मन्त्र शक्ति का रहस्य

June 1954

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(श्री भगवान्नारायण भार्गव)

मन्त्र या जप के प्रभाव को समझने के लिए शब्द विज्ञान, मनोविज्ञान, वायु तथा विद्युत विज्ञान की कुछ सहायता लेनी होगी। अनेक धर्मों में शब्द का महत्व ऊँचा माना गया है, आर्य तो शब्द को ब्रह्मरूप मानते है। शब्द चाहे जड़ का हो या चेतन का- चेतन में भी मानव का हो या पशु-पक्षी का- सभी का प्रभाव न केवल प्राणियों पर किन्तु प्रकृति पर भी अवश्य पड़ता है। इस तथ्य को मूर्ख से भी मूर्ख स्वीकार करेगा। मेघ गर्जन, बिजली की कड़क का प्रभाव पशु पक्षियों पर ही नहीं मानवों पर भी अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार पड़ता है। होम्योपैथिक प्रणाली के अनुसार इन शब्दों से प्रकृति विशेष के रोगियों का रोग घटता बढ़ता है। नदी के कल-कल का प्रभाव कवियों तथा प्रकृति के इतर पुजारियों पर पड़ता ही है। सिंह गर्जन सुनकर किसी को भय और किसी को उत्तेजना और वीर भाव उत्पन्न होता है। कोकिल या मयूर के गाने से किसी को भय की भावना नहीं होती। शब्द से ही हम दूसरे मनुष्यों को प्रभावित करते है किसी में क्रोध उत्पन्न कर देते है तो किसी में प्रेम, किसी में कामना तो किसी में वात्सल्य प्रेम या वैराग्य! फिर शब्द शैली और शब्द योजना की विभिन्नता से भिन्न-भिन्न प्रकार के भावों तथा रसों का प्रादुर्भाव होता है। शब्द क्या शब्द के रचना करने वाले अक्षरों से भी भिन्न-भिन्न रस उत्पन्न होते है। करुण रस में तथा शृंगार रस में कोमल, कान्त, पदावली अभीष्ट होती है किन्तु वीर, रौद्र और वीभत्स रसों की शब्दावलि विपरीत होती है। संसार की सभी भाषाओं के छन्दालंकार शास्त्र से शब्दाक्षर विन्यासानुपात और उनके विपर्यय तथा तारतम्य के प्रभाव को स्वीकार किया है।

युद्ध सम्बन्धी प्राचीन कार्यों में कितने कर्ण-कर्कश शब्दाक्षरों का प्रयोग होता था। शब्दों ही से युद्ध छिड़ जाता है, शब्दों ही के कारण प्राण हास्य और रुदन करने लगते है। यदि हमारे शब्दों में वास्तविक शक्ति हो तो दौड़ता हुआ विषधर सर्प भी रोका जा सकता है और वश में किया जा सकता है। चञ्चल मृगों को अपनी ओर आकृष्ट करके निश्चल और शान्त कर सकते है और पागल हाथी की उन्मत्तता को भी दूर कर सकते हैं।

