होली की पौराणिक पृष्ठभूमि

March 1954

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(श्री पौराणिक शास्त्री)

हिन्दू संस्कृति में प्रचलित प्रायः समस्त उत्सवों में होलिकोत्सव का विशेष महत्व है। इसका सर्व-सामान्य स्वरूप केवल भारत के विभिन्न भागों में ही नहीं बल्कि संसार के अन्य राष्ट्रों में भी किसी न किसी रूप में पाया जाता है। मूलतः इस उत्सव के दो अंग आर्य संस्कृति में पाये जाते हैं। एक है होलिका-दहन और उसके साथ-साथ कीचड़, कालिख और भद्दा रंग डालना, नंगे स्वाँगों का प्रदर्शन करना और अश्लील कबीर और जोगीरे गाना तथा दूसरा अंग है वसन्त का उत्सव मानना, अबीर, गुलाल जैसे नेत्र रञ्जक रंगों को छोड़ना, छुड़वाना और साथ ही साथ होली, फाग, झूमर-वसन्त आदि रागों को गा-बजाकर उत्सव एवं समारोह मनाना। ये दोनों परस्पर भिन्न रस्में आपस में हिलमिल कर इस उत्सव को इस प्रकार सराबोर कर चुकी हैं कि आज यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि ये कब एक दूसरे में मिलीं। आइए, अब जरा प्राचीन हिन्दू धर्म-ग्रंथों, शास्त्रों, पुराणों पर दृष्टि डालें और देखें कि होली का शास्त्रीय स्वरूप क्या है?

शास्त्रों के अनुसार फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि को होली का उत्सव मनाया जाना चाहिए। कभी-कभी यह पूर्णिमा दो दिन पड़ जाती है। ऐसी अवस्था में दूसरी पूर्णिमा को ही होली जलानी चाहिए। जिस दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा वर्तमान हो, भद्रा न हो, उस दिन सूर्यास्त के उपरान्त ही होली जलाने का विधान है। भद्रा के आरंभ की पाँच घड़ी ‘भद्रा का मुख’ और इसके उपरान्त की तीन घड़ी ‘भद्रा की पूँछ’ कही जाती है। कहीं-कहीं भद्रा की ‘पूँछ’ में होली जलाने की छूट शास्त्रकारों ने दी है किन्तु प्रायः सभी आचार्य शास्त्रियों ने दिन, प्रतिपदा, चतुर्दशी तथा में होली प्रज्ज्वलित करने का विरोध किया है। उनका ऐसा विश्वास है कि जहाँ इन तिथियों एवं समयों में होली जलाई जाती है वहाँ वर्ष भर के अन्दर ही क्या मनुष्य, क्या राज्य, सभी का नाश हो जाता है। यथा-

प्रतिपद भूत भद्रासु यार्चिता होलिका दिवा। संवत्सरंतु न द्राष्ट्रं पुर दहति साद्भुतम्॥

पुराण समुञ्चय में लिखा है कि भद्रा में होली जलाने से देश में शीघ्र ही उत्पात आरंभ हो जाते हैं तथा उस गाँव या शहर में अशाँति रहती है।

होली के अवसर पर काष्ठ संचय करने की अनेक कुप्रथाएं हमारे हिन्दू समाज में प्रचलित हैं। लकड़ी का चोरी करना धर्म माना जाता है। ऋतुओं के विभाजन के समय पता नहीं कब से माघ और फाल्गुन को शिशिर तथा चैत्र एवं वैशाख को वसंत माना गया है किन्तु आजकल तो माघ की पंचमी से ही वसंत का आगमन मान लिया जाता है। माघ के शुक्ल पक्ष की पंचमी को जिसे वसंत पंचमी भी कहते हैं, रात को ही होली का प्रतीक एक काष्ठ या रेंड प्रत्येक गाँव, मुहल्ले या टीले में गाड़ दिया जाता है। उसी दिन से काष्ठ-संचय प्रारंभ हो जाता है और वसन्त राग या चौताल आदि गाये जाने लगते है। पर शास्त्रों में फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पंचमी से पूर्णिमा तक दस तिथियों में लकड़ी संचय करने का विधान है इन दस दिनों लकड़ी की चोरी करना शास्त्रकारों को भी मान्य था। यथा-

पंचमी प्रमुखास्तास्तु तिथ योनन्त पुण्यदाः। दश स्युः शोभनास्तासु काष्ठस्तयं विधीयते॥

