कुम्भ पर्व की दुर्घटना

March 1954

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कुम्भ पर्व पर जो दुर्घटना घटी अगणित मनुष्य जिस दयनीय दुर्दशा के शिकार हुए उसकी कल्पना मात्र से दिल दहल जाता है। व्यवस्था करने वाले राजकीय कार्यकर्ताओं की अयोग्यता, एवं दूरदर्शिता इसमें प्रधान कारण रही। यों आरंभ से ही बड़े-बड़े प्लान बनाये गये, नई-नई स्कीमें उपस्थित की गई, बहुत धन व्यय किया गया और बहुत ढोल पीटे गये पर अयोग्य और अहंमन्य लोगों के कार्यों में जिस प्रकार केवल सदा परेशानी ही उत्पन्न होती है उसी प्रकार इस बार भी हुआ। जिनका इस वर्ष से संबंध है वे सभी असन्तुष्ट एवं परेशान रहे और अन्त में एक ऐसी दुर्घटना घटित हो गई जैसी किसी धार्मिक मेले में अब तक के इतिहास में कभी नहीं हुई थी।

शासन व्यवस्था में, शासकों की मनोवृत्ति में परिवर्तन अपेक्षित है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि मेलों में बहुत बड़ी संख्या में जाने की जन मनोवृत्ति को भी बदला जाय। पर्व जब आते हैं तब ग्रह, नक्षत्र, योग, ऋतु एवं आध्यात्मिक तत्वों की चलती-फिरती सामयिक परिस्थिति के कारण ऐसे वैज्ञानिक सुयोग बनते हैं कि उन समयों पर आध्यात्मिक परमार्थिक कार्य करने से अधिक सत्परिणाम होता है, साथ ही साँसारिक कार्य किये जायं तो वे असफल रहते हैं। जैसे ग्रहण काल में जप, तप दान, पुण्य का फल अधिक उत्तम होता है पर उसी समय यदि गर्भाधान, भोजन, शयन आदि कार्य में किये जायं तो वे हानिकारक होते हैं। यह बात अन्य पर्वों के संबंध में भी है। पर्व के समय एक विशेष महत्व का वातावरण रहता है। उसमें अपने-अपने ढंग से सभी को सत्कार्य, धार्मिक आयोजन करने चाहिये।

प्राचीन काल में जनसंख्या अधिक न थी। यातायात के साधन बड़े कष्टसाध्य थे तीर्थयात्रा के लिये बहुत कम लोग साहस करते थे। जिनमें ऐसा साहस हो उन्हें थोड़ी-थोड़ी संख्या में अलग-अलग जाने की अपेक्षा एक ही स्थान पर एकत्रित होकर सत्संग, प्रवचन, परस्पर सम्मेलन आदि की सुविधा का ध्यान रख कर किसी विशेष पर्व पर किसी विशेष स्थान के महात्म्य की स्थापना की गई थी। उस महात्म्य को विचार करके देश भर के धार्मिक व्यक्ति एक स्थान पर सम्मिलित होते थे और सचमुच उससे सभी को बड़ी शाँति एवं प्रसन्नता प्राप्त होती थी। प्राचीन काल के ऐसे ही मेले थे।

आज स्थिति बिलकुल बदल गई है। जन- संख्या बढ़ी है, यातायात के साधन सरल हुए हैं, अन्धविश्वास बढ़ा है। पर्वों में भौतिक आकर्षणों एवं व्यापारिक हलचलों ने प्रधानता ले ली है। फलस्वरूप ऐसे लोग इन मेलों में धर दौड़ते हैं जो ज्ञान, धर्म, साधन, अध्यात्म को तो समझते नहीं- मेला देखने या डुबकी मारकर भवसागर से तर जाने की इच्छा धारण किये होते हैं। समय की समाज की अगणित बुराइयों ने इन पर्वों के समय होने वाले मेलों को भी ग्रस लिया है, इनमें जाकर साधारण जनता केवल परेशानियाँ ही प्राप्त करती है। भारी धन व्यय, यात्रा की परेशानी, समय एवं श्रम का लगना, भारी भीड़-भाड़ के दूषित वातावरण से बीमारियाँ फैलने की शंका आदि अनेक कठिनाइयों की तुलना में डुबकी मारने का पुण्य कम ही ठहरता है, इस प्रकार साधारण यात्री तो घाटे में रहता है, केवल चोर, लुटेरे, ढोंगी, जेबकट, व्यापारी, पण्डे, रेल, मोटर ताँगा आदि सवारियों वाले, होटल, धर्मशाला वाले आदि लोग ही नफे में रहते हैं।

