जीवन का यह सूनापन

March 1954

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(प्रो. मोहन लाल वर्मा एम.ए.एल.एल.बी.)

“मुझे जीवन में बड़ा अकेलापन सा प्रतीत होता है। सूनापन काटे नहीं कटता। मैं प्रायः अकेला-अकेला रहता हूँ, कोई मुझ से बोलता नहीं, बातें नहीं करता, मुझसे मित्रता नहीं करता। क्या मनुष्यों की भीड़-भाड़ से भरे हुए जगत में मैं सूना-सूना ही, एकाकी रहूँगा। मेरा मन जीवन से उचट गया है। क्या मुझ में कोई गुण नहीं है? क्या कोई मेरी विशेषता नहीं, जिससे मैं दूसरों को आकृष्ट कर सकूँ? जीवन मुझे एक ऐसा कारावास प्रतीत होता है, जिसमें किसी कैदी को एकाँत में बंद कर दिया जाय। उफ् जीवन का यह सूनापन मैं क्या करूं?”

मेरे एक पाठक की समस्या इस पत्र में प्रकट हुई है। अंग्रेजी में एक कहावत है किसी को एकान्त कारावास कर देना। नैपोलियन के युग में कैदियों को कोवेन्ट्री नामक स्थान पर भेज कर एकाँत कारावास कर दिया जाता था। तब से कोवेन्ट्री भेजने का अर्थ है, सब संगी साथियों, समाज परिवार से पृथक कर देना। अनेक व्यक्ति इसी प्रकार अपने आपको पृथक कर एकान्त के दुखद कारावास में पड़े रहते हैं।

आज के भौतिकवादी युग में पड़ौसी एक दूसरे को नहीं जानते, परिचय प्राप्त नहीं करते, अलग-अलग से पड़े रहते हैं। प्रत्येक अपने काम से काम रखता है, उनका जीवन स्वकेन्द्रित है। उन्हें दूसरों में कोई दिलचस्पी नहीं।

अकेलापन या सूनापन उत्पन्न करने में स्वयं हमारा ही दोष है। हम स्वयं ही जीवन की शुष्कता के उत्तरदायी हैं। हम ही इसे दूर कर सकते हैं।

मनुष्य स्वभावतः मित्रता चाहते हैं। समाज की भावना उनमें बड़ी उत्कट होती है। वे चाहते हैं कि परस्पर एक दूसरे से मिलकर एक दूसरे के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद में हिस्सा बटाएं, मित्रता उत्पन्न करें। वे सहयोग चाहते हैं, दूसरों से सहयोग की आकाँक्षा करते है। लेकिन साथ ही कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो दैनिक कार्य के दास हैं। कोल्हू के बैल की भाँति सुबह से सायंकाल तक वही कार्य करते रहते हैं। साँसारिकता की उधेड़ बुन में संलग्न रहते हैं, एक छोटे से मित्रता के दायरे से सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि कोई उनकी मित्रता के दायरे में आना चाहता है तो वे उसे पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान नहीं करते। यह नितांत अनुचित है। ऐसा नहीं होना चाहिए। आप सोचकर देखिये, समाज में रह कर यदि आप अपने पास आने वाले व्यक्ति का ऐसे तिरस्कार करते जायेंगे, तो क्या होगा? सूनापन अवश्य आयेगा।

एक कवि ने लिखा है-

एकाकीपन का अन्धकार, दुःसह है इसका मूक सार, इसके विषाद का रे न पार।

हम पूछते हैं, ‘आखिर इस एकाकीपन का कौन जिम्मेदार है। इसे कौन उत्पन्न करता है?’ आपके जीवन में जो कुछ अच्छा बुरा है स्वयं आपके द्वारा उत्पन्न किया हुआ है? एकाकीपन खुद आप पैदा करते हैं, तो उसे निकाल भी सकते हैं? इसका दुःसह भार आप स्वयं ही हलका कर सकते हैं। यदि जीवन के चतुर्दिक् आपको अगणित चीत्कारें प्रतीत होती है, क्षण-क्षण हृदय निसंग व्यर्थ, विफल प्रतीत होता है, प्राण विकल है, तो इस दयनीय मनः स्थिति से मुक्त होने को तत्पर हो जाइये।