मन्त्रों की शक्ति को थोड़े समय के लिए अभी दूर रहने दीजिए। संगीत ही में वशीकरण और रोगशमन की शक्ति आज भी पाई जाती है। संगीत से शिर पीड़ा और वमनोद्वेग रुकते मैंने देखा है। यह है केवल शब्द विज्ञान की लीला। उसके साथ भावना का पुट दे दीजिए। मनोविज्ञान की सहायता से लीजिए सोने में सुहागा हो गया। मानव विशेष युक्त शब्दों का क्या प्रभाव होता है इसके प्रमाण जीवन के पल-पल में प्राप्य है। कुत्ते-बिल्ली आदि में तो मानव बुद्धि नहीं है परन्तु प्रेममय शब्दों को और घृणा क्रोध भरे शब्दों को वे भी पहिचानते है तथा उन्हीं भावनाओं के परिणामस्वरूप कार्य भी करते है। हमारी विचारशक्ति और आन्तरिक इच्छा शक्ति का प्रतिबिम्ब शब्दों द्वारा विलक्षण रीति से मनुष्यों पर तो पड़ता ही है पशु पक्षियों क्या वृक्षों तक पर पड़ता है। फिर एक ही शब्द पृथक्-पृथक् भावनाओं से उच्चारण करने पर पृथक-पृथक प्रकार के फल को प्रकट करता है। जैसे “क्यों बे बदमाश” क्रोध में कहने से क्रोध और घृणा का अभिभावक होता है, अपने बच्चे के प्रति प्रेम से कहने पर प्रेमोल्लास प्रकट करता है। एक ही स्त्री को कोई बेटी, कोई माता, कोई भगिनी, कोई प्रियतमा कहकर पुकारता है परन्तु प्रत्येक पुकार में विविध भावनाओं की तरंग का आदुर्भाव होता है और प्रतिक्रिया में भी भिन्नता होती है। मैस्मरेजम या हिप्नोटिज्म में यद्यपि मन्त्रों का प्रयोग नहीं होता है किन्तु वहाँ भी शब्द योग और इच्छा शक्ति योग के संपर्क से काम लिया जाता है बड़े-बड़े रोग अच्छे हो जाते है मनुष्यों के स्वभाव तक में परिवर्तन किसी-किसी अवस्था में होते देखा गया है। तात्पर्य यह है कि विशेष शब्दविन्यास में जब विशेष भावनाओं का रस मिश्रण किया जाता है विशेष प्रभाव पड़ता है। यह भी एक स्वीकृति तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी में आकर्षण या विद्युत शक्ति है क्योंकि सभी प्राणी जगदात्मा के एक सूत्र की मणियाँ है या कहिये सभी में एक ही विद्युत तरंग के कण वर्तमान है ऐसा न होता तो अहैतुक और तास्तकालिक प्रेम तथा घृणा के भाव जो संसार में दृष्टिगोचर होते है न होते। स्वाभाविक द्वेष तथा प्रेम इसके प्रमाण है।

आप शब्दों का उच्चारण जोर से न भी करें केवल मन से ही उन शब्दों को किसी के प्रति लक्ष्य करके अभ्यास रूप से दुहरावे तो उन मूक शब्दों का विचार तरंग द्वारा उस पर प्रतिबिम्ब पड़ता है और उसके मन में उसी प्रकार से उद्वेलन होगा। यह एक अनुभव की बात है कि आप किसी घोर दुष्ट वासनामय स्त्री पुरुष के पास जाकर चुपचाप भी बैठे रहें तो भी उसके मूल विचारों का आप पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा और यदि आपके विचार उससे विपरीत है तो आप घबराकर वहाँ से भाग जायेंगे। उसी प्रकार अच्छे विचारों के सज्जनों के पास बैठने से भी मूक विचारों का असर पड़ता है। शब्द भावना और प्राकृतिक विद्युत शक्ति से हम दूसरों पर सत तथा असत् प्रभाव डाल सकते है। अब देखना यह है कि शब्दों तथा विचारों का प्रभाव वायु के स्तरों में तथा आकाश मण्डल में कहा कितना और किस प्रकार पड़ता है। हमारे संगीत शास्त्र में राग-रागनियों के स्वरूप तथा गुणादि का बड़े विस्तार से वर्णन है, उनके प्रभावों का भी दिग्दर्शन कराया गया है। प्राचीन पुस्तकों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि दीपक राग के गाने से दीपक जल जाते थे, मेघराज से वर्षा हो जाती थी। पर आज हमारी आंखें पाश्चात्य सभ्यता तथा विदेशी गौरव से चौंधियाई हुई है। हम इन बातों के अनुसंधान में समय नष्ट नहीं करना चाहते, न इन पर विश्वास करते है। हाँ, यदि कोई पाश्चात्य विद्वान् इन तत्वों तथा तथ्यों का पोषण मात्र कर दे तो हम उसके अन्धविश्वासी हो सकते है। मैंने पढ़ा है कि इसी शताब्दी में कई बार गायकों द्वारा प्रयोग करके देखा गया है कि विविध राग-रागनियों की तान अलापने पर परदो पर तथा चूर्ण विशेष विस्तृत वायु मण्डल में उनकी रूप रेखा नाचती दिखाई और गान समाप्त होते ही वे रूप अन्तर्हित हो गये। एक बार लार्ड लिटन के कमरे में प्रसिद्ध अन्वेषिका श्रीमती बाट्स इन्स द्वारा यह प्रयोग देखा गया।

