स्वावलम्बी बनना आवश्यक है।

March 1954

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(श्री भगवान दास केला)

जार्ज बर्नार्डशा का कथन है कि-पुरुष समाज से जितना ले, उतना ही समाज को वापिस कर दे, वह साधारण भद्र पुरुष कहा जाता है। जो सभ्य पुरुष समाज से जितना ले, उससे अधिक उसे लौटा दे, वह विशिष्ट भद्र पुरुष है और जो शरीफ आदमी अपना समस्त जीवन समाज में लगा दे और बदले में समाज से कुछ भी न चाहे, यह असाधारण सभ्य एवं भद्र पुरुष कहा जाता है। हम सब जिन्दा रहना चाहते हैं और जिन्दा रहने के लिए तरह-तरह के अनेक काम किया करते हैं। बात यह है कि अपने शरीर की रक्षा या भरण-पोषण के लिए हमें कुछ चीजों की अत्यन्त आवश्यकता होती है, उन चीजों के बिना हमारा काम नहीं चलता है। यों तो हमें सबसे अधिक आवश्यकता हवा की होती है, पर क्योंकि वह आमतौर से बिना कुछ खर्च या मेहनत के मिलती है, उसे हम अपनी मुख्य या प्रारंभिक आवश्यकताओं में नहीं गिनते। हमारी खास जरूरतें ये मानी जाती हैं- भूख मिटाने या शरीर की परवरिश के लिए भोजन, सर्दी-गर्मी से बचने के लिए कपड़ा, धूप, वर्षा, ओले या बहुत ठण्डक से बचने और जानवरों से रक्षा करने के लिये मकान, कभी बीमार पड़ जायें तो रोग से छुटकारा पाने के लिए औषधियाँ और जी बहलाने के लिए कुछ मनोरंजन का सामान। साधारण तौर से प्रारंभिक अवस्था में आदमी जितने काम करता है वह प्रायः अपनी इन जरूरतों को पूरा करने के लिए करता है।

आदमी को अनुभव से मालूम हुआ है कि वह अकेला रह कर इन जरूरतों को आसानी से या अच्छी तरह पूरा नहीं कर सकता। हमें एक दूसरे की सहायता की जरूरत होती है। जो आदमी अपने काम से दूसरों को लाभ पहुँचाता है, उसे बदले में दूसरे आदमियों द्वारा बनायी हुई चीजों के उपयोग का लाभ मिल जाता है। वह ऐसी चीजों के बनाने में लगा रह सकता है, जिन्हें बनाने की उन्हें सुविधा होती है। यह नहीं होता कि उसे अपनी जरूरत की सभी चीजें खुद ही बनानी पड़ें और यह बात बहुत मुश्किल क्या, करीब-करीब असंभव है कि कोई आदमी अपने जीवन निर्वाह की सभी चीजें अपने आप बना सके। बात यह है कि अकसर एक चीज को बनाने के लिए दूसरी कई चीजों, औजार आदि की जरूरत पड़ती है और कोई आदमी इन सब चीजों और औजारों को खुद ही बनाना चाहे तो जब तक ये बनकर तैयार न हों, उसका निर्वाह नहीं हो सकता। इस प्रकार आदमी को दूसरों की सहायता और सहयोग लेने की आवश्यकता होती है। इसलिए आदमी मिल-जुल कर समाज में रहते हैं। दूसरा आदमी या समूह दूसरा काम करता है। हम दूसरों को कुछ चीजें बना कर देते हैं और बदले में अपने उनकी सहायता या उनकी बनाई हुई चीजें लेते हैं। इस तरह सब काम चलता है।

