प्रार्थना आवश्यक है।

June 1954

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(आचार्य विनोबा भावे)

अभी हमने यहाँ की जो प्रार्थना चलती है, उसको सबके लिये ऐच्छिक बना दिया है। अब तक यह आवश्यक मानी गई थी- लड़कियों के लिए और शिक्षकों के लिए भी। लेकिन कुछ शिक्षक कई कारणों से आ नहीं सकते थे। फिर भी लड़कियों के लिये तो वह नियम लागू ही होता था, इसलिए वे आती थी या उनको आना ही पड़ता था। तो सोचा गया कि शिक्षकों की और लड़कियों की हालत प्रार्थना के बारे में तो समान ही होनी चाहिये। परमेश्वर के सामने कोई भेद-भाव नहीं होता अगर शिक्षकों के लिये हम वह चीज आवश्यक नहीं कर सकते है तो लड़कियों के लिए भी क्यों आवश्यक की जाय? यों सोचकर हिम्मत से एक कदम उठा लिया कि यह ऐच्छिक चीज रहेगी, जिन लड़कियों को आना होगा, आवेंगीं, जो नहीं आना चाहती है वे नहीं आयेंगी। लेकिन तब से मैं देखता हूँ कि बहुत सारी लड़कियाँ आती तो हैं।

भोजन के लिए तो ऐसी बात नहीं होती कि लाजिमी तौर पर सबको खाना ही चाहिए। अगर भूख नहीं है तो खाना छोड़ भी सकते है। फिर अक्सर रोज भूख लगती है और हम खाना खाते है। बीमारी होती है तो न खाना ही अच्छा होता है। उस रोज खाना छूटता है। लेकिन ऐसे रोज कम होते हैं। यद्यपि खाने के बारे में हम सोच सकते है कि कई मर्तबा खाने से न खाना बेहतर होता है, वैसा प्रार्थना के बारे में, भक्ति के बारे में, परमेश्वर के भजन के बारे में नहीं सोच सकते। उसमें कोई प्रसंग हम सोच नहीं सकते जब कि उपासना छोड़ना बेहतर होता है, उपासना करने की अपेक्षा। हाँ, ऐसा कोई मौका हो सकता है कि नजदीक किसी घर में आग लग गई है और हमारा उपासना का समय भी वही है, तो हम उस समय उपासना को छोड़ सकते है और उसी भाव से उस घर की आग बुझाने के काम में लग सकते हैं। लेकिन फिर भी हम दूसरा समय ढूंढ़ेंगे और प्रार्थना कर ही लेंगे। बिना प्रार्थना किये आयेंगे नहीं। सोना तो हमारे हाथ की बात होती है। वह दिन के कार्यक्रम का आखिर का काम होता है, तो प्रार्थना करके ही हम सोयेंगे।

प्रार्थना कोई याँत्रिक क्रिया नहीं है। भूख की जो उपमा दी है वह भी इस चीज के लिए उतनी अच्छी नहीं है। भूख से बढ़कर यह चीज है। हमारे पास वर्णन के लिए शब्द नहीं है, इसलिए तुलना करते है, लेकिन दरअसल यह ऐसी चीज नहीं है कि इसकी उपयोगिता का वर्णन करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं है और दुनिया के सब अनुभवी लोगों ने इसको महसूस किया है। भिन्न-भिन्न धर्म दुनिया में चलते है, अनेक अनुभवी पुरुषों ने तपस्या की है और उन धर्मों का विकास तपस्वी पुरुषों की तपस्या से हुआ हैं। फिर भी धर्मों की विचार-श्रेणियों में कहीं न कहीं थोड़ा-थोड़ा फरक होता ही है। इतना होते हुए भी इस बारे में कोई फरक नहीं है कि परमेश्वर का भजन, उसका नाम-स्मरण, व्यक्तिगत तौर पर और सामुदायिक तौर पर सबको मिलकर करना। अकेले अपने एकान्त में भी करना मनुष्य के जीवन के लिए, उसकी उन्नति के लिए, सामाजिक उन्नति के लिए, चित्तशुद्धि के लिए, आत्म-निष्ठा की प्राप्ति के लिए, शोक, मोहादि प्रसंगों में सावधान रहने के लिए अतिशय उपयोगी है। इस विषय में कोई विचार-भेद किसी धर्म में मैंने नहीं देखा है। इसलिए जो चीज इतनी महत्व की है, उसको लाजिमी बनाकर उसका महत्व हम क्यों कम करें? तो हमने सोचा कि इसकी लाजिमी रखने की जरूरत नहीं है और खुशी की बात है कि लड़कियाँ बहुत सारी आ ही जाती है।