इतना ही नहीं, आजकल की गाली-गलौज की प्रथा भी शास्त्र सम्मत है। उनका तो यहाँ तक कहना है कि होलिकोत्सव के अवसर पर जो किसी कारणवश गाली-गलौज नहीं बकता वह पाप का भागी होता है और उसे इसके लिए प्रायश्चित करना चाहिए। वास्तव में समाज-शास्त्रियों ने मानव के इस पशु-धर्म को वर्ष में एक बार निरर्गल रूप में छोड़ने की छूट देकर अपनी चतुराई का ही परिचय दिया है।

नारदीय पुराण के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सूर्यास्त होने पर प्रदोष काल में घर के चौड़े आँगन, किसी चौराहे या किसी निश्चित स्थान पर गोबर से लिपी-पुती भूमि पर सूखी लकड़ी, गोबर के कंडे, घास-फूस आदि इकट्ठा करना चाहिए और उसे जलाकर होलिका का विधिवत पूजन करना चाहिए।

फाल्गुने पौर्णमायान्तु होलिका पूजनं स्मृतम्। पंचयं सर्वकाष्ठानाँ पालालानान्च कारयेत्॥

जैसा कि ज्योति निबंध के निम्नाँकित श्लोक से स्पष्ट है, होलिका दहन के लिए किसी चाण्डाल या प्रसूता स्त्री के घर से आग मंगानी चाहिए और वह भी वयस्कों द्वारा नहीं बल्कि बच्चों द्वारा।

चाण्डाल सूतिका गेहाच्छिशु हरित वह्विना। प्राप्तयाँ पूर्णिमायान्तु कुर्यात्तकाष्ठ दीपनम्॥

होली जलाने के पूर्व निम्नलिखित मंत्र पढ़ना चाहिए-

दीपयाम्यद्यते घोर चिन्ति राक्षसी। सत्तमहिताय सर्व जगताँ प्रीतये पार्वतीयये॥

अर्थ यह है कि आज हम चिन्ता तथा दुःख देने वाली राक्षसी को जला रहे हैं। यह कार्य भगवान शिव को प्रसन्न करने तथा सारे संसार के कल्याण के लिए किया जा रहा है।

होली जलाने के पूर्व होलिका को अर्घ्य देने का भी विधान शास्त्रों में है। अर्घ्य का मंत्र इस प्रकार है-

होलिके च नमस्तुभ्यं दृष्टा तेजो बिमर्दिनी। सर्वपिद्रव शास्त्यर्थ गृहाणर्घ्य नमोस्तुते॥

अर्घ्यदान के उपरान्त आग जलाते समय अग्नि की प्रार्थना करनी चाहिए, जिसका मंत्र इस प्रकार है-

यन्मया शीतभीतेव निषिद्धाचरणं कृतम्। तर्त्सव क्षम्यताँ वहि यतः सर्व सहोभव॥

अब सुनिये होली जलाने की विधि क्या है। जलती हुई काष्ठ या घास फूस के ढेर में नारियल, बिजौरा, धान का लावा, नीबू के फल तथा घी मिश्रित दूध आदि डालकर रक्षोघ्न मंत्रों को पढ़कर हवन करना चाहिये-

ततोऽभ्युक्ष्य चितिं सर्वा साज्येन पयसा सुधीः। नारिकेलानि देयानि, बीजपुर फलानि च॥

होली जलाते समय होली के शव की पूजा एवं प्रार्थना का विधान भी शास्त्रों में है। होली से आग की लपट निकलने पर निम्नाँकित मंत्रों में से किसी एक को पढ़ते हुए उसकी तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए-

असृक्या भय संत्रस्ते। कृतात्वं होलिवालिशैः। अतस्त्वं पूजयिष्यामि भूतेभूति प्रदाभव।

होलिकायाँ प्रज्वलितायाँ तमग्नि त्रिपरिक्रम्य। तेन शब्देन सायासा राक्षसी तृप्तिमापुयात्॥

शव पूजन के कुछ मंत्र इस प्रकार हैं-

अतो माँ पाहि मीतिन्यो मतिवापत्यमात्मन। आयुर्देहि यशो देहि शिशूनाँ कुरु रक्षणम। शत्रूणाँ च क्षयं देहि होलिके पूजिता सदा।

इस होलिका के शव-पूजा एवं प्रार्थना के मंत्रों से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि होलिका विशेषतया बालकों के मनोरंजन का त्यौहार है।

