शान्तिदायिनी निद्रा

September 1955

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(प्रो. मोहनलाल वर्मा एम. ए, एल. एल. बी)

मुझे निद्रा बहुत आती है,विशेषतः भोजन के उपरान्त। रात्रि में आठ घण्टे के लगभग अवश्य सोता हूँ। स्वतः नेत्र मुँदने लगते हैं और मन कहता है कि थोड़ी देर विश्राम करूं। रात्रि में यदि प्रकृति की माँग के अनुसार मैं विश्राम कर लेता हूँ, तो तबियत हलकी हो जाती है। काम करने को जी चाहता है, शरीर में ताजगी रहती है और हृदय प्रफुल्लित हो जाता है।

भोजन के उपरान्त कुछ देर के लिए लेटे रहने और सो जाने से पाचन क्रिया पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है। कारण, जब हम विश्राम करते हैं, तो रक्त प्रवाह आमाशय की ओर जाना है और पाचन क्रिया में सहायता होती है। यदि खाना खाने के पश्चात् तुरन्त कार्य में लग जायं और विश्राम न लें, तो रक्त प्रवाह आमाशय और अंतड़ियाँ की ओर को न होकर अन्य अवयवों की ओर होता रहेगा और पाचन क्रिया में निरत अंगों को रक्त पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने के कारण भोजन ठीक रीति से न पचेगा।

निद्रा की गोद शान्तिदायिनी है। इससे मस्तिष्क के थके स्नायुओं को भी विश्राम प्राप्त होता है तथा उनकी क्षीण शक्ति पुनः सञ्चारित हो जाती है।

हमारे शरीरों में निरन्तर दो प्रकार की क्रियाएँ चला करती हैं। जो पुट्ठे या माँस पेशियाँ कार्य करती हैं, उनके सेल (Cells) नष्ट हो जाते हैं। इस क्रिया को कैटाबौलिज्म कहते हैं। निद्रा से टूटे हुए सेल पुनः बनते हैं। नवीन कोषों के निर्माण को मेंटम्बौलिज्म कहते हैं। जितना ही कोई अंग अधिक काम में लिया जाता है, उतनी ही अधिक मात्रा में ये दोनों क्रियाएं सञ्चालित होती हैं और इसके परिणाम स्वरूप शरीर का प्रत्येक अंग अधिक बलिष्ठ हो जाता है।

वैज्ञानिकों का मत है कि नवीन रक्त कोषों का निर्माण कार्य निद्रित अवस्था में अधिक सुचारु रूप में होता है। क्योंकि इस दशा में थके हुए अंगों को पूर्ण विश्राम प्राप्त हो जाता है और उसमें मैटाबौलिज्म निर्विघ्न चल सकता है। यही कारण है कि थक कर गहरी निद्रा आती है और जागृत होने पर शक्ति स्फूर्ति तथा ताजगी का अनुभव होता है। शरीर और मन प्रफुल्ल हो जाते हैं।

निद्रा मानसिक समस्या को दूर करने का एक प्राकृतिक साधन है। यह तनाव मानसिक ग्रन्थियों के कारण होता है, जो हमारे तीव्र तथा अत्यन्त कटु साँसारिक अनुभवों के कारण मन में पड़ जाती है। यह अनुभव जाग्रत मन से बहुत दूर गहराई में दब जाते हैं कि हम अपनी जाग्रतावस्था में इनको बिल्कुल नहीं जान सकते, क्योंकि सामाजिक भय और नियंत्रण किसी अन्य प्रबल मानसिक वेदना के कारण जाग्रत मन, उन्हें चेतना के ऊपरी स्तर पर नहीं आने देता।

यह अन्तर्मन में दबी हुई कटु अनुभूतियाँ, चेतन मन से तिरस्कृत निद्रित अवस्था में स्वप्नों के रूप में पुनः बाहर निकलने का सहज स्वाभाविक अवसर पाती हैं। दबी हुई इच्छाओं से स्वप्नों में हमारी दलित या छिपी हुई अनुभूतियों की पूर्ति होती है इससे मानसिक तनाव कुछ कम होता है।

प्रकृति स्वयं चाहती है कि थकने के पश्चात् हम पर्याप्त विश्राम करे। नवजात शिशुओं को शान्तिदायिनी निद्रा की अधिक आवश्यकता होती है। छोटा बच्चा प्रायः भूखा या निद्रित होकर तृप्ति के लिए चिल्लाता है और सोकर ताजे पुष्प के समान सुन्दर प्रतीत होता है। जैसे−जैसे हम बड़े होते हैं, शक्ति आती है, वैसे विश्राम की सहज स्वाभाविक आवश्यकता कम होती जाती है, हम उतना ही अधिक समय जाग्रत अवस्था में व्यतीत करते हैं।