अब यह जो प्रार्थना का कार्य हम करते है, वह हमारे जीवन में दिन भर के जो काम होते है, उन सबकी समाप्ति का, आखिर का कार्य होता है। जितना भी हमने दिन भर में किया है, भला प्रयत्नपूर्वक, और बुरा भी किया होगा भूल से, बिना सोचे वह सारा का सारा लेकर हम भगवान के सामने खड़े हो जाते है और उससे कहते है, “हे दयालु तु सर्वज्ञ है। हर चीज तू जानता है। हम शब्दों से बोले तभी तू समझेगा, ऐसी बात नहीं है। फिर भी बोले बगैर हमारा समाधान नहीं होता है, तो बोलते हैं और शब्दों से प्रार्थना करते है कि जो भी हमसे अच्छे काम हुए होंगे, उनका अहंकार हमें न लगे। उस अहंकार से हम बचें और निरहंकार होकर इसी तरह अच्छे काम हम करें, ऐसी बुद्धि हम बालकों को दें। और जो कभी बुरे काम हमारे हाथ से हुए होंगे, बहुत से तो हमने पहचाने भी नहीं होंगे कि वे बुरे है, कुछ पहचाने होंगे, लेकिन अज्ञान से किये होंगे, उन सबके लिये हमें क्या करना? यानी उनकी जो सजा होगी वह नहीं देना, ऐसा इसका मतलब नहीं है, सजा हमें जरूर देना, वह सजा ही तेरी क्षमा होगी। हम सजा से बचना नहीं चाहते। उन दोषों से, उन पापों से बचना चाहते है, तो हम आपकी क्षमा चाहते हैं। हमको जो भी शिक्षा देना है वह जरूर देना और वैसे दोष हमसे न बनें, ऐसी कृपा हम पर करना।”-इस तरह से अपना दिल उसके सामने हम खोल दें, तो एक नवीन प्रकाश हृदय में आता है और शक्ति का संचार होता है। दुनिया में वैसा कोई भी दूसरा शक्ति संचय मौजूद नहीं है कि जहाँ से हम ले ही लें, वह क्षीण नहीं होता हो। ऐसा यही एक संचय है परमेश्वर, परमेश्वर जो हमारे सबके हृदय में है। जितने अन्दर हम जा सकते हैं, उससे भी वह अन्दर है। इसके लिए एक अच्छा शब्द हमने तामिल में देखा ‘कड़बन’ यानी जितने तक हम सोच सकते है उससे भी वह परे है। और परमात्मा का अर्थ भी यही है कि वह सबसे परे है। वहाँ तक हमारी पहुँच नहीं है। लेकिन एक तरह से है भी। उसका ज्ञान अगर हम चाहते हैं तो वह हमारे छोटे दिमाग में समा नहीं सकता। वह हमारी बुद्धि से परे चीज है, लेकिन उसका प्रेम अगर हम चाहते हैं तो वह हमको मिल सकता है, उसको हम पहचान सकते है। लड़का होता है वह माता की शक्ति क्या जाने? उसका ज्ञान क्या जाने? लेकिन माता के प्रेम को तो वह जानता है, पहचानता है। प्रेम को पहचानने के लिए कोई खास विद्या की जरूरत नहीं रहती। एक जानवर भी प्रेम को पहचानता है। ओर जहाँ प्रेम है, वहाँ परमेश्वर है। परमेश्वर की सर्वोत्तम निशानी अगर है तो प्रेम है। इस दृष्टि से उसके पास हमारी पहुँच है, ज्ञान दृष्टि से नहीं। और हम ज्ञान चाहते भी नहीं। हम प्रेम ही चाहते हैं और उसकी कृपा चाहते है।

इस तरह से जब हममें से छोटे-बड़े सब तक साथ हो जाते है तो हम सबको एक ऐसी तालीम मिलती है नम्रता की कि हमारे जो भेद है, वे वहाँ रहते ही नहीं। व्यवहार में जो भेद योग्य ही कहलायेंगे। यहाँ मिथ्या ऊँच-नीच भाव आदि अयोग्य भेदों को हम छोड़ दें- जैसे गुरु है, उसकी इज्जत, प्रतिष्ठा विद्यार्थी के मन में होनी चाहिए। विद्यार्थी को यह जरूर महसूस होना चाहिये कि यह हमारा मार्गदर्शक है, नेता है, पूज्य है, हम इसके पैरों के सेवक है। इस तरह का भेद अवश्य योग्य है। लेकिन उस भेद को भी हम भूलें, ऐसी कोई जगह होनी चाहिए। सिवा परमेश्वर के ऐसी जगह नहीं मिल सकती। तो उस जगह पर पहुँचना और छोटे-बड़े मिलकर उसके सामने झुक जाना, एक बड़ी अच्छी नम्रता की तालीम है।

ये कुछ विचार यहाँ मैंने इसलिए कहे कि अब मैं कल यहाँ से जा रहा हूँ और जितने दिन यहाँ रहा उतने समय में लड़कियों के कुछ वर्ग भी लिए। लेकिन उनके साथ भोजनादि नहीं हुआ है। फिर भी हमने महसूस यह किया है कि यह जो प्रार्थना का भोजन, यह जो अमृत, हम सबने साथ मिलकर चखा है, वह बहुत मीठा लगा है, उसकी मधुरता और भी बढ़ सकती है अगर हम चित्त के धोने का निरन्तर प्रयत्न करें और शुद्ध चित्त लेकर यहाँ आ जायं। प्रार्थना की जो बाह्य व्यवस्था है वह भी हम ठीक से करें तो मधुरता और भी बढ़ सकती है और वह निरन्तर बढ़ ही सकती है, क्योंकि चित्त की शुद्धि का कोई अन्त ही नहीं है। कपड़े की शुद्धि का तो अन्त है। हम जानते है कि सफेद कपड़ा एक हद तक साफ हो गया तो उसके आगे वह फट ही जायगा। उसकी स्वच्छता की सीमा आ गई। वैसी चित्त की स्वच्छता की कोई सीमा नहीं।


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