(श्रीमती शाँति लाहोटी एम.ए.बी.टी.)
जिस मनुष्य की जितनी ज्ञान शक्ति विकसित होगी उसका जीवन उतना ही सुखमय होगा। अब प्रश्न है कि ज्ञान शक्ति का विकास कैसे किया जाय? क्या इसके लिए कोई औषधि है या चिकित्सा है? वास्तव में यह मनुष्य के प्रयत्न पर निर्भर करता है कि वह अपनी ज्ञान शक्ति का विकास करे या न करे। यह शक्ति सबके पास होती है, पर उसे विकसित कुछ प्रयत्नशील ही कर पाते हैं। यहाँ पर कुछ उपाय बताये जाते हैं जिनके द्वारा ज्ञान शक्ति का विकास करने में सहायता मिलेगी।
1. सर्वप्रथम मनुष्य को किसी भी वस्तु को देखने के अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा। भगवान की सृष्टि में कोई भी वस्तु असुन्दर नहीं है। यह केवल दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हम किसी वस्तु में सुन्दरता देखें और किसी में असुन्दरता। एक गुरु ने अपने शिष्य से पूछा कि संसार में कौन सी वस्तु असुन्दर है? शिष्य जब पूरे संसार का भ्रमण करके वापिस आया तो कहा कि गुरुदेव मुझे तो भगवान की सृष्टि में कोई भी वस्तु असुन्दर दृष्टिगत नहीं हुई। वस्तुतः इस संसार में कोई भी वस्तु असुन्दर नहीं है। मनुष्य बहुधा वस्तु की अच्छाई पर दृष्टिपात न करके बुराई पर करता है। इससे उसे बहुत कम वस्तुओं में रुचि होती है और उसका ज्ञान भी कुछ ही वर्षों तक सीमित होता है। अतः मनुष्य को अपनी रुचि को परिष्कृत करना चाहिए। प्रत्येक वस्तु में रुचि रखनी चाहिये। जिस कार्य में जितनी अधिक रुचि होगी वह उतना ही सरल हो जायेगा। हम प्रत्येक वस्तु में अच्छाई देखने की आदत डालें। जितनी ही हमारी रुचि परिष्कृत होगी उतना ही कार्य करने में आनन्द मिलेगा और ज्ञान का विकास भी होगा।
2. मनुष्य के जीवन में आशा-निराशा, सफलता-असफलता, हानि-लाभ, सुख-दुःख के क्षण आते रहते हैं, जो इनसे प्रभावित न होकर दृढ़ संकल्प के साथ ध्येय में लगे रहते हैं उन्हीं की जीवन में विजय होती है। प्रायः मनुष्य थोड़ी सी कठिनाई में ही निराशा व निरुत्साहित हो जाते हैं, छोटी-छोटी बातों पर चिन्तित होकर अपने मस्तिष्क की शक्ति को व्यय कर देते हैं जिससे उनके ज्ञान के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। यही नहीं उनकी स्मरण शक्ति तक नष्ट हो जाती है। उनकी अपने कार्यों में रुचि नहीं रहती। यह स्थिति मानसिक विकास के लिए घातक है। हमारा बौद्धिक विकास तभी होता है जब अपना प्रत्येक कार्य उत्साह से करते रहा जाय।
3. प्रायः मनुष्य का स्वभाव सरल कार्य को करने का होता है। अगर कभी कोई कठिन कार्य करना पड़ जाये तो उन्हें बड़ी परेशानी अनुभव होती है। कुछ मनुष्य तो कठिन कार्य करने का साहस ही नहीं करते। कुछ करते हैं तो परेशानी होने के कारण बीच में ही छोड़ देते हैं। कोई विरले ही मनुष्य होते हैं जो अनेकों कठिनाइयों और बाधाओं के होने पर भी अपने ध्येय में लगे रहते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों की ज्ञान-शक्ति का विकास होता है। वास्तव में जिस प्रकार से शारीरिक परिश्रम न करने से स्वास्थ्य खराब हो जाता है उसी प्रकार मानसिक परिश्रम न करने से मस्तिष्क भी अस्वस्थ हो जाता है। जो मनुष्य कठिन कार्य करने से