(श्री स्वामी शिवानन्द जी)
जब मनुष्य भय या आतंक की अवस्था में होता है, तब वह विश्व में होने वाली घटनाओं को सही रूप में नहीं देख सकता। शान्त और निरपेक्ष होकर ही मन उन घटनाओं को समझ सकेंगे।
हम प्रारम्भ में ही कह देना चाहते हैं कि ईश्वर के विषय में मनुष्य का विचार विकृत होता है और वह आग्रह-पूर्वक अपने उस विचार से चिपका रहना चाहता है। आदि, मध्य और अन्त ये तीनों चीजें संसार के पदार्थों में है। यह एक ऐसा प्राकृतिक नियम है जो कभी नहीं टूटता। ईश्वर के अन्दर उत्पन्न करना, रक्षा करना और नष्ट करना- ये तीनों गुण वर्तमान है। परन्तु मनुष्य कभी भी ईश्वर के इस तीसरे गुण को मानने को तैयार नहीं। मनुष्य का दृष्टिकोण प्रायः अपूर्ण रहता है और वह सत्य के केवल उस भाग को स्वीकार करना चाहता है, जो उसे प्रिय लगता है। ईश्वर के अन्दर उत्पन्न करना और रक्षा करना ये दो गुण है, उनके लिए वह निरन्तर ईश्वर की प्रशंसा करता है और गीत गाता है। लेकिन जब विनाश सामने आता है- जो कि तर्कसम्मत तथा अनिवार्य परिणाम है- तब वह काँप उठता है और भगवान से हस्तक्षेप करने की प्रार्थना करता है। सच तो यह है कि वह भ्रमवश विनाश को किसी तीसरी शक्ति का कार्य समझता है, जिसमें ईश्वर का कोई हाथ नहीं है। लेकिन मनुष्य को साहस-पूर्वक सच्चाई स्वीकार करनी चाहिये। उसे ईश्वर के सभी रूपों को मानना चाहिये। न्याय के जगत् में भावना की आवश्यकता नहीं।
अगर कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह तुम्हारे ऊपर आक्रमण करता है, तो तुम उससे अपनी रक्षा कर सकते हो। लेकिन जब तुम्हारे कर्म ही तुम पर आक्रमण करें, तब तुम किस प्रकार अपनी रक्षा कर सकते हो?
मानव-जाति ने जो भूलें की है, उनके लिये दण्ड का जब विधान होता है, तब कोई भी उसे बचा नहीं सकता। इसीलिये हमारे पूर्वज कहा करते थे कि मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करना चाहिये। अगर अच्छे काम किये जायेंगे, तो उनका फल भी अच्छा ही होगा। अगर तुम किसी को हानि नहीं पहुँचाओगे, तो कोई भी तुम्हारी हानि नहीं कर सकता।
मनुष्य का अज्ञान तब स्पष्ट समझ में आ जाता है, जब वह अपनी की हुई भूलों और उनके परिणाम के लिए ईश्वर को दोषी ठहराता है, शताब्दियों से सन्त-महात्मा चिल्ला-चिल्ला कर कहते आये हैं कि मनुष्य को सदा अच्छे काम ही करने चाहिए और बुरे काम छोड़ देने चाहिए। उन्होंने यह भी बताया है कि कौन-सा काम अच्छा है और कौन-सा काम बुरा।
समाज ने हमेशा ऐसे लोगों को दण्ड ही दिया है। लेकिन महात्माओं ने अपना मार्ग कभी नहीं छोड़ा। क्या यह हमारे ऊपर ईश्वर की कृपा नहीं है? लेकिन मानव-जाति ने इनसे कितना लाभ उठाया है? अगर आप थोड़ी-सी भी गम्भीरता से विचार करें, तो आपको पता लगेगा कि मानव-जाति ने महात्माओं की उन शिक्षाओं की अवहेलना की है, जो शास्त्रों में लिखी हुई है।
थोड़ा-सा विचार करो। मनुष्य अपने मन में ईश्वर का एक रूप निश्चित कर लेता है और वह उसी रूप को देखना चाहता है। अगर उसे इस रूप के अतिरिक्त कोई दूसरा रूप दिखाई पड़ता है तो वह उसे मानने को तैयार नहीं। हम अपने मन में सोच रखते है कि दया, न्याय और कृपा क्या वस्तुएँ हैं और हम चाहते है कि वे उसी ढंग से संसार में प्रकट हों, जिसको हम पसन्द करते हैं। ईश्वर को उस ढंग से नहीं समझा जा सकता जिस ढंग से हम अपने लिए पत्नी की खोज करते हैं। पत्नी की खोज में हम कह सकते है- ‘वह इस तरह की सुन्दर हो, उसकी आंखें, नाक और कान ऐसे हों और उसकी आवाज ऐसी हो’ परन्तु यह चीज ईश्वर के साथ कैसे लागू की जा सकती है? किसी जगत-प्रसिद्ध नायक से पाँच मिनट गाना सुनने के पश्चात अगर हम यह कहने लगें कि जरा ऐसा गाओ, जो हमें अच्छा लगे, तो यह कितना मूर्खतापूर्ण होगा? ईश्वर के विषय में जो भ्रान्त धारणाएँ हमारे मन में आ गई है, उसका कारण यह है कि हमें विश्वास नहीं कि ईश्वर शिव-रूप है और वह जो कुछ करेगा, वह अच्छा ही होगा। संसार की प्रत्येक वस्तु में गुण-दोष है, परन्तु ईश्वर ही एक ऐसा है, जिसमें कोई दोष नहीं। जो इस रहस्य को जानता है, वह कभी कठिनाइयों से घबड़ाता नहीं।
