श्रेष्ठतम कार्य करें।

March 1954

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

स्वेट मार्डन ने एक अमेरिकन लखपति को सफलता के रहस्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-

‘वह पहले पहल केवल सात डालर प्रति सप्ताह वेतन पाते थे, किन्तु धीरे-धीरे उसका वेतन दस हजार डालर प्रति वर्ष हो गया। वह उसी संस्था के एक हिस्सेदार बन गये। सदा उनकी इच्छा यह दिखाने की रही कि वे श्रेष्ठतम कार्य द्वारा अपने आपको सर्वश्रेष्ठ घोषित करा सकें। जिस उच्चकोटि का वे कार्य करते थे, उसने सबका शीघ्र ही ध्यान आकृष्ट किया। तीन वर्ष के अनन्तर अच्छे माल की उनकी इतनी अच्छी परख हो गई थी कि दूसरी कंपनी ने उन्हें तीन हजार डालर अधिक देकर विदेश भेजने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु अपनी संस्था के प्रति स्वामिभक्ति के कारण वे न जा सके। कुछ व्यक्ति कहेंगे कि उनकी मूर्खता थी, जो इतना अच्छा वेतन छोड़ दिया, किन्तु सर्वश्रेष्ठ कार्य करने की इच्छा और अपनी संस्था के प्रति भक्ति भावना उन्हें रोके रही।

जब आप साधारण कोटि का कार्य करते हैं, तो न केवल अपने मालिक को धोखा देते हैं, स्वयं अपने आपको धोखा देते हैं। आपके मालिक को इतनी हानि नहीं होती, जितनी साधारण या निम्न कोटि का कार्य करने से स्वयं आपको होती है। मालिक का तो तीन चार आने का ही नुकसान होगा, किन्तु अधूरा, बेमन से किया हुआ निम्न कोटि का कार्य आपको एक नीचे स्तर पर ला पटकेगा। आपको आलस्य दबा लेगा और फिर आप वैसा ही साधारण कार्य ही करने के अभ्यस्त हो जायेंगे। ऊंची कोटि का श्रेष्ठ कार्य जिसमें अपेक्षाकृत अधिक ध्यान, श्रम, अध्यवसाय लगते हैं, करने को तबियत न करेगी। आपका आत्मविश्वास धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगा और एक दिन ऐसा आयेगा जब आप वैसा ही साधारण सा कार्य करने के अभ्यस्त हो जायेंगे। जो व्यक्ति अपने श्रेष्ठ कार्य के लिये प्रसिद्ध था, वही साधारण श्रेणी में खिसक आये, तो यह उसका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

जिस कार्य को आप हाथ में लें, उसे इतनी लगन से कीजिये कि आपका ट्रेड मार्क श्रेष्ठता, उच्चता, सौंदर्य का प्रतीक हो। लोग उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति देखते ही कह उठें, कि अमुक व्यक्ति का बनाया या किया हुआ कार्य है। फैक्ट्रियों से निकला हुआ हर एक बर्तन या बना हुआ माल भी आपके लिए इतने महत्व की वस्तु नहीं जितना हाथों या मस्तिष्क से किया हुआ कार्य। वे अपनी पुरानी साख से साधारण कार्य किया करते हैं, मामूली चीजें भी किसी प्रकार बाजार में खपा सकते हैं, लेकिन आप एक सदा चलती हुई फैक्ट्री हैं। नए-नए व्यक्ति आपके संपर्क में आते हैं, अतः पुरानी साख प्रायः कार्य नहीं करती। नए ढंग से प्रत्येक स्थान पर आपको अपनी साख बनानी पड़ती है।

आपका व्यापार किसी भी कोटि या श्रेणी का हो सकता है, लेकिन आप भी चाहें तो अपना कार्य सर्वाधिक सुन्दरता और श्रेष्ठता से सम्पन्न कर सकते हैं। आपका प्रत्येक कार्य एक फैक्ट्री से बन कर निकली हुई वस्तु जैसा है। इसमें आपके चरित्र की महत्ता, कुशलता और कलात्मकता उद्दात्तता प्रकट होती है।

