सिद्धि का मूल- साधन है!

March 1954

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(श्री अगर चन्द्र जी नाहटा)

प्राणीमात्र को कुछ न कुछ इच्छा लगी रहती है और अपनी-अपनी कामना पूर्ति हो जाय, यह सभी प्राणी चाहते हैं। सारी प्रवृत्तियाँ किसी न किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होती हैं। अच्छी हो या बुरी। जिस अभीष्ट के लिये हम निरन्तर प्रयत्नशील हैं वह प्राप्त हो जाय, यह इच्छा किसे नहीं होती? हाँ, सबकी चाह अलग-अलग अवश्य है। कोई कुछ चाहता है और कोई कुछ और ही, पर चाह कुछ न कुछ पाने की सबको अवश्य है। इसीलिए प्रवृत्तियाँ भी अलग-अलग प्रकार की होती हैं। जिसे जिस स्थान जाना है वह उसी के पहुँचने वाले मार्ग को अपनायेगा न। चाह मात्र से ही कार्य सिद्धि नहीं होती। अतः उसकी प्राप्ति के लिए अनुकूल प्रवृत्तियाँ अपनानी पड़ती हैं। साध्य को निश्चित कर साधनों को अपनाने से सिद्धि मिलती है। अतः सिद्धि का मूल साधना में है।

इच्छित कार्य का पूर्ण होना ही उसकी सिद्धि है। इच्छाएं अनेक तो कार्य भी अनेक होंगे ही और कार्य विविध, तो उनके फल भी भिन्न-भिन्न होंगे। अतः सिद्धि भी विविध प्रकार की समझिये। व्यक्ति जो परिणाम चाहता है, उसकी प्राप्ति ही उसकी सिद्धि है। साधना का फल ही सिद्धि है। सिद्धि मिली तो साधना की पूर्णता हुई।

सिद्धि के लिए साधना की आवश्यकता है उसके बिना सिद्धि नहीं मिल सकती। साधना द्वारा सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं, एवं जाग्रत शक्तियाँ सबल बनती है, जिससे सिद्धि सहज हो जाती है। वास्तव में आत्मा की अनेक शक्तियाँ सुषुप्त अवस्था में पड़ी हुई हैं, जो आवरित हैं उनका भान ही पहले नहीं होता। इसलिए मनुष्य कह बैठता है कि मैं इसे नहीं कर सकता, या मेरे लिए यह असंभव है, क्योंकि अंतर्गत गुप्त शक्तियों के संबंध में उनकी कल्पना ही नहीं होती, जब दूसरे व्यक्तियों को उस काम को करते देखता है, तो विचार होता है कि यदि वह परमार्थ कर सकता है तो मैं क्यों नहीं कर सकूँगा? इसलिए कहा गया है कि साधनाओं में बल प्राप्त करने के लिए किसी पूर्ण साधक का आदर्श सामने रखना चाहिये। संभव हो तो उसके सान्निध्य में साधना प्रारंभ करना चाहिये। प्रभु को देखकर अपनी अन्तर्निहित प्रभुता का भान होता है, और महापुरुषों की साधना पर विचार करने से ही साधना की प्रेरणा मिलती है, मार्गदर्शन व बल मिलता है, दृष्टान्त के लिए कहा गया है-

अज कुल गत केहरी लहे रे।

निज पद सिंह निहाल।

तिमि प्रभु भक्ति भवि लहे रे।

आत्म शक्ति संभाल... अजित जिन गरजे रे।

(श्रीमद् देवचन्द्र रचित)

अर्थात्- एक सिंह का बच्चा बकरियों के टोले में जन्मते ही रहने लगा। इसलिए वह अपने आपको उसके जैसा बकरा मान बैठा, अपने सिंहत्व के बल पौरुष को भूल गया, पर बड़े होने पर अचानक एक दिन अपने ही जैसे सिंह को देखा और जब अन्य बकरियों का झुण्ड भाग खड़ा हुआ तो उसने सोचा इनके भागने का कारण क्या? विचार करने पर उसने अपने स्वरूप को जाना, उसे अपने बल पौरुष का भाव हो आया, वैसे ही प्रभुवत् अपना आत्मा है पर यह जीव अनादि संस्कारों से स्वरूप भुला बैठा है, प्रभु दर्शन कर उसे अपनी प्रभुता स्मरण हो आती है और वह साधन पथ में प्रवृत्त हो जाता है।

