बकवाद मत कीजिए।

March 1954

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(प्रो. लालजीराम शुक्ल एम. ए., बी.टी.)

भगवान बुद्ध ने अपने अष्टाँगी मार्ग में बकवाद न करने के लिए उपदेश दिया है। उन्होंने वाणी के विषय में चार प्रकार का संयम बतलाया है- झूठ नहीं बोलना, चुगली नहीं करना, निंदा नहीं करना, और बकवाद नहीं करना। झूठ बोलने, चुगली करने और निन्दा करने को तो साधारणतः सभी बुरा मानते हैं, बकवाद करना बहुत कम लोग बुरा समझते हैं। बकवाद करना क्यों बुरा है, इसका ज्ञान और निदिध्यासन आवश्यक है।

बकवाद करने की तीन बुराइयाँ प्रत्यक्ष हैं। एक, मानसिक शक्ति खर्च होती है, दूसरे, आत्मनिरीक्षण का अभाव होता है, तीसरे, भलाई न करके बुराई ही अधिक हो जाती है। इन तीनों बातों के अनुभव में घटना आवश्यक है। जब तक हम किसी प्रकार की आदत के बुरे परिणाम को ठीक से मन में नहीं बैठा लेते, वह आदत नहीं छूटती। कोई भी बुरी आदत छुड़ाने के लिए इतना ही आवश्यक नहीं कि हमारी बुद्धि अथवा ज्ञात-मन उसके छोड़ने की आवश्यकता समझ ले। उसे छुड़ाने के लिए उसके अचेतन मन में परिवर्तन करना आवश्यक है।

बुद्धिमात्र से समझी गयी बात समय पड़ने पर काम नहीं आती। जो बात भावपूर्ण मनन के द्वारा मन के अन्दर बैठायी जाती है, वही काम में आती है।

बकवाद करने से मानसिक शक्ति का ह्रास होता है। बकवाद उस प्रकार के बोलने को कहते हैं जिसके विषय में न तो पहले से कुछ भी सोचा गया हो और न बोलना आरंभ हो जाने पर किसी प्रकार समय का प्रतिबंध हो। जिस बात का लक्ष्य, क्रम और समय निश्चित हो वह बकवाद नहीं है। पर जब हम साधारणतः समाज में आते हैं तब न तो हमारे बातचीत करने का कोई लक्ष्य होता है, न उसके विभिन्न पहलुओं का कोई क्रम होता है और न कोई समय की अवधि होती है। ऐसी अवस्था में मानसिक शक्ति का संचय नियम के पालन से होता है।

जो भाप साधारण गर्मी पाकर उड़ जाती है, वही जब निश्चित स्थान पर रखी जाती है और उसे निश्चित नियम के अनुसार प्रकाशित किया जाता है तो वह बड़े-बड़े कल और कारखानों को चलाती है। जो आग- जंगल में व्यर्थ खर्च होती है और किसी का फायदा न कर नुकसान करती है, वही आग जब पूर्व निश्चित स्थान पर निश्चित रूप से नियम के अनुसार जलायी जाती है तो भारी उपयोगी शक्ति बन जाती है। इसी तरह बोलना समाज के लिये भलाई करने वाला है। उससे आत्मविकास होता है और दूसरों के समक्ष प्रकाशित नहीं करता उसकी प्रतिभा स्फूरित नहीं होती। वह समाज की सेवा करने में असमर्थ रहता है। अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए और निश्चय को दृढ़ करने के लिए दूसरों के साथ विचार-विनिमय करना परमावश्यक है। इसके लिए हमें अपने विचार दूसरों के समक्ष रखने पड़ते हैं और दूसरों के विचार सुनने पड़ते हैं। पर जब यही बोलना लक्ष्यहीन, क्रमहीन और बेसमय का हो जाता है तो इससे लाभ न होकर हानि ही होती है। सुनने वाले के मन पर इस प्रकार के बोलने वाले का कोई लाभदायक स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता।

अधिक बोलने वाला व्यक्ति बहुत सी बातें व्यर्थ कह डालता है। इन बातों की व्यर्थता सुनने वाले समझ जाते हैं। इसका ज्ञान बोलने वाले को नहीं रहता। इसके कारण जो कुछ महत्व की बातें भी वह व्यक्ति कहता है वह भी व्यर्थ ही समझी जाती हैं। सुनने वाले हमारी बातों को महत्व तभी देते हैं जब वे सुनने को उत्सुक हों और उनकी इच्छा संतुष्ट करने के लिए हम कुछ कहें, किन्तु जब हम बात करने के लिए उत्सुक रहते हैं और सुनने वाले मानों अपने अनजाने अनायास अथवा अपनी इच्छा के विरुद्ध सुनते रहते हैं तो हमारी बातों का कोई लाभ नहीं होता। प्रत्येक बात की प्रभावात्मक शक्ति हमारे ऊपर मनन करने पर निर्भर है। जिस बात के ऊपर हमने मनन नहीं किया उसका प्रकाशन करना ही व्यर्थ होता है।