एक प्रकार के राग से एक ही प्रकार ही आकृति प्रकट हुई, दूसरे से दूसरी। फ्रांस में भी एक बार लेडीलेंग ने एक राग छेड़ने पर देवी मैरी के दर्शन क्राइस्ट को गोद में लिए हुए किए। भैरवराग छेड़ने पर भैरव जी के दर्शन हुए इटली में भी इसका प्रयोग किया गया है और वहाँ गायिका के स्वरों के प्रभाव से रेत में चित्र बनते देखे गये। वह चित्र माता सरस्वती जी पुस्तक धारिणी वीणा धारिणी का था। शब्द के संघर्ष की शक्ति विद्युदाच्छन्न आकाश मण्डल में हजारों मीलों तक विस्तृत होती है। इसके वैज्ञानिक प्रमाण रेडियो और बेतार के तार है। आधुनिक काल में विशेष यन्त्रों द्वारा हमारी वाणी इतनी दूर पहुँचाई जा सकती है। प्राचीन काल में सिद्ध पुरुष बिना किसी यन्त्र के अपने योग बल से केवल अपनी वाणी का ही प्रसार सुदूरस्थ प्रदेशों में ही न कर वरन् एक स्थान में स्थित अपने शरीर द्वारा हजारों कोसों दूर पर स्थूल क्रियाएँ भी प्रदर्शित कर सकते थे। वे क्रियाएँ आज भी संभव हो सकती है। यदि हम योगिक क्रियाओं की ओर अपना गम्भीर ध्यान दें और विस्मृत क्रियाओं और उनके उपेक्षित तत्वों का अनुसन्धान करने और उनकी साधना करने में समय तथा शक्ति का व्यय करें। हम यदि यह समझते हों कि हमारी वाणी का प्रसार बिना यन्त्र के केवल वहीं तक है जहाँ तक वह सुनाई देती हो तो हम भूल करते है। एक बड़े जलाशय में आप एक छोटा सा कंकड़ डालें तो देखेंगे कि उस छोटे से कंकड़ की ताड़ित संघर्षणा में जल में चक्र बनकर समस्त तड़ाग के घेरे में पड़ता ही जायगा ठीक उसी प्रकार जो शब्द हमारे कण्ठ से निकलता है वह सारे वायुमण्डल में फैलकर अपनी तरंगों का प्रभाव डालता है। हमारी मानसिक शक्ति का प्रसाद और संघर्ष बल इससे भी अधिक है क्योंकि मन की प्रगति और बल शरीर से अत्यन्त प्रबल और तीव्र है। हम यहाँ बैठे-बैठे संसार के किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान में लाकर उस पर अपनी प्रबल इच्छा शक्ति द्वारा अपने विचारों का प्रभाव डाल सकते है। इसका यदि हम स्वयं परीक्षण करें तो हमें विश्वास प्रत्यक्ष रूप से हो जावेगा। निकट स्थान पर ही इस तत्व का परीक्षण करके देखिए। आप में से कितने ही महानुभावों को वह अनुभव कई बार हुआ होगा कि आप एक विषय पर अपने मित्र से वार्तालाप करने के लिए विचार करते हुए गए, पहुँचने पर आप तो विचार करते ही रहे और जो विचार आपके हृदय में थे वे ही आपके मित्र ने प्रकट कर दिए। आप किसी से कोई प्रश्न करने को उद्यत हुए कि उसने उसका उत्तर आपको पहिले ही दे दिया। बाह्य विद्युत शक्ति का बल कहीं अधिक है, विचार विनिमय शब्दों से नहीं हृदयान्तरित तार से ही हो जाता है। हमें इसके प्रमाण दैनिक जीवन में ही प्राप्त होते है परन्तु हम उन पर ध्यान नहीं देते।