आप जो कुछ करें, चाहे वह घर का कार्य हो या दुकान, आफिस अथवा सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में हो जिसमें आपको तनिक भी आय न हो, फिर भी आप अपने कार्य को अधूरे या बेमन से, भौंड़े रूप में न कीजिए। उस पर लगकर पूर्ण निष्ठा से तन्मय होकर इतना अच्छा बनाइये जितना आप बना सकते हैं। आप में जितनी भी कार्य कुशलता है, उसे लगाकर पूर्ण रूप से अपना कार्य निकालिये। आप देखेंगे कि इस कार्य की मौलिकता और कुशलता की सर्वत्र प्रशंसा होगी। स्वयं आपकी अन्तरात्मा भी इससे सन्तुष्ट रहेगी।

श्रेष्ठता और उच्चता के विकास के लिए किसी की याचना नहीं करनी पड़ती। उत्तमता से सम्पन्न कार्य स्वयं एक बड़ी सिफारिश के समान है। जो व्यक्ति अपने कार्य में कुशलता प्राप्त करता है, वह नेता बनकर पूजा जाता है।

हमारे एक मित्र प्रोफेसर हैं पण्डित हरीराम तिवारी। आपकी विशेषताएं दूर से ध्यान आकृष्ट करती हैं। पण्डित जी शुद्ध खद्दर धारी ब्राह्मण हैं। वर्ष भर में दो कुर्तों, दो धोतियाँ, दो बनियान और ठीक चार जाँगिये; जाड़ों के लिए एक कोट, एक बन्डी-कपड़ों के नाम बस यही उनके पास हैं। स्वयं वस्त्र धोते हैं लेकिन जब कभी उन्हें देखिए वस्त्र दूध के समान सफेद स्वच्छ। चेहरे पर पौरुष और वीर्य से युक्त कांतिमान त्वचा। कार्य में हाल यह है कि एक पुस्तक भी रखेंगे तो क्रम से, श्रेष्ठता से। सफाई की दृष्टि से घर आदर्श बना है। जलाने की लकड़ी तक एक क्रम से सजी हुई, वस्त्र, पुस्तकें घर की वस्तुएं, जीवन के हर क्षेत्र में पंडित जी श्रेष्ठता के पुजारी हैं। श्रेष्ठता के पुजारी के लिए यह आवश्यक नहीं कि उसके पास रुपया पैसा खूब हो, बड़ा भारी मकान हो, बीस जोड़ी वस्त्र हों, या आभूषण हों, नहीं, इनमें से कोई भी जरूरी चीज नहीं है। बस मन में श्रेष्ठतम तन्मयतापूर्वक कार्य करने की उत्कट भावना और आदत होना आवश्यक है। यदि आप चाहें, तो कार्य को ढीले-ढाले रूप में न कर सुधार संवार कर भी कर सकते है। आपका यह विचार गलत है कि श्रेष्ठतम रूप में करने में समय अधिक लगता है। जिस व्यक्ति में सुघड़ता आदत का एक अंग बन जाती है, वह कम समय में भी उतनी ही सुचारुता से कार्य कर लेता है जितना दूसरे व्यक्ति बिगड़े या अधूरे ढंग से करते हैं।

संभव है, आपके अधूरे और बेढंगे कार्य का कारण कार्याधिक्य हो। क्या अपने अपने जिम्मे अनेक छोटे-बड़े कार्य ले लिये हैं? यदि ऐसा है, तो आप विवेक पूर्ण रूप से उनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यों का चुनाव कर शेष को छोड़ दीजिए। जिनको चुनिये, उन्हें श्रेष्ठतम तरीके से कीजिए।

मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जो अपने हस्ताक्षर तक करने में इतने सावधान और सचेत है कि कोई अक्षर अस्पष्ट या असुन्दर नहीं लिखते। व्यक्तिगत पत्रों तक में एक-एक अक्षर, कॉमा, या चिन्हों के संबंध में सचेत रहते हैं। गलत चिन्हों वाला पत्र, गलत शब्द या उलटा लगा हुआ टिकट पत्र की तारीख में गलती या अन्य छोटी से छोटी बात के लिए श्रेष्ठता के पुजारी हैं। फल यह है कि वह हर एक कार्य में आदर्श समझे जाते हैं, सर्वत्र उनका सम्मान है, उनके मुख्य अफसर उन पर पूर्ण विश्वास रखते हैं।

जीवन में यह नियम बना लीजिए कि या तो हम कोई भी कार्य अपने हाथ में लेंगे नहीं, यदि लेंगे तो उसे ऐसी उत्तमता और श्रेष्ठता से सम्पन्न करेंगे कि हमारा ट्रेड मार्क उस पर लग सके। हमारी श्रेष्ठता और उच्चता उस पर देदीप्यमान रहेगी। जो कुछ कार्य आपके हाथ से निकले उस पर आपके चरित्र की छाप अवश्य रहे।

