विवेक वचनावली (Kavita)

March 1954

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कठिन राम कौ काम है, सहज राम कौ नाम। करत राम कौ काम जे, परत राम सों काम॥

दीननु देखि घिनात जे, नहिं दीननु सो काम। कहा जानि के लेत हैं, दीनबंधु कौ नाम॥

रहिमन राम न उर धरै, रहै विषय लपटाय। भुस खावै पशु आप तें, गुड़ गुलियाये खाय॥

जो जन प्रेमी राम के, तिनकी गति है येह। देही से उद्यम करें, सुमिरन करें विदेह॥

ज्ञान गम्य कहते सभी, ज्ञानी नर दिन रात। उसे चाहते देखना, परम निराली बात॥

चलौ चलौ सब कोइ कहैं, मोहिं अन्देसा और। साहब सूँ परचय नहीं, ये जइहै किस ठौर॥

कबीर हरि के नाम सूँ, प्रीति रहै इकतार। ता मुख तें मोती झरें, हीरा अन्त न पार॥

राम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल। कबीर पीवन दुलभ है, माँगे शीश कलाल॥

कबीर हंसना दूर करि, करि रोबना सो चित्त। बिन रोये कैसे मिले, प्रेम पियासा मित्त॥

जो रोऊं तो बल घटै, हंसों तो राम रिसाय। मन ही माँहि बिसुरना, ज्यों धुन काठहि खाय

सुखियाँ सब संसार है, रहै खाय कैं सोय। दुखिया दास कबीर है, जगि बिसरै कै होय॥

बासर सुख ना रैन सुख, ना सुख सपने महि। कबीर बिछुरा राम से, ना सुख सपने महि।

कबीर बिछुरा राम से, ना सुख धूप न छाँह॥

प्रेम व्यथा तन में बसै, सब तन जर्जर होय। राम वियोगी ना जियै, जियै तो बौरा होय॥

प्रेम पियाला जो पियै, सीस दच्छिना देय। लोभी सीस न दै सकै, नाम प्रेम का लेय॥

लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी ह्वै गई लाल॥

प्रेम प्रेम सब कोई कहे, प्रेम न चीन्हें कोय। आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावै सोय॥

पिजर प्रेम प्रकासिया, जागा जोग अनन्त। संसय छूटा सुख भया, मिला पियारा कन्त॥

पिंजर प्रेम प्रकासियाँ, अन्तर भया उजास। मुख कस्तूरी मँहक सी, वाणी फूट वास॥

ममता मेरा क्या करै, प्रेमी उघाड़ी पौलि। दरसन भया दयाल का, सूलि भई सुख सौड़॥

मेरा मुझको कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। तेरा तुझको सोंपते, क्या लागत है मोर॥

कबीर सीप समुद्र में, रटै पियास पियास। समुद्रहि तिनका सम गिनै, स्वाति बूँद की आस।

माँगत डोलत है नहीं, तज घर अनत न जात। तुलसी चातक भगत की, उपमा देत लजात॥

तुलसी केवल राम पद, लागै सहज सनेह। तो घर घट बन बाट महं, कतहु रहे किन देह॥

कहा भयो वन वन फिरे, जो बन आई नाहिं। बनते बनते बन गयेउ, तुलसी घर ही माँहि॥

कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे लागे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर॥

सर्व भूत में आतमा, आतम में सब भूत। यह गूढार्थ जिन्हें विदित, उनका ज्ञान प्रभूत॥

अचरज को कासों कहें, बिन्दु में सिन्धु समान। रहिमन अपने आपते, हैरन हार हिरान॥

हेरत हेरत हे सखी, रह्यो कबीर हिराय। बूँद समानी समद में, सो कब हेरी जाँय॥

लेत आत्म अनुभूति रस, शूर सबल स्वाधीन। सके न करि कबहूँ कहूँ आत्मलाभ बलहीन॥

कबीर एक न जानियाँ, बहु जाना क्या होहि। एक ते सब होत है, सब ते एक न होहि॥

विद्या, बल, धन, रूप, यश, कुल सुत बनिता मान सभी सुलभ संसार में, दुरलभ आतम ज्ञान॥

घीव दूध में रमि रह्या, व्यापक ही सब ठौर। दादू बकता बहुत है, मथि काढ़े ते और॥

काम, क्रोध, मद, लोभ की, जब लगि मन में खान। तब लगि पण्क्षित मूरखौ, तुलसी एक समान॥

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया काशी जानि। दसवाँ द्वारा देहुरा, तहाँ ज्योति पहचानि॥

गायत्री चर्चा-


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