और क्षीणकाय विनोबा आज पैदल एक ग्राम से दूसरे ग्राम में घूम रहा है, वह भी अन्दर की ही किताब को पढ़ रहा है।

—अन्दर की यह किताब अनेक जन्मों में पूरी होती है। भगवान् कृष्ण ने जो “अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्” कहा है उसका भी यही अर्थ है।

—जो व्यक्ति इस मार्ग का जिज्ञासु भर है, वह भी बाहरी किताबों के ढेरों पढ़ने वालों से उत्तम है। “जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्माऽति वर्वते” गीता।

—जो पुस्तकें तुम्हारे इस कार्य में अर्थात् अन्दर की किताब पढ़ने में सहायक हों उनको भी अपना सहायक समझो। इतना तो निश्चित समझो−तुम्हारी सफलता इसी में है कि मानव शरीर प्राप्त करके तुम अन्दर की किताब को पढ़ो।

संसार के महापुरुष और संत महात्मा तथा शास्त्र, इस सत्य के साक्षी हैं। विश्वास करो। अन्दर की किताब पढ़ो।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118