एक युवती एक पत्रालय में कार्य करती थी। वह कहा करती थी कि वह इसलिए श्रेष्ठतम कार्य नहीं करती क्योंकि पत्र वाले उसे “यथेष्ट पारिश्रमिक नहीं दे पाते थे।” यह दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण है। “यथेष्ट पारिश्रमिक प्राप्त नहीं होता इसलिए अच्छा कार्य क्यों करें”- यह एक नितान्त भ्राँतिपूर्ण तथ्य है। इस त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण की वजह से बहुत से व्यक्ति अपनी उच्चतम शक्तियों का विकास ही नहीं कर पाते। मामूली व्यक्ति बने रहते हैं। कम वेतन बुरा काम करने के लिये कोई बड़ा कारण नहीं है। जो वेतन आपको प्राप्त होता है, उसका काम से कोई बड़ा संबंध नहीं होना चाहिये। यहाँ प्रश्न आपके चरित्र का है, वेतन या पारिश्रमिक का नहीं। सच्चा व्यक्ति अपने कार्य को अच्छा ही करेगा, चाहे उसे वेतन अथवा पारिश्रमिक कितना ही क्यों न प्राप्त हो, चाहे बिल्कुल भी न मिले। संसार के इतिहास में जो व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ कार्य कर गये हैं, उन्हें पारिश्रमिक आधा, बहुत कम, कहीं तो बिल्कुल ही नहीं प्राप्त हुआ। तुलसीदास जी का ‘रामचरित मानस’, सूर का ‘सूरसागर’, नानक और कबीर के दोहे, या शेक्सपीयर के विश्व विद्युत नाटकों का मूल्य नहीं के बराबर चुकाया गया था।

अधूरे काम करने से न केवल आपको वेतन कम मिलता है आपका चरित्र, परिवार और वर्ग लाँछित होता है। आपके मनुष्यत्व पर धब्बा लगता है। आपका बदनाम होता हुआ चरित्र रुपये पैसे से कहीं अधिक मूल्यवान और महत्वपूर्ण है। हम जिस भावना से किसी कार्य को हाथ में लेते हैं, वह हमारे चरित्र के रगरेशे में प्रविष्ट हो जाता है। यहाँ हमारी अन्तरात्मा का प्रश्न है और रुपये के कारण हमें अपनी अन्तरात्मा को आघात नहीं पहुँचाना चाहिये।

यदि कोई व्यक्ति अपने चरित्र और शक्तियों का सर्वश्रेष्ठ रूप अपने कार्य में प्रकट करता है- हृदय और आत्मा का पूर्ण सामंजस्य रखता है तो एक न एक दिन उसका मालिक उसे देखता ही है, और प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। अच्छा और मनोयोग पूर्वक किया हुआ कार्य स्वयं अपना मार्ग निर्दिष्ट करता और अपनी सिफारिश करता है। यदि आपने दो रुपये पाकर दस रुपये का काम कर दिखाया, तो निश्चय जानिये यह आपके लिए सबसे बड़ी सिफारिश है। अधूरा कार्य, वेतन से किया हुआ कार्य, फूहड़पन से सम्पन्न काम आपको बदनाम करने वाला है। नहीं, कम पैसे पाकर आप कितना अधिक और कितना श्रेष्ठ कार्य कर सकते हैं, अपना यही नियम रखिये। अपने मालिक को अधिक कार्य, सतत परिश्रम, अपनी बुद्धि आदि से कम वेतन देने के लिये लज्जित कर दीजिये, आपकी सफलता में चरित्र की यह निष्ठा आपको सदैव ऊंचा रखने वाली है। आपके चरित्र का जैसा प्रभाव आपके मालिक पर पड़ता है वह अपना महत्व रखता है। मालिक नहीं तो, अन्य कोई संपर्क में आने वाला व्यक्ति अवश्य उससे प्रभावित होगा और आप ऊंचे उठेंगे।

हमारे देखने में यही आया है कि हृदय से कार्य करने वाला व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से भी सदा-सर्वदा ऊंचा उठा है साथ ही उसे प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई है। स्वयं उसका आत्म विश्वास निरन्तर बढ़ा है। युवकों को यही दृढ़-संकल्प लेकर जीवन में प्रविष्ट होना चाहिए कि संसार की सफलता का एक ही मार्ग है और वह अपने हाथ के काम को श्रेष्ठतम रूप में करना।


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