घबराते हैं उनका मस्तिष्क बलहीन हो जाता है। यही कारण है कि शारीरिक एवं मानसिक कठिनाइयों से डरने वाले मनुष्य जीवन में कोई बड़ी उन्नति नहीं कर पाते। जब तक परिश्रम द्वारा मस्तिष्क को सुदृढ़ नहीं बनाया जावेगा तब तक वह कैसे स्वस्थ रह सकता है। हममें से अधिकतर मनुष्यों की यह विचारधारा हो गई है कि ‘जो साहस और वीरता के कार्य करने की शक्ति हमारे पूर्वजों में थी वह हम में नहीं है। वीरता और साहसी कार्य तो विशिष्ट पुरुष नेता ही कर सकते हैं।’ यह धारणा बिलकुल गलत है। यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह अपनी शक्तियों का कहाँ तक उपयोग करे। जो अपनी शक्तियों का जितना उपयोग करेगा वह उतना ही उन्हें विकसित कर सकेगा। इसके लिये यह आवश्यक है कि हम कठिन कार्य करने का अभ्यास डालें। पाश्चात्य देशों में बच्चों को प्रारंभ से ही स्वावलम्बी होने की आदत डाली जाती है। प्राचीन काल में हमारे देश में भी बालकों को गुरुकुलों में भेज कर कठोर शारीरिक और मानसिक काम करने का अभ्यासी बनाया जाता था। तभी वे सब दृष्टियों से बलवान होते थे। मनुष्य को कठिन कार्य करने की आदत डालनी चाहिये जिससे उसकी गुप्त शक्तियाँ जागृति हों और ज्ञान शक्ति का विकास हो।
4. किसी भी कार्य को करने के लिए उस पर मस्तिष्क की चित्तवृत्तियों का केन्द्रित होना आवश्यक है। जब तक मस्तिष्क पूरी तरह केन्द्रित नहीं होगा तब तक किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता नहीं मिलेगी। मस्तिष्क को केन्द्रित करने के लिए उस कार्य में रुचि होना आवश्यक है। अगर हमें कार्य में रुचि नहीं होगी तो हमारा मन भी उस पर केन्द्रित नहीं होगा, जिसके परिणामस्वरूप वह कार्य कठिन हो जायेगा और सफलता भी नहीं मिलेगी। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि अगर किसी कार्य में रुचि न हो तो कैसे उत्पन्न की जाये? इसके लिये दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा। जो भी कार्य या वस्तु हो उसके बारे में सुन्दर कल्पना करनी चाहिये तब ही उसमें रुचि होगी। बच्चों में यह आदत प्रारंभ से ही डालनी चाहिये। प्रायः माता-पिता को यह शिकायत रहती है कि बच्चे किसी भी कार्य में ध्यान नहीं देते हैं या उन्हें बहुत कम ज्ञान होता है। वास्तव में बच्चों का मस्तिष्क अपरिपक्व होता है। जिस कार्य को कराना हो उसके लिए पहले उनमें रुचि उत्पन्न करनी चाहिए। जब उन्हें किसी कार्य में रुचि होगी तो उनका मन स्वयमेव केन्द्रित हो जायेगा। यदि हमें अपनी ज्ञान शक्ति का विकास करना है तो दृष्टिकोण में परिवर्तन करना आवश्यक है। अपने कार्य एवं लक्ष्य में अच्छाई देखने की कल्पना भली प्रकार करनी चाहिये। कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न हो। जब कार्य में रुचि होगी तो मन की शक्ति उस पर केन्द्रित होगी। जब मस्तिष्क केन्द्रित होगा तो वस्तु का ज्ञान भी प्राप्त होगा। जितना अधिक ज्ञान प्राप्त होगा उतना ही मस्तिष्क का विकास होगा। मस्तिष्क के विकास पर ही व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता है और व्यक्तित्व के विकास पर मनुष्य की उन्नति होती है जिससे उसका जीवन सुखमय बन जाता है।