इस प्रकार होली जलाने के उपरान्त सारी रात गीत वाद्य और नृत्य में व्यतीत करनी चाहिए-

गीत वाद्योस्तथा नृत्यैः सा नीयते जनैः।

होली जलाने के दूसरे दिन अर्थात् घूरेड़ी के दिन होली का भस्म (राख) लेकर शरीर पर धारण करना चाहिए, जिसका मंत्र इस प्रकार है-

वन्दितासि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शंकरेण च।

अतस्त्वं पाहि नो देवि विभूतिर्भूतिप्रदा भवेत्॥

इन्द्र, ब्रह्मा तथा शंकर द्वारा सम्मानित हे होलिके तू मेरी रक्षा कर और यह राख हमारे सुख समृद्धि की वृद्धि करे।

ऐसा प्रतीत होता है कि राख लगाने की यही प्रथा कालान्तर में कीचड़, मलमूत्र, गंदे पानी आदि के भी डालने की प्रेरणा देने वाली बन गई। शरीर पर राख धारण करने के उपरान्त तेल लगाने का भी विधान शास्त्रों में है। कुछ शास्त्रकारों के मतानुसार तो इस दिन चौसठ योगिनियों की पूजा या यात्रा करनी चाहिए।

होली के दिन नित्य कर्मों से निवृत्त होकर समस्त ऐहिक कामनाओं की सिद्धि के लिए आम का बौर चन्दन के साथ मिलाकर पीना चाहिए-

चूतमप्रयं बसन्तस्य माकन्द कुसुमेन सह। स चन्दनं पिवभ्यद्य सर्वकामार्थ सिद्धये॥

होली सर्वसाधारण का त्यौहार है और इस दिन छोटे-बड़े ऊंच-नीच का भेदभाव मिटाकर सभी परस्पर हिलमिल कर इस समारोह को प्राचीन काल से ही मनाते आए हैं। यह इसी से स्पष्ट है कि हमारे शास्त्रों में इस दिन चाण्डाल के स्पर्श करने का विशेष महत्व वर्णित है। भविष्य पुराण में तो यहाँ तक लिखा है कि जो व्यक्ति इस दिन चाण्डाल का स्पर्श करता है, उसे आगामी वर्ष किसी प्रकार की विपत्ति या आधि-व्याधि नहीं सताती है। यथा-

चैत्रे मासि महबाहो पुण्ये तु प्रतिपद्दिने। यस्तत्र श्वपचं दृद्वा स्नानं कुर्याश्चरोत्तमः।

न तस्य दुरितं किचिद् आधिवो व्याधयो नृप।

कुछ शास्त्रों में चाण्डाल स्पर्श के स्थान पर केवल दर्शन का ही विधान बताया गया है।

होलिकोत्सव में बच्चों के आमोद-प्रमोद पर विशेष रूप से जोर दिया गया है। इस अवसर पर उन्हें निःशंक होकर मनमाने तौर से हंसने बोलने, खेलने कूदने एवं गाने बजाने की पूर्ण छूट दी गई है-

अभयं सर्वलोकानाँ दातव्यं पुरुषये। यथा-हयशंकिता लोका रमन्ति च हसन्ति च। दारुजानि च खड्गानि शिशिवः सप्रहर्षिताः॥

समरोत्सुक योद्धाओं की भाँति बच्चों को लकड़ी की तलवार लेकर अत्यन्त हर्ष एवं उल्लासपूर्वक घर से बाहर निकलकर खेल-कूद मचाना चाहिए, किन्तु होली की रात्रि के समय बच्चों की रक्षा की ओर भी संकेत किया गया है, जैसा कि भविष्योत्तर पुराण के निम्नाँकित श्लोकों से प्रकट है-

अस्याँ निशागमे फर्थ। संरक्ष्या शिशवो गृहे।

होलिका दहन के धुएं के प्रति भी शुभाशुभ की कामनाएं पुराणों एवं फलित ज्योतिष के ग्रंथों में लिखा है कि यदि होलिका की लपटें पूर्व दिशा की ओर जायं तो वह राजा प्रजा के लिए सुख-समृद्धि का सूचक है। अग्निकोण में अग्नि का भय, दक्षिण तथा नैऋत्य में दुर्भिक्ष, युद्ध, संकट की संभावना, उत्तर में समस्त राष्ट्र को अन्न सुख, ईशान में प्रजा में सुख-शाँति, पच्छिम में विपुल वृष्टि, वायव्य में आँधी तूफान का सूचक है।


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