आत्म शान्ति का मूल केन्द्र

June 1954

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(श्री विजय लक्ष्मी सिन्हा, इलाहाबाद)

“इस चंचल भवसागर में शान्ति कहाँ?” ऐसी लोगों की धारणा है परन्तु ऐसा नहीं सोचना चाहिये। इस समुद्र की अभिलाषा रूपी लहरें चंचल हैं। तथापि समुद्र गम्भीर है। यदि हम हृदय को शान्त कर लें तो हमें शान्ति प्राप्त हो सकती है। बहुधा लोग यह सोचते है कि घर-बार छोड़दो वन में तपस्या करो तो शान्ति प्राप्त हो सकती है किन्तु ऐसा नहीं है। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि घर के माया जाल छोड़ पर भी शान्ति नहीं मिलती। ज्ञानवान हो गये, संसार से विरक्ति हो गयी किन्तु हृदय में चैन नहीं शान्ति नहीं।

जो लोग संसार में ही रहना चाहते है, गृहस्थी का बोझ उठाये हुए हैं वे साँसारिक विषयों की प्राप्ति में शान्ति की प्राप्ति समझते है। शान्ति को प्राप्त करने के लिए विविध व्यक्तियों तथा वस्तुओं से मुहब्बत जोड़ते है इतने पर भी शान्ति नहीं मिलती। धन की आवश्यकता का अनुभव करते है। धन उनके पास हो वह उससे भी अधिक धन की इच्छा करते है इस प्रकार वे विविध क्षेत्रों में ढूंढ़ते हुए भी शान्ति की प्राप्ति नहीं कर पाते।

यदि शान्ति धन में, भोग-विलास में अर्थात् साँसारिक वस्तुओं में नहीं है और न तो संसार से विरक्ति एवं वैराग्य में ही है तो शान्ति है कहाँ? अरे ए, शान्ति के इच्छुक यदि शान्ति की अभिलाषा करते हो तो तनिक दूसरी ओर भी दृष्टि डालो। देखो शान्ति तो अपने हृदय में, अपने कर्म एवं कर्तव्य में विराजमान है।

किसका कर्तव्य क्या है? इसका भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिये लेखा तो तैयार नहीं किया जा सकता परन्तु यह तो निश्चय ही है कि मानव जन्म में प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी कर्त्तव्य होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। हाँ, साधारण तौर पर यह बतलाया जा सकता है कि कर्त्तव्य क्या है। जो कार्य करणीय है वही कर्तव्य है किसी का भला करना, परोपकार करना, दया करना, क्षमा करना, यदि गृहस्थ है तो अपने परिवार को समुन्नत बनाना, सदस्यों का भली प्रकार से भरण-पोषण करना सबकी सेवा करना अपने समाज एवं राष्ट्र की उन्नति में सहयोग देना सभी करणीय है तथा सभी कर्त्तव्य हैं। इस विश्व में समय-समय में नए-नए कर्त्तव्य उपस्थित होते रहते हैं यथा जब मनुष्य बालक रहता है तो उसका कर्त्तव्य माता-पिता एवं अपने गुरु की आज्ञा का पालन करना श्रेष्ठ कर्त्तव्य है, आगे चलकर स्त्री-पुत्र की रक्षा करना, उनका भरण-पोषण करना तथा समाज एवं राष्ट्र की उन्नति करना कर्त्तव्य हो जाता है और ईश्वरी वासना तो सदैव ही एक कर्त्तव्य रहता है।

यदि कोई व्यक्ति यह सोचे कि संसार के अन्य कार्यों को करते हुए ईश्वरी वासना नहीं हो सकती तो यह भूल है। यह कर्त्तव्य तो जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त तक बना रहता है। सब कर्त्तव्यों का पालन करते हुए इस कर्त्तव्य का भी पालन अवश्य करना चाहिए। ईश्वरी वासना का अर्थ है हृदय से ईश्वर का चिन्तन करना। संसार से विरक्ति ही ईश्वरी वासना नहीं है।

संसार में अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए हुए ईश्वर का चिन्तन भी करने से सच्ची शान्ति प्राप्ति हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों का पालन न करे, अपने आश्रितों की रक्षा एवं देख-रेख न करे तथा घर-बार छोड़कर दूर घन-घोर जंगल में जाकर तपस्या करे तो उसे सच्ची शाँति का अनुभव नहीं हो सकता, भले ही वह ज्ञानी हो जाय, ब्रह्म को समझ ले किन्तु उसे सच्ची शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अदनिश भोग-विलास एवं सुखों में निरत रहता है और ईश्वर का ध्यान नाममात्र को भी नहीं लेता, वह समझता ही नहीं कि प्रभु का ध्यान एवं मनन कुछ क्षण तक करना भी उसका कर्त्तव्य है तो सच्ची शान्ति से उसे भी अवश्य ही वंचित रहना पड़ेगा।

उपरोक्त बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सच्ची शान्ति स्व कर्त्तव्य पालन से ही होती है, हमें शान्ति ढूंढ़ने के लिए कही जानी नहीं पड़ता वरन् स्व कर्त्तव्य पालन से वह स्वयं चली जाती है जिस प्रकार मृग के अन्दर ही कस्तूरी रहती है और हिरन उसकी सुगन्धि के कारण चारों ओर वन में उसे ढूंढ़ता है वह नहीं जानता कि कस्तूरी तो उसी के नाभि के अन्दर उपस्थित है, उसी प्रकार हिरन रूपी व्यक्ति भी कस्तूरी रूपी शक्ति को पाने की अभिलाषा से त्याग एवं विरक्ति अथवा साँसारिक विषय रूप वन में ढूंढ़ता है। पर वस्तुतः वह उसके अन्दर ही है।

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विवेक प्रश्नावली।

होय भले चाकरन ते, भले धनी को काम। ज्यों अंगद हनुमान ते, सीता पाई राम॥

बिना कहेउ सतपुरुष, पर की पूरें आस। कौन कहते है सूर को, घर-घर करत प्रकाश॥

कछुकहि नीच न छेड़िये, भलों न वाकोसंग पाथर डारे कीच में, उछरि बिगारे अंग॥

सज्जन को दुख ही दिये, दुर्जन पूरे आस। जैसे चन्दन को घिसे, सुन्दर देत सुवास॥

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