जो व्यक्ति किसी प्रकार भी आपसे दिलचस्पी रखता है, अथवा जिसमें आपको रुचि है, उससे संपर्क स्थापित कीजिए, रिश्ता बनाये रखिये और छोटे-छोटे प्रयत्नों से निरन्तर उसे जोड़ते चलिये। आप में आत्म विश्वास की कमी है। इसी कारण आप दूसरों से बच-बच कर रहते हैं। उनमें घुल-मिल नहीं पाते।

आप क्यों आत्म विश्वास की न्यूनता का अनुभव कर रहे हैं? यह आपकी गलतफहमी के अतिरिक्त कुछ नहीं है। सच मानिये, यह समझ कर कि आप में मौलिकता नहीं है, आप अपने साथ बड़ा भारी अत्याचार कर रहे हैं। आप अपने अन्दर विश्वास रख कर दूसरों से मिलें, बरतें, उनके जीवन में प्रविष्ट हो। स्वयं अपने विश्वासों और विचारों में पूरी-पूरी आस्था रखें। जो कुछ सोचें आत्म विश्वास के साथ सोचें। ऐसी आदत पड़ने पर आप दूसरों के समक्ष जाते हुए दृढ़ता का अनुभव करेंगे और एकाकीपन से मुक्त होंगे।

मन्दिरों, साहित्यिक संस्थाओं, समाज में रहने वाली अनेक संस्थाओं का एक व्यावहारिक पक्ष होता है। प्रत्येक नगर में आपको ऐसी साहित्यिक संस्थाएं मिल जायेंगी, जिनमें आप नए-नए मित्र पाकर एकाकीपन दूर कर सकते हैं।

सायंकाल स्कूल कालेजों या प्राइवेट संस्थाओं में शिक्षा का प्रबंध रहता है। इनमें थोड़ा बचा हुआ समय व्यतीत करने से आप अकेलेपन को एक उन्नत कार्य में व्यय कर प्रसन्नता प्राप्त कर सकते हैं।

स्मरण रखिये, व्यस्त रहना मानसिक स्वास्थ्य के लिए बड़ा उत्तम है। आप यदि व्यस्त रहें, कोई उन्नत कार्य करते रहें, तो आप जीवन का सूनापन कदापि अनुभव न करेंगे।

खेल और मनोरंजन के अनेक कार्य मित्रता उत्पन्न करने के नए स्थल हैं। टेनिस एक अच्छा खेल है। साइकिल द्वारा यात्राएं बड़ी मजेदार होती हैं। आप इनके द्वारा प्रकृति का साहचर्य भी प्राप्त कर सकते हैं। मीटिंगों, होटलों, प्रतियोगिताओं, थियेटरों, सिनेमा, रेल, साहित्यिक गोष्ठियों में आप नई प्रेरणाएं प्राप्त कर सकते हैं।

नए व्यक्तियों से मत शरमाइये, उनसे बातें करते हुए हकलाने मत लगिये, वरन् निधड़क होकर अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त कीजिए। एकाकीपन और दूसरों से अलग-अलग रहने की कमजोरी स्वयं आपकी एक मानसिक कमजोरी है। दूसरों के सामाजिक जीवन पर लुब्ध दृष्टि से देखने के स्थान पर, स्वयं आप भी मिलनसार बनने का प्रयत्न कीजिए। बच्चों जैसी अनुचित लज्जा, या अपनी हीनता का दुर्भाव आपको पस्त न करे, यह ध्यान रखिये। शारीरिक कुरूपता, या दुर्बलता ऐसे कारण नहीं है, जो कि आपको दूसरों से पीछे रखें। सच मानिये, आप में दूसरों के सहयोग की अपूर्व शक्तियां छिपी पड़ी हैं।

सूनापन और अकेलापन का कारण दूसरों से जनता, पड़ौसी, मित्र, साँसारिक वस्तुएं, मनोरंजन के कार्य इत्यादि सम्पर्कों का अभाव है। यदि आप इन सम्पर्कों की वृद्धि करते चलें, और उन्हें अक्षुण्ण बनाये रहें, टूटने न दें, तो यह अकेलापन दूर हो सकता है। जो जितने अधिक संपर्क रखता है, वह उतना ही प्रसन्न रहता है। ये संपर्क एक प्रकार की ऐसी खिड़कियाँ हैं जिनमें होकर आप मानव के नए-नए रूप देख कर आन्तरिक शाँति और सन्तुलन का अनुभव कर सकते हैं। मनुष्य अपने बंधु बान्धव से हिल-मिल कर ही प्रसन्नता से जी सकता है, यह मत भूलिये।


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