मनुष्य सच्चे प्रेम और विश्वास को नहीं जानता अगर तुम से प्रेम करने वाला व्यक्ति प्रेम करना छोड़ दे और तुम भी इसी कारण प्रेम न करो, तो यह कोई प्रेम नहीं है। सच्चा प्रेम हमेशा रहता है। परीक्षा के समय जो विश्वास कम हो जाय वह विश्वास ही नहीं। सच्चा विश्वास बाहरी चीजों पर निर्भर नहीं। चाहे कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न आयें, वह कायम रहता है। अगर भावना को प्रधानता दी जावेगी, तो उसका परिणाम भी विनाशकारी होगा।
प्रेम और दया मनुष्य के लिए अच्छे हैं लेकिन उस प्रेम के कारण ईश्वर में विश्वास कम नहीं होना चाहिए। मनुष्य संसार की घटनाओं के विषय में जो जल्दबाजी में निर्णय देता है, उसका कारण संकुचित दृष्टिकोण है। वह भौतिक अनुभवों और घटनाओं को ही सब कुछ मानता है। भौतिक हिंसा से वह घबड़ा जाता है। लेकिन वास्तव में मानसिक क्रूरता और अत्याचार शारीरिक कष्टों से कहीं बढ़कर है। प्रत्येक समाज या परिवार में कुछ ऐसे लोग होते है जो दूसरों पर निर्भर रहते हैं तथा चुपचाप कष्ट सहन करते रहते है। उनके इस भयंकर कष्ट का परिणाम यह होता है कि वे विवश होकर आत्म-हत्या कर लेते है। लेकिन कोई इस बात पर विचार नहीं करता। आज भी इस समय असंख्य आत्माएँ कारागारों और चिकित्सालयों में कष्ट से कराह रही है। लेकिन हममें से कितने लोग ऐसे हैं, जो इसका अनुभव करते हैं? अगर हमारा दृष्टिकोण संकुचित न होता, तो हम भी ईसा या बुद्ध की तरह उनके कष्ट का अनुभव कर सकते थे। शताब्दियों से हत्याएँ होती चली आ रही हैं, पर हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर जब ऐसी घटनाएँ विशाल पैमाने पर होती हैं, तो मनुष्य ईश्वर के न्याय और भलाई में सन्देह करने लगता है। वैसे तो मनुष्य इन अनियमित और अव्यवस्थित हत्याओं से भयभीत होता है, परन्तु तब भी वह व्यवस्थित और संगठित युद्ध कला में विश्वास करता है। यह कितना बड़ा भ्रम है? वह बड़े उत्साह के साथ इसमें काम करता है। बड़े से बड़े शिक्षित संस्कृत और बुद्धिमान व्यक्ति भी युद्ध में सहायता करके यश प्राप्त करने की इच्छा रखते थे। “मेरा पुत्र, भतीजा या पोता आर. ए. एफ. या ईर्स्टन कमान मैं है” यह कहते हुए वे गर्व का अनुभव करते थे। वह इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस काम का परिणाम यूरोप या जापान के निवासियों के घर नष्ट करना है- नागरिकों का नृशंसतापूर्ण वध करना है जिनमें दूर यूरोप और मध्यपूर्व के स्कूलों में शिक्षा पाने वाले बच्चे भी शामिल है। लेकिन तब भी वह युद्ध से विमुख नहीं हुए। मनुष्य की बुद्धि कितनी पवित्र है कि वह अपने कर्मों पर कभी विचार नहीं करता। युद्ध काल में भोजन का कष्ट रहा- यात्रा करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा- मकानों का अभाव रहा और जीवन के लिये आवश्यक अनेक पदार्थों की कमी रही, पर तब भी हम लोग अपने को मनुष्यकृत शासन-व्यवस्था के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते रहे। लेकिन दुःख का विषय है कि हम लोग अपने को ईश्वरीय शासन व्यवस्था के अनुकूल नहीं बनाना चाहते।
प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों की रचना केवल क्षणिक मनोविनोद के लिए नहीं की थी। उनके अन्दर जीवन के गहन तत्व छिपे पड़े है। ईश्वर के कार्य और नियम महत्वपूर्ण है। यह बात ठीक है, पर जो आंखें खोलकर देखना चाहते है उसे साफ दिखाई पड़ते हैं।
महात्माओं का जीवन लोक-कल्याण के लिए होता है। ईश्वर के पुत्र होने के नाते वह उसके नियम का पालन करते है। वे घटनाओं को ऐतिहासिक दृष्टि से देखते है। उन्हें इस बात का विश्वास होता है कि जो बातें आज कष्टप्रद तथा दुःखपूर्ण जान पड़ती है, उनसे अच्छा परिणाम ही निकलेगा।
प्रिय आत्मा! भगवत्कृपा का दरवाजा तुम्हारे लिए खुला हुआ है। लेकिन मनुष्य मूर्खतावश इस पर ध्यान नहीं देता। वह नित्य वही काम करता है, जो धर्म के विरुद्ध है। उसने जान-बुझ कर सत्पथ छोड़ दिया है और अच्छे परिणाम की आशा करता है। अब मनुष्य को जागना चाहिए और अपनी भूल समझ लेनी चाहिए। ईश्वर विश्वरूप है। उसके हृदय में सबके लिए प्रेम और दया है।