शक्ति साधना में ही है या साधना द्वारा ही शक्ति प्रकट व प्राप्त की जा सकती है। फिर इसका उपयोग सही दिशा में किया जाय या उल्टी दिशा में, यह तो साधक पर निर्भर है। मंत्र को लीजिए, अक्सर वही है जो हम रात दिन व्यवहार करते हैं, केवल उनका अमुक शक्ति का संयोजन, उच्चारण कर दिया जाता है, पर इतने ही से उनका फल नहीं मिलता है। उसमें जो फलदात्री शक्ति का विकास या प्रादुर्भाव होता है, उसका कारण तो उस मंत्र की साधना करने में है। अमुक परिमाण में, अमुक तरीके से उसका जप किया जाय, तो शब्दों में साधना के द्वारा एक विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। वही उस मंत्र की सिद्धि है, वही फलती है। वास्तव में साधना से आत्म विश्वास ही फलता है। शब्द तो निमित्त मात्र हैं, शब्द मंत्र तो वही का वही है पर साधना की कमीवेशी के कारण सबको सिद्धि एक जैसी नहीं मिलती। किसी का झण्डा ऐसा रामबाण होता है कि तुरन्त फल देता है। तब वही मन्त्र दूसरा व्यक्ति बोलता है पर उससे वैसा चमत्कार उत्पन्न नहीं देखा जाता। साधना के तारतम्य से ही सिद्धि का तारतम्य होता है, साधना का तारतम्य योग्यता व प्रयत्न के अन्तर के कारण रहता है, व हर प्रकार की सिद्धि में साधना की आवश्यकता ही है।

अब हमें देखना यह है कि साधना कहते किसे हैं? साधक साध्य की प्राप्ति के लिए जो अनुकूल प्रयत्न करता है वही प्रयत्न साधना है। किसी कार्य को अनेक बार करना अभ्यास कहलाता है, और साध्य को ठीक कर उस दिशा में अभ्यास बढ़ाते जाना ही साधना है।

कार्य की गुरुतर व सामान्यता के कारण साधना भी चिरकालीन व अल्पकालीन होती है, दीर्घकालीन साधना में अडिग धैर्य की बड़ी आवश्यकता होती है। जब चाहा, फल नहीं मिल जाता। फल देने की शक्ति विकसित हो जाय व अपने गुण ग्रहण की योग्यता हो तभी फल मिल सकता है। किसी-किसी साधना को वर्षों तक निरन्तर करना पड़ता है, उसका फल तुरन्त चाहें तो कैसे मिल सकता है? कहा गया है-

धीरे-धीरे ठाकराँ, धीरे सब कुछ होय। माली सीचे सौ घड़ा, ऋतु आया फल होय॥

जब तक साधना अधूरी है उसकी फलरूप सिद्धि की अधूरी रहेगी, साधना जितनी ही निर्बल होगी, फल सिद्धि उतनी ही कच्ची होगी। अतः उतावले करने से काम नहीं चलता है। जिसको जितने समय तक जिस ढंग से करना आवश्यक है, उसे उसी प्रकार, उतने समय तक करते रहने से फल मिलेगा, स्त्री गर्भ में वीर्य पड़ते ही बच्चा नहीं हो जाता, उसे परिपक्व बनने के लिए 9 महीने लग जाते हैं, इससे पहले यदि प्रसव होता है, तो कच्चाई रह जाती है, 2-4 महीने में प्रसव हुआ बच्चा आकार नहीं पा सकेगा। माँस पिंड उसी रूप में ही निकल जायेगा। उतावली करने से नुकसान है, उसी प्रकार जितना प्रयत्न, समय व श्रम उपेक्षित है उतना होने से ही फल मिलेगा। धैर्य से साधना करते जाना अनुकूल साधन जुटाते जाना व उसका बल बढ़ाते जाना आवश्यक है।

दूसरी बात साधना में विघ्न बाधाएं भी आती हैं, उनसे विचलित नहीं होना चाहिए। विघ्न बाधाएं परीक्षा रूप हैं। उनमें डटे रहने से बल मिलता है, सिद्धि सहज व शीघ्र हो जाती है। विघ्न बाधाओं से विचलित हुआ तो, किये कराये पर पानी फिर जाता है, व्यर्थ चला जाता है। भविष्य में उस निराशा व असफलता के कारण मन निरुत्साह हो जाता है। अतः कोई कार्य प्रारंभ करने की इच्छा ही नहीं होगी।

अधैर्य से ‘काँत्यो पिन्ज्यो भुयो कपास’ या बिना व्यवस्था गुड़गोबर हो जाता है। अतः साधना करते हुए जो विघ्न-बाधाएं आयें उनको शाँति के साथ सहन करते हुए, पार कर जाना पड़ता है।