ऊपर कहा गया है कि कोई आदमी अपनी जरूरत की सब चीजें नहीं बना सकता। पर यह आवश्यक है कि वह समाज के दूसरे आदमियों के लिए कुछ ऐसी चीजें बनाये या ऐसा काम करे जिसके बदले में वह दूसरों से अपनी जरूरत की चीजें ले सके और अपना निर्वाह कर सके। इस तरह कोई न कोई धंधा करना सबके लिए जरूरी है। बिना कोई उद्यम, रोजगार या काम-धंधा किये आदमी की गुजर नहीं हो सकती। यही कारण है कि हम समाज में लोगों को तरह-तरह के काम करते हुए देखते हैं- कोई अनाज पैदा करता है, कोई आटा पीसता है, कोई बर्तन बनाता है, कोई कपास ओट कर रुई तैयार करता है और कोई रुई से सूत कातता या सूत का कपड़ा बुनता है। कुछ आदमी ऐसे हैं, जो कोई चीज पैदा या तैयार नहीं करते, वे व्यापार करते हैं। जिसके पास एक चीज अधिक होती है, उससे वह चीज लेकर दूसरे ऐसे आदमी को देते हैं, जिसे उसकी जरूरत होती है और जो दूसरे आदमियों के लिये उपयोगी चीजें दे सकता है। कुछ आदमी बालकों को पढ़ना-लिखना सिखाते हैं और कुछ आदमी रोगियों को दवा-दारु देने का काम करते हैं। इस तरह समाज में किसान, कारीगर, व्यापारी, अध्यापक और वैद्य आदि अपने-अपने काम से दूसरों की सहायता करते हैं और बदले में अपने जीवन निर्वाह के लिये विविध वस्तुएं पाते हैं।

हम में से हर एक आदमी को कोई न कोई धंधा या व्यवसाय करना जरूरी है, जिससे हमारा और हमारे आश्रित हमारे परिवार वालों का जीवन-निर्वाह हो सके। हर एक आदमी को स्वयं अपने हित के लिए भी स्वावलम्बी होना चाहिए। यह बात इतनी सरल और स्वाभाविक नहीं होती। सभी आदमी इसे ठीक समझते हैं तो भी वर्तमान अवस्था में इस पर बहुत जोर देने की और इसे कुछ साफ करने की जरूरत है।

समाज में दो प्रकार के आदमी तो स्पष्ट ही ऐसे हैं, जो स्वावलम्बी जीवन नहीं बनाते, कोई व्यवसाय साथ नहीं करते- भिखारी और चोर। खासकर भारतवर्ष में तन्दुरुस्त और हट्टे-कट्टे होते हुए भी मुफ्त का खाने में कुछ संकोच नहीं करते। कुछ आदमी गेरुआ वस्त्र पहिन लेते हैं, कुछ शरीर पर राख मल लेते हैं, या धूनी रमा लेते हैं, कुछ किसी देवी देवता की मूर्ति के पुजारी बन बैठते हैं, या अन्य प्रकार से सर्वसाधारण को भ्रम में डाल कर उनकी श्रद्धा और दानशीलता से अनुचित लाभ उठाते हैं। भोले-भाले लोगों की उदारता के कारण ये लोग आलसी और निरुद्यमी जीवन बिताते हैं। यह ठीक है कि अपाहिज, बूढ़ों और कमजोर आदमियों को समाज की सहायता और सहानुभूति पाने का अधिकार है, लोगों का कर्त्तव्य है कि उनकी जरूरतें पूरी करने में भरसक योग दें। इसी तरह जो साधु संन्यासी घूमकर देश में धार्मिक अर्थात् नैतिक बातों का प्रचार करें, जनता में नागरिकता के भाव भरें, वे भी गृहस्थियों की ओर से भोजन वस्त्रादि की सुविधाएं प्राप्त करें। लेकिन निखट्टू आलसी या ढोंगी आदमियों को समाज से किसी प्रकार की सहायता या सहानुभूति पाने की आशा नहीं करनी चाहिये। जनता को चाहिये कि उनके प्रति कड़ा रुख धारण करके उन्हें स्वावलम्बी बनने के लिए मजबूर करे।