इस प्रकार की बातें करने से हमारे प्रति लोगों में सम्मान का भाव न होकर अनादर का भाव हो जाता है। यही कारण है कि अधिक बात करने वाला विरला ही व्यक्ति समाज में सम्मानित रहता है। अधिक बकवाद करने से शारीरिक शक्ति क्षीण होती है। जो जितना ही अधिक बोलता है उसकी आयु उतनी ही अधिक क्षीण होती है। आयु चार बातों से क्षीण होती है। बकवाद करना, जल्दी-जल्दी सब काम करना, अति विषय भोग करना और चिन्ता करना। जिस प्रकार विषय भोग करने से मनुष्य को सुख होता है उसी प्रकार बातचीत करने से सुख होता है। नियमित रूप से होने पर दोनों ही रचनात्मक आनन्द उत्पादित करते हैं। और उनका परिणाम भी भला होता है। पर जब अनियम से इनमें से कोई भी काम किया जाता है तो दोनों का परिणाम विनाशकारी होता है।

बकवाद करना आत्म-निरीक्षण की शक्ति कम कर देता है। बकवाद करने की आदत एक प्रकार की नशाखोरी जैसी आदत के समान है। जैसे नशाखोरी की आदत पड़ जाने पर सरलता से नहीं छूटती। प्रत्येक आदत एक विशेष प्रकार का आनन्द उत्पन्न करती है। इसी आनन्द प्राप्ति की चाह उस आदत को मन से निकलने नहीं देती। पर सभी बुरी आदतें मनुष्य को बहिर्मुखता का परिणाम है। और उससे उसकी बहिर्मुखता और भी दृढ़ हो जाती है। इससे मनुष्य में आत्मनिरीक्षण की शक्ति नष्ट हो जाती है। अतएव बकवाद करने वाला मनुष्य शीघ्र ही संकट में पड़ जाता है, और निन्दा का पात्र बन जाता है। उसके मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। बकवाद का अन्त निराशावादिता और चिन्ता में होता है।

बकवाद करना अपने आप में सुखी न रहने का भाव प्रदर्शित करता है। जो व्यक्ति अपने आपको आध्यात्मिक चिन्तन से सुखी नहीं बना सकता, अर्थात् उसके मन में आध्यात्मिक विचारों का अभाव है उसे बलात् बकवादी बनना पड़ता है। जो व्यक्ति समाज में रहने को जितना अधिक उत्सुक है वह अपने आप में उतना ही अधिक दुखी होता है। अपने दुःख को भुलाने और अपनी आन्तरिक अशाँति का विस्मरण करने के लिए ही मनुष्य बकवाद की शरण लेता है। पर इस प्रकार उसकी शक्ति का और भी ह्रास होता है और उसमें आनन्द प्राप्ति की योग्यता और भी कम हो जाती है।

इस तरह जब एक हद तक मनुष्य अपनी बहिर्मुखता बढ़ा लेता है तो वह प्रायः विक्षिप्त हो जाता है।

बकवाद करने से तीसरी हानि यह है कि उससे हम अपने अनजाने ही वैसे ही पाप कर डालते हैं जो झूठ बोलने, निंदा करने और चुगली करने से होते हैं। बकवाद करने वाले व्यक्ति में अपनी बात का प्रभाव दूसरों पर जमाने की उत्कट इच्छा होती है। यह इच्छा उसमें आत्महीनता की मानसिक ग्रंथि की उपस्थिति का सूचक है। यही ग्रंथि निन्दा और चुगली तथा झूठ बोलने का प्रधान कारण होती है। अंग्रेजी लेखक कावेट महाशय का कहना है कि जब दो चार लोग एक जगह एकत्र होते हैं तो अनुपस्थित व्यक्तियों की बुराई करने में ही वे लग जाते हैं और उसके आचरण की आलोचना होने लगती है। उनके इस कथन से यह प्रत्यक्ष है कि मनुष्य स्वभावतः दूसरों की स्तुति में आनन्द न लेकर उसकी निन्दा में ही आनन्द लेता है। अतएव समाज में अधिक मिलना और बकवाद करना अपने आपको झूठ, निन्दा और चुगली के पाप का भागी बनाना है। किसी भी घण्टे भर चलने वाली बात का यदि विश्लेषण किया जाय तो हम अधिकतर उपर्युक्त आवाज ही पावेंगे। इससे मनुष्य को सदाचार की नहीं, दुराचार की प्रवृत्ति दृढ़ होती है।

बकवाद करने को इसीलिए धर्म शिक्षा में त्याज्य कहा है। बकवाद करते समय न फिर हम दूसरों की निन्दा करते हैं वरन् दूसरों की निन्दा सुनते भी हैं पर निन्दा सुनना भी एक प्रकार का पाप है। जब इसके संस्कार दृढ़ हो जाते हैं तो अनेक प्रकार के अवांछनीय कार्यों में प्रकाशित होने लगते हैं। बकवाद में हम अनजाने दूसरों की कही बात ऐसी जगह कह देते हैं। जहाँ उसे न कहना चाहिये। इससे हमारी भारी क्षति होती है। अतएव व्यवहार कुशलता की दृष्टि से भी बकवाद करना त्याज्य है।


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