साधना प्रारंभ करने के लिए उत्कट इच्छा, दृढ़ निश्चय, परिपूर्ण आत्मविश्वास व पूरी लगनपूर्वक निरन्तर प्रयत्न का होना परम आवश्यक है, उत्कट इच्छा के बिना साधना में रस नहीं मिलेगा। रस न मिलने पर अधिक दिन चलाये रखना कठिन हो जाता है। सिद्धि के लिए जितनी भूख, इच्छा, बेचैनी होगी, साधना में उतना ही बल एवं रस मिलेगा। इस प्रकार दृढ़-निश्चय के बिना उत्साह मन्दता आती रहेगी। विघ्न बाधाएं आते ही मन उचट जायेगा, आगे बढ़ने का उत्साह जाता रहेगा।

फिर तो साधना के द्वारा सिद्धि मिलना सुनिश्चित प्रतीत नहीं होगा। अतः साधना पूर्ण नहीं होगी। मन में यदि दुविधा रही तो फल पाते न देख उसे व्यर्थ समझते ही शिथिलता आ जायेगी, अतः मन में अखण्ड आत्म विश्वास होना चाहिये कि फल में देरी कारणवश हो सकती है, पर साधना कभी निष्फल नहीं जाती। देर सबेर फल अवश्य मिलेगा ही। अतः बीच में छोड़ देने की आवश्यकता नहीं। कार्य करते रहना है। जब साधना सिद्धि के योग्य हो जायेगी, फल स्वयं मिल जायेगा। साधना से सिद्धि का घनिष्ठतम संबंध है। यावत साधना की पूर्णता ही सिद्धि है। वस्तुतः एक ही वस्तु के दो छोर हैं। एक छोर से आरंभ होता है। जितना-जितना आगे बढ़ा जाता है दूसरा छोर नजदीक आने लगता है। और उस छोर पर पहुँच जाना ही तो सिद्धि है। बीच में ही प्रतिकूल संयोगों से अटक गये, प्रवृत्ति में शिथिलता आ गई, छोड़ दी, तो बीच में ही लटके रहेंगे, यावत ‘इतो भ्रष्टः ततः भ्रष्ट’ से हो जायेंगे।

सिद्धि साधनों पर ही आश्रित नहीं, साधना पर आश्रित है। एक व्यक्ति को साधन अधिक मिलने पर ही यदि वह साधना ठीक से नहीं करेगा तो सिद्धि नहीं मिलेगी या कम मिलेगी। तब दूसरे व्यक्ति को साधन कम ही मिले हों पर साधना ठीक करता है, तो सिद्धि सहज में ही परिपूर्ण मिलेगी। एक धनी के लड़के को पुस्तकें व शिक्षा आदि के साधनों की कमी नहीं होती पर वह उतनी लगन व निष्ठा से काम नहीं करता। अतः उतनी सफलता नहीं मिलती। जबकि गरीब विद्यार्थियों को पुस्तकें इधर-उधर से माँग जाँच कर देखनी पड़ती है, पूछताछ भी दौड़ धूप करके करनी होती है। पर उसे साधना अधिक करने से सफलता अधिक मिलती है।

‘यादृशीर्साधनायस्य-सिर्द्धिर्भवति तादृशी...’

साधना करते समय तो दत्तचित्त हो उसको आगे बढ़ाने का ही प्रयत्न करते रहना चाहिये। फल की उस समय चिन्ता न हो। फल तो अवश्य मिलेगा ही, यह आत्मविश्वास भर चाहिये। हर समय फल प्राप्ति सम्मुख रहा, वही मुख्य रहा तो साधना ठीक से नहीं होगी। मन की शक्ति बिखर जायेगी। यह ठीक है कि लक्ष्यविहीन साधना निष्फल है। लक्ष्य एवं साध्य निश्चित हो। पर हर समय ही यदि फल का ही ध्यान रहा तो फल पाने में देरी होने लगेगी। प्रयत्न शौथल्य से दूसरी बात यह है कि जो फल माँगता है उसे तो उतना ही मिलता है, पर जो माँगता नहीं जो अपना कार्य ठीक से किये जाता है, उसे अपेक्षाकृत फल अधिक ही मिलेगा। फल माँगना तो सौदा हो गया। उसका मोल तो माँग ले जितना ही है, तब फलाकाँक्षा रहित साधना का फल अपरिमित है। इसीलिए गीता में कहा गया है कि कार्य करते जाओ, फलाकाँक्षा न रखो। प्रकृति के घर में अन्धेर नहीं, जो बिना माँगे मिलेगा नहीं, उसे उलटा अधिक मिलेगा, निस्वार्थ साधना के कारण।

साधना को आगे बढ़ाने के लिये यह परमावश्यक है कि साधना में अहंकार न आने का लक्ष्य रखा जाय। मैं ऐसी व इतनी अच्छी साधना करता हूँ, दूसरा वैसी कर नहीं सकता, वह मेरे सामने तुलना में करता ही क्या है? जब भी ऐसा अहंकार हृदय में उदित हुआ कि आगे बढ़ना रुक जायेगा, पतन का वहीं से प्रारंभ हुआ समझिये। जब तक वह यह मानता है कि अभी चलना बहुत दूर है, अभी तक पहुँचे ही कितनी दूर हैं, अमुक महापुरुष ने कैसी जबर्दस्त साधना की, उसके सामने मेरी साधना का ठिकाना ही क्या? तो वह अपनी कमी देखकर और अधिक बल के साथ आगे बढ़ने का प्रयत्न करेगा, पर जहाँ अहंभाव बढ़ा कि बेपरवाही आई। अहं में क्रोध आदि बढ़ते हैं। गाड़ी पटरी से उतर जाती है, पीछे उसके पतन का क्या ठिकाना। जहाँ तक उसको सम्भालने वाला साधन नहीं मिलेगा, पतनोन्मुख पत्थर लुढ़कता ही रहेगा। चढ़ने में देर लगती है, प्रयत्न करना पड़ता है, गिर पड़ना तो सहज ही होता है, तुरन्त होता है, एक पत्थर को ऊपर चढ़ाने में कितना समय व शक्ति लगती है, गिरने में सैकिंड भी नहीं लगते।

साधना का उद्देश्य साकार से निराकार की ओर बढ़ना है, व उसकी पूर्णता तक पहुँच जाना है। साधन, भजन साकार होता है पर उसके द्वारा निराकार में पहुँच जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भावना से निराकार भी साकार हो जाता है, प्रारंभ में जो सिद्धि हमें हृदयगम्य व अगोचर होती है, वही साधना के द्वारा अनुभवगम्य व दृष्टिगोचर हो जाती है। कल्पना का सत्य साकार उपस्थित होता है। कल्पना के पंख लग जाते हैं। साधना द्वारा जो चाहे हो सकता है। जो पहले विचार रूप में था, वह प्राप्त होने पर सम्मुख व प्रत्यक्ष हो जाने से साकार हुआ ही समझिये। साधना से असाध्य सुसाध्य एवं असंभव सम्भव हो जाता है।

प्रत्येक कर्म की कुशलता साधना पर अवलम्बित है। संगीत को ही लीजिये, कई वर्षों की साधना से स्वर एवं वादन की कुशलता प्राप्त होती है। तो आध्यात्मिक साधना तो बहुत बड़ी चीज है। उसके लिए और भी अधिक तल्लीनता एवं प्रयत्न की आवश्यकता होगी ही, अतः सिद्धि चाहिये, तो साधना करते रहिये।

किसी भी कार्य की सफलता उसमें मन, वचन, तृष्णा की सम्पूर्ण शक्तियों के नियोजित करने पर ही निर्भर है। मन किधर ही है पर वचन और काया की प्रवृत्ति मन्त्रवत् हो रही है। जब मन में ही करने की इच्छा नहीं, पर दबाव से लोक दिखावे के लिए प्रवृत्ति चाहते हैं तो उसका इच्छित फल कभी नहीं मिल सकेगा। अतः साधना करने में पूरी लगन से जुटना आवश्यक है।

बाधक कारणों के हटाये बिना भी साधना कार्यकारी नहीं होती। इसलिए जो सहायक हों उन्हें अपनावें व जो बंधन हों उनसे दूर रहने का ध्यान करें। जिस कार्य के लिये जिन साधनों की आवश्यकता है पहले उनको सरल करने का प्रयत्न करिये। सीरा बनाना है तो आटा, चीनी, घी, अग्नि, पानी, कढ़ाई, कड़छी, सब साधन चाहिये। उनके बिना सीरा बनेगा कैसे? जहाँ तीव्र साधना की इच्छा है, वह ध्यानपूर्वक साधन जुटा ही लेगा, स्वयं भी मिल जायेंगे उसका काम रुकेगा नहीं।

सफलता न मिलने पर हम प्रायः साधनों को दोष देते रहते हैं पर अपनी कमी पर विचार नहीं करते। यह हमारी महान भूल है। साधक को प्रतिमास आत्म निरीक्षण करते रहना आवश्यक है। जब भी जहाँ जितनी भी अपनी त्रुटि मालूम हो तुरन्त उसे सुधारने व दूर करने का प्रयत्न करिये।


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