नवयुवकों को प्रौढ़ों की अपेक्षा निद्रा अधिक सताती है; परन्तु कम से कम आठ घण्टे सोने की आवश्यकता तो सर्व साधारण सभी की होती है; परन्तु यह आवश्यकता श्रम और भोजन की मात्रा और किस्म के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। स्थूल, तामसिक भोजन, निद्रा की मात्रा में अभिवृद्धि करने वाला है; तथा सूक्ष्म सात्विक आहार और निर्मल विचार कम निद्रा लाते हैं। प्रायः अज्ञान वश हम मिर्च मसाले आदि द्वारा भोजन को सुस्वादु बनाकर उसकी मात्रा अनावश्यक बढ़ाकर खा लेते हैं तथा गरिष्ठ भोजन को पचाने में आमाशय आदि पाचन अवयवों को अधिक श्रम करना पड़ता है। अतः इनका प्रयोग करने वाले व्यक्तियों को अपेक्षा कृत अधिक निद्रा आती है।

शारीरिक तथा मानसिक कार्य में निरत रहने से भी निद्रा का निग्रह होता है। अध्यापकों को जब शरद् ऋतु में भी अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्त हो जाता है; तो कुछ देर के लिए सोने की इच्छा प्रबल होती है जब कि अध्यापन काल में वे 11 बजे प्रातः से 5—6 बजे साँय तक कार्य में संलग्न रहते हैं और सोने की स्मृति भी नहीं आती। गर्मी के दिनों में जब स्कूल का समय 7 बजे प्रातः से 12 बजे तक होता है; तो देखा गया है कि अधिकाँश अध्यापक दोपहर में कुछ देर के लिये विश्राम करते हैं।

निद्रा का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। जब अवकाश होता है और कुछ विशेष कार्य करना नहीं होता तो प्रायः निद्रा आ दबाती है। कार्य में संलग्न रहने से और मन को शुभ चिन्तन में लगाये रखने से अनावश्यक निद्रा से प्रायः मुक्ति मिल जाती है।

कहना न होगा कि यद्यपि निद्रा एक निश्चित समय तथा मात्रा में हमारे लिए आवश्यक है तथा उत्तम स्वास्थ्य का लक्षण है तथापि इसे मात्रा से अधिक बढ़ाया या घटाया जा सकता है। अतिवृद्धि से यह हमारे कार्य में अनुचित हस्तक्षेप भी करने लगती है तथा कम होने पर स्वास्थ्य नष्ट होने लगता है। अतः 7−8 घन्टे से बढ़ने न देना चाहिए। निद्रा से समय बचा कर शेष समय का सद् प्रयोग करना चाहिए।

निद्रा में रहने वाले प्रहरी को मृत्यु को मृत्यु दंड तक दिया जा सकता है, तो निद्रा न आने वाले व्यक्ति को पागल समझा पाता है। निद्रा हमारे लिए वरदान तभी हो सकती है जब हम शरीर की शक्ति और भय के अनुसार उसे ग्रहण करें।

निद्रा का अभाव अनिद्रा या इनेसौमनिया रोग उत्पन्न करता है। ऐसा रोगी मन ही मन अनेक काल्पनिक भयों से परिपूर्ण अस्त व्यस्त रहता है। सर में दर्द, जी भारी, कार्य से अरुचि, चिन्ता, पाचन शक्ति का ह्रास, आदि इसके प्रमुख लक्षण हैं। कभी−कभी रात्रि या अन्य किसी समय रोगी चेतना हीन होता है; आँख लग जाती है,परन्तु इसका विश्वास नहीं होता। निद्रा अभाव की ही धारणा बनी रहती है, जिसके कारण विशेष चिन्ता और बेचैनी हर समय बनी रहती है।

शेक्सपियर ने लिखा है, ‘ओ निद्रा! ओ नम्र निद्रा—प्रकृति की सुशील धात्रि! तू मुझसे कैसे विमुख हो गई! अब तू क्यों मेरी पलकों को भारी नहीं करती और मेरी ज्ञानेन्द्रियों को विस्मृत में क्यों निमग्न नहीं करती। ओ पक्षपात युक्त निद्रा! जब कि तू तूफानों से भरे हुए भयानक समय में आराम दे सकती है, तो तू रात्रि को परम शक्ति और निस्तब्धता में हर प्रकार की उपयोगी सामग्री उपलब्ध होते हुए भी एक राजा को दुष्प्राप्य है। अच्छा भाग्यशाली दरिद्रो विश्राम करों! [हेनरी चतुर्थ से]

स्वर्गमयी निद्रा! तुम हमारे धर्म चक्षुओं का मधुर चुम्बन करो। मन्द मुस्कान युक्त तुम जाग्रत हो!

ये बन्धन रहित चरित्र वाले सुन्दर व्यक्तियों! रोओ नहीं; सो जाओ! मैं तुम्हें लोरियाँ दूँगी। मैं [निद्रा] तुम्हारी स्नेहमयी माता के समान हूँ। लोरियों के पालने में झुलाऊँगी!


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