जब शब्द, भाव, विचार, वायु विद्युत तथा आकाश का पृथक तथा सम्मिलित प्रभाव हमारे जीवन के साधारण व्यवहार से पशु-पक्षी, प्रकृति तथा मानवजाति पर नित्य पड़ना प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध है तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आत्मयोग द्वारा विशेष साधनों से शब्द-विज्ञान मनो-विज्ञान आदि के अनुसन्धानित आधार पर विशिष्ट शब्द विन्यास की योजना से मन्त्रों की रचना करके उनकी विधिवत् सिद्धि द्वारा संसार का कल्याण किया। इन्हीं तत्वों की विवेचना के आधार पर यह निश्चित धारणा स्थिर हुई है कि मन्त्र द्वारा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती है। रोग, आपत्ति और संकटों का शमन होता है और इष्टदेव के दर्शन से कामनाएँ पूर्ण होती है। एक विचार को आप बार-बार हृदय में दुहरावें और उसका अभ्यास करें तो वह विचार आपके मस्तिष्क में ऐसा अंकित हो जाता है कि वह आपके स्वभाव में परिणत हो जाता है और उसका एक अंग बन जाता है और उस स्वभाव तथा संस्कार से बाह्य जगत प्रभावित होता है। इसी प्रकार किसी मन्त्र या मन्त्रों के स्तोत्र के पुरश्चरण से सिद्धियाँ प्राप्त करके संसार का कल्याण निश्चय रूप से किया जा सकता है।

शब्दोच्चारण भी कई प्रकार का है। वह शब्द वह जो दूसरों को सुनाई देता है उसमें कण्ठ जिह्वा वह अन्य शरीराँग का योग होता है दूसरा वह शब्द है जिसमें जिह्वा का आश्रय न लेकर केवल कण्ठ से ही उच्चारण होता है। तीसरा वह शब्द जिसमें केवल आपकी श्वाँस ही कार्य करती है। चौथा शब्द है जिसको आप हृदयान्तर अथवा अन्तःकरण में ही उच्चारण करते हैं परन्तु उसकी भीमकाय तरंगें सारे ब्रह्माण्ड को आप्लावित कर देती है। पाँचवाँ शब्द अनहद शब्द है जिसका उच्चारण आप वास्तव में करते ही नहीं। इन सब तथ्यों के विज्ञानों महर्षियों तत्वदर्शियों ने लोक-कल्याण के लिए मन्त्रों का निर्माण गुप्त दिव्य-शक्तियों की मन्त्रणा से और साधन से किया था। उनका सूक्ष्मतर मननयोग जो मन्त्रों में वैज्ञानिक क्रियाओं से सन्निहित वाह्य वायु तथा विद्युत के अभ्यन्तर सूक्ष्म स्तर की तरंगों द्वारा जड़ और जंगम पर यदि अपना अचूक प्रभाव डालता है तो क्या आश्चर्य है। किसी मन्त्र का जप हो या ईश्वर भजन प्रार्थना मन्त्र का कीर्तन हो उपरोक्त वैज्ञानिक तत्वों की प्रतिक्रिया उन सब में प्रगाढ़ रूप से दृष्टिगोचर होती है और उनके प्रभाव का विस्तार अनन्त होकर के तार द्वारा हृदयों में प्रवेश करता है। मन्त्रों का अनुष्ठान एक ही स्थान में अथवा एक ही समय में अनेकों स्थानों में किए जाने पर वायुमण्डल मात्र में एक विशेष उद्वेलन और संघटन उत्पन्न करता है। जिसका सामूहिक प्रतिफल समष्टि पर अंकित हो जाता है। यही कारण है कि धार्मिक आचार्यों ने पूजा, संध्या समाज प्रार्थना के कुछ निश्चित समय नियत कर दिये हैं। मन्त्र सिद्ध करके मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार प्रयोग करता है। मन्त्र तामसी, राजसी या सात्विकी नहीं है ये तो मनुष्य के गुण और स्वभाव के विशेषण हैं। सिद्धियों के दुरुपयोग से सदाचार, संयमी, ब्रह्मचारी सदा स्वयं बचते है और दूसरों की रक्षा करते है। कहा जाता है कि आज कल केवल प्रयोग तथा प्रत्यक्ष पर ही लोग विश्वास करते हैं। ठीक हैं हम कब कहते हैं कि अन्धविश्वास किया जावे। ‘प्रयोग कीजिए’ परीक्षण कीजिए, स्वयं साधन कीजिये।


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