यों तीर्थयात्रा, देशाटन, पर्व स्नान आदि सभी आवश्यक हैं, पर इनकी तैयारी करते समय एक बात अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वहाँ इतनी भीड़ तो न होगी जो अभीष्ट लाभ प्राप्त करने के स्थान पर मानसिक शाँति को नष्ट करने वाली हो। जहाँ ऐसी संभावना हो और स्नान दर्शन के अतिरिक्त अन्य कोई सत्संग आदि का सुयोग न हो, वहाँ जाने की अपेक्षा ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए कि अपने स्थान पर या कम भीड़ के स्थान पर उन साधन, तप, सत्संग, यज्ञ आदि का आयोजन किया जाय तो ऐसे पर्वों पर अभीष्ट हैं।

इस दिशा में गायत्री परिवार की ओर से एक महत्वपूर्ण आरंभ एवं पथ-प्रदर्शन किया गया है। यह कुम्भ का महापर्व कुछ ऐसी विशेषताओं के साथ आया था। जैसे योग पिछले सौ वर्षों में नहीं आये। इस शुभ अवसर पर सवालक्ष व्यक्तियों को गायत्री विद्या का ज्ञान दान करने का संकल्प किया गया। इसलिए हर सदस्य को प्रेरणा की गई कि वह अपने-अपने स्थान में गायत्री ज्ञान प्रचार के लिए समय लगावें। अत्यन्त सुन्दर और सस्ते ट्रैक्टों को वितरण करने या बेचने में कुछ पैसे व्यय करें। इस दशा में लोगों ने यथासंभव कुछ किया था। जितना कुछ समय, काम एवं धन इस काम में किसी का लगा वह निश्चित रूप से उसके लिए तथा जनसाधारण के लिए धर्म वृद्धि करने में सहायक हुआ। यात्रा में हर यात्री को काफी समय और पैसा खर्च करना पड़ता है। उतना यदि इस प्रकार रचनात्मक कार्यों में लगाया जाय तो अदृश्य ही उस स्नान से अधिक पुण्य फल प्राप्त हो सकता है।

गायत्री संस्था ने प्रयाग जाने की किसी को प्रेरणा नहीं की, न कोई ऐसा आयोजन का आमन्त्रण किया कि लोग प्रयाग पहुँचे। कारण कि इस पर्व काल की महत्वपूर्ण घड़ियों को परेशानी में व्यतीत करने की अपेक्षा उनका कोई ठोस रचनात्मक उपयोग होना ही सब दृष्टियों से उचित था।

अमर्यादित भीड़ का एकत्रित होना सब दृष्टियों से अवाँछनीय है, उससे वहाँ का वातावरण विक्षुब्ध हो हो जाता है। समुचित आध्यात्मिक लाभ उठाने की स्थिति नहीं रहती। साथ ही दुर्घटनाएं घटित होने की तथा अनैतिक प्रवृत्तियों के बढ़ने की संभावना अधिक रहती है। इसलिए जो लोग ऐसे अवसरों पर जिस दृष्टि से जाना चाहते हैं उसी दृष्टि से विचार करके देखें कि क्या वह उद्देश्य सफल होगा? यदि वह उद्देश्य ठीक प्रकार पूरा होने की संभावना न हो तो यह उचित है कि मेले के समय तथा धन को किसी दूसरे प्रकार से उपयोगी एवं परमार्थिक कार्यों में लगाया जाय। कुँभ पर्व पर ‘अभिज्ञान’ आयोजन एक उत्तम आदर्श रहा। नवरात्रियों में भी अनेक लोग देवी के दर्शनों को जहाँ-तहाँ जाते हैं जहाँ यात्रियों की अनावश्यक भीड़ जमने की संभावना हो, वहाँ जाने की अपेक्षा घर पर या किसी उत्तम वातावरण में रह कर अनुष्ठान आदि की साधना करना ही अधिक उत्तम है। आशा है कि पर्व मनाते समय विज्ञ पुरुष ऐसे ही शुभ आयोजनों की महत्ता पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।

कुम्भ पर्व की हृदय विदारक दुर्घटना जहाँ हमारे मन में अनेक विचार और भाव उत्पन्न करती है वहाँ एक महत्वपूर्ण विचार यह भी है कि अमुक पर्व पर अमुक स्थान पर जाना ही पुण्य है। यह सोचने की अपेक्षा व उस शुभ अवसर पर अपने समय और श्रम को विवेकपूर्ण सत्कर्मों में लगाने की बात सोची जाय। इसका परिणाम व्यक्ति तथा समाज के लिये उत्तम होना अधिक संभव है।


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