युग परिवर्तनकारी शिक्षा का स्थायी आयोजन

June 1954

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ता. 02 जून से 16 जून तक 15 दिन के लिये सरस्वती यज्ञ की योजना पूर्णतया प्रस्तुत हो चुकी है। इस शिक्षा सत्र की उपयोगिता आवश्यकता एवं योजना को सर्वत्र बहुत पसन्द किया गया है। देश भर में विचार शील व्यक्तियों ने सफलता एवं शुभ कामना के सन्देश भेजे है।

इस शिक्षा शिविर में भर्ती होने के लिए आश्चर्य जनक संख्या में हिन्दुस्तान के कोने कोने से छात्रों के प्रार्थना पत्र आये है। पर इस गर्मी की ऋतु में ठीक प्रकार ठहर सकने के लायक गायत्री तपोभूमि में स्थान न होने के कारण 60 छात्रों को ही स्वीकृति दी जा सकी। इन छात्रों में अधिकाँश सुशिक्षित है।

यह शिक्षा सत्र अपने ढंग का अनोखा है। व्यक्ति के व्यक्तिगत सद्गुण, दृष्टिकोण, व्यक्तित्व, स्वास्थ्य एवं आचरण को उत्तम बनाने के लिए व्यावहारिक शिक्षा की ऐसे आयोजनों की वस्तुतः आज इतनी अधिक आवश्यकता है जितनी पहले कभी न थी। आज शिक्षा, भौतिक सामग्री, चतुरता, चिकित्सा आदि की उन्नति के लिये घुड़दौड़ मची हुई है। नाना प्रकार के सामाजिक एवं राष्ट्रीय आयोजन हो रहे है। पर मनुष्य का आत्मिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य एवं शारीरिक स्वास्थ्य दिन दिन दुर्बल होता जा रहा है। आन्तरिक दुर्बलता के बढ़ते जाने के कारण वास्तविक स्थिति खोखली हो रही है। फलस्वरूप सर्वत्र अशान्ति, कलह, विद्वेष, छल, कपट, बीमारी, परेशानी गरीबी, विलासिता, दुर्भावना आदि बुराइयाँ बढ़ती जाती है। ओछे और छोटे आदमियों से कोई समाज एवं राष्ट्र उन्नतिशील नहीं हो सकता। हमारा वास्तविक विकास भी इसी कारण सर्वथा अवरुद्ध हो रहा है। जिस भारत भूमि में घर घर सत्पुरुष, महापुरुष एवं देव पुरुष उत्पन्न होते थे, वहाँ आज मानवीय गुणों से युक्त मनुष्यों के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं। इसका कारण उसी सच्ची शिक्षा का अभाव ही है जो मनुष्य के अन्दर छिपी हुई महत्ता को विकसित करने में समर्थ होती है।

मनुष्य जीवन को सफल, सुविकसित, स्वस्थ एवं सुख शाँतिमय बनाने वाला दृष्टिकोण प्रदान करने वाली शिक्षा का व्यवस्थित आयोजन ही हमारी अनेकों समस्याओं को हल करने में, उलझनों को सुलझाने में समर्थ हो सकता है। इसलिए गायत्री तपोभूमि द्वारा इस प्रकार की शिक्षा का ठोस कार्यक्रम बनाने का निश्चय किया गया है। 2 जून से आरम्भ होने वाला यह 15 दिवसीय सत्र उसका श्रीगणेश मात्र है। भविष्य में इस प्रकार की शिक्षा को यहाँ पर एक साँस्कृतिक विद्यापीठ के रूप में यहाँ स्थायी कर देने का विचार किया गया है। जितने अधिक छात्रों के प्रार्थना पत्र इस बार आये है उसे देखते हुए ऐसा अनुभव किया जाता है कि लोग इस प्रकार के साँस्कृतिक शिक्षण की आवश्यकता अनुभव करते है इस साँस्कृतिक आवश्यकता एवं आध्यात्मिक पिपासा को पूर्ण करने में उपेक्षा करना हमारे लिए एक धार्मिक अपराध से कम न होगा। जो लोग समाज की इस आत्मिक पिपासा को तृप्त करे सकते है यदि वे उससे मुख मोड़ें या आँख चुरावें तो यह यह बहुत ही बुरी बात होगी। हम लोगों ने अपने इस परम पुनीत कर्त्तव्य का पालन करने का निश्चय किया है।

इस बार अनेकों छात्रों के प्रार्थना पत्र अस्वीकृत करने पड़े इसका हमें खेद है। पर 60 से अधिक छात्रों के रहने और शिक्षा दीक्षा के योग्य, समुचित स्थान एवं व्यवस्था न होने के कारण सबको बुला सकने में हम असमर्थ ही थे। आगे से ऐसे शिविर बराबर चलाते रहने का विचार किया गया है। हर महीने 15 दिन की शिक्षा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक रहा करेगी। स्कूल खुल जाने से स्कूली छात्रों को सम्भव है उनमें आने की अधिक सुविधा न हो पर इस शिक्षण को उन्हीं तक सीमित नहीं रखा गया है। 16 वर्ष की आयु से अधिक छोटे, बिलकुल अशिक्षित, रोग ग्रस्त, व्यसनी, दुर्गुण, उद्दण्ड, अवज्ञाकारी लोगों को छोड़कर अन्य सभी आयु और वर्ग के छात्र इसमें शिक्षा पा सकेंगे। हर बार एक छोटी सीमित संख्या में ही छात्र लिये जावेंगे ताकि उनकी व्यक्तिगत समस्याओं को समझने तथा सुलझाने पर अधिक ध्यान तथा समय देना सम्भव हो सके।