जो आदमी चोरी करके अपना निर्वाह करता है, उसे राज्य की ओर से दण्ड मिलने का नियम है। जब कभी उसका चोरी करना साबित हो जाता है तो उसे सजा दी जाती है। हाँ, कभी कुछ आदमी पकड़ में नहीं आते और कुछ समय मुफ्त का माल खाते रहते हैं। क्योंकि इनसे जनता की सहानुभूति नहीं होती, जैसी कि भिखारियों या साधु संन्यासियों से होती है, ये लोग चोरी के काम में बहुत अधिक सफल नहीं होते। परन्तु चोरों को राज्य की ओर से दण्ड मिलने की ही व्यवस्था काफी नहीं है। विचार यह किया जाना चाहिए कि ये आदमी चोरी क्यों करते हैं और किन उपायों के काम में लाये जाने से ये स्वावलम्बी बन सकते हैं। मिसाल के तौर पर अगर इन्हें अपनी आजीविका का कोई योग्य काम नहीं मिलता तो वैसे काम की व्यवस्था करना समाज और राज्य का कर्त्तव्य है, उन्हें इस कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए।

भिखारियों और चोरों के अलावा और भी कुछ आदमी कोई व्यवसाय नहीं करते, स्वावलंबी जीवन नहीं बिताते। धनवानों या रईसों के लड़के खाली बैठे अपने माँ-बाप की कमाई का उपभोग करें, इसमें बहुत कम आदमियों को एतराज होता है। कितने ही आदमी तो अपने चाचा, ताऊ या मामा आदि के आसरे पड़े रहने को भी बुरा नहीं समझते। इन बातों में सुधार तभी हो सकता है जब लोकमत काफी प्रबल हो। हर एक युवक और युवती के हृदय में यह बात बैठा दी जानी चाहिए कि उसे समाज के उपयोगी कोई न कोई कार्य अवश्य करना चाहिए। सिवाय उस दिशा के जबकि हम में काम करने की शक्ति या योग्यता न हो, हमें हमेशा स्वावलम्बी जीवन बिताना चाहिए। खेद है कि बहुत से आदमी कुछ काम धंधा न करते हुए खाने-पीने और मौज उड़ाने को बड़प्पन की निशानी समझते हैं। असल में यह मनुष्य का बड़प्पन नहीं ओछापन है और उसे इसके लिए लज्जा आनी चाहिए कि समाज की कोई सेवा न करते हुए वह अपने लिए उपयोगी चीजें खर्च करे। हर एक नागरिक कोई न कोई व्यवसाय करने वाला, स्वावलम्बी जीवन बिताने वाला होना चाहिए। हमें अधिक नहीं तो उतना तो समाज को देना ही चाहिए, जितना उससे लेते हैं।

आदमी के लिए व्यवसाय की आवश्यकता सिर्फ इसीलिए नहीं है कि उससे उसका निर्वाह होता है। व्यवसाय से आदमी को मानसिक लाभ भी बहुत है। काम करने की ओर उसकी स्वाभाविक रुचि होती है। जब वह अपने परिश्रम का फल पाकर अपना निर्वाह करता है तो उसे एक विशेष प्रकार का आनन्द होता है, उसमें आत्मविश्वास बढ़ता है, उसमें स्वतंत्र रूप से सोचने, साहस करने का भाव रहता है। उसे दूसरों के सामने खामख्वाह दबना या सिर नवाना नहीं पड़ता। ये बातें किसी भिखारी, चोर या मुफ्तखोर में नहीं हो सकती। काम करने से आदमी का अनुभव बढ़ता है, वह पीछे उस काम को अच्छी तरह कर सकता है, वह प्रगति या विकास के पक्ष में आगे बढ़ता है। इसके विपरीत जो आदमी कोई कार्य नहीं करता, जिसे कुछ कठिनाइयों का सामना करने का अवसर नहीं मिलता, वह आगे क्या बढ़ेगा? इस प्रकार मानसिक गुणों के विकास के लिये भी हर आदमी को कोई न कोई व्यवसाय करना जरूरी है।


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