सम्मिलित भोजन बनवाने पर प्रायः 1) प्रतिदिन दोनों समय का खर्च आता है। जो लोग इसमें भी किफायत करना चाहें वे अपने हाथों बनाकर और भी कम खर्च में काम चला सकते है। साधारणतः यह अपेक्षा की जाती है कि छात्रों को अपने भोजन का व्यय स्वयं ही उठाना चाहिये। पर जो छात्र नितान्त असमर्थ होंगे उनके प्रार्थना पत्रों पर विचार करके तपोभूमि की ओर से भी भोजन दिया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त शिक्षा आदि की कोई फीस नहीं है।

शरीर को स्वस्थ रखना, वाणी से मधुर बोलना, मन में उचित विचार रखना, दूसरों के साथ सद्व्यवहार, परिश्रम में उत्साह, स्वच्छता और सादगी व्यसनों से घृणा, बड़ों का सम्मान, गुरुजनों का अनुशासन, शिष्टाचार का पालन, व्यवहार में चातुर्य विपत्ति में धैर्य, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, अनिष्टों से सतर्कता, उन्नति का मार्ग, धार्मिक प्रकृति, कर्त्तव्य, शिष्टा, सज्जनों से मिलना, अध्ययन में प्रवृत्ति आदि उत्तम प्रवृत्तियों को जागृत करके सुव्यवस्थित बनाने, जीवन को उत्तम प्रकार से जीने के लिए उपरोक्त विषयों को सैद्धांतिक रूप से तथा व्यावहारिक रूप छात्रों के मस्तिष्क तथा हृदय में बिठाने का शिक्षण होगा। इन्हीं विषयों की पुस्तकों का पाठ्यक्रम रहेगा। प्रवचन, शंका-समाधान, प्रश्नोत्तर तथा स्वयं विचारने और निष्कर्ष निकालने की पद्धति से शिक्षा दी जायगी, प्रतिदिन निर्धारित विषयों को कार्य रूप में भी परिणत करना पड़ेगा। प्रतिदिन के कार्यों के आधार पर, शिक्षा हृदयंगम करने या न करने की व्यावहारिक परीक्षा के आधार पर शिक्षार्थी उत्तीर्ण होंगे। उत्तीर्ण छात्रों को बहुत ही आकर्षक बड़े साइज का तिरंगा छपा हुआ इस शिक्षण संस्थान-साँस्कृतिक विश्व विद्यापीठ- का प्रमाण पत्र दिया जायगा। गायत्री उपासना तथा यज्ञ में सम्मिलित होना सभी के लिए अनिवार्य रहेगा। कुछ और भी ऐसे आध्यात्मिक उपचार किये जाया करेंगे जिनसे शिक्षार्थियों के बौद्धिक विकास तथा आत्मोन्नति में सहायता मिले।

अगला शिक्षा सत्र सम्भवतः आषाढ़ सुदी प्रतिपदा ता. 1 जुलाई 54 से लेकर आषाढ़ सदी पूर्णिमा ता. 15 जुलाई तक पन्द्रह दिन का होगा। जिन्हें इस जून के शिक्षा सत्र में स्वीकृति नहीं मिल सकी है, उन्हें यदि सुविधा हो तो वे उस अगले सत्र में आने के लिए स्वीकृति प्राप्त कर सकते है।

जीवन जीने की विद्या का व्यावहारिक शिक्षण कक्षा ही अभी चालू की जा रही है। पर निकट भविष्य में ही संस्कृत, वेदपाठ, यज्ञ, षोडश संस्कार आदि की शिक्षा तथा सम्भव हो सकी तो शिल्प शिक्षा चिकित्सा शिक्षण, सत्साहित्य निर्माण शिक्षा, का भी प्रायोजन होगा। यह सब कक्षाएँ क्रमशः खुलती चलेंगी। और सम्भव हो सका तो देश भर में स्थान स्थान पर ऐसे शिक्षण शिविर करने का आयोजन किया जायगा। मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने वाली प्रवृत्तियों का विकास करना ही सार्वभौम विश्व संस्कृति है। इस संस्कृति को सुविकसित करने को व्यवस्थित शिक्षा पद्धति का एक क्रमबद्ध रूप दिया जा रहा है। इसका नामकरण “साँस्कृतिक विश्व विद्यापीठ” कर दिया गया है। गायत्री तपोभूमि का यह विद्यालय उस नीति, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, आचार विचार एवं महान सन्देश को विश्वव्यापी बनाने का योजनाबद्ध कार्य करेगा जो गायत्री माता के 24 अक्षरों में बीज रूप से सन्निहित है और जिनके ऊपर समस्त मानव जाति एवं संसार का भविष्य निर्भर है।

अखण्ड ज्योति का यह अंक जिन दिनों पाठकों के हाथ में पहुँचेगा, उन्हीं दिनों साँस्कृतिक विश्व विद्यापीठ का वह प्रथम सत्र का लगभग 60 छात्रों की शिक्षा आयोजन के साथ आरम्भ हो रहा होगा। देखने में यह कार्य छोटा सा है पर राष्ट्र निर्माण के महत्वपूर्ण बीजाँकुर उसमें छिपे हैं। आज कौन जानता है कि माता इस छोटे से माध्यम द्वारा कितना बड़ा कार्य सम्पादन करने का आयोजन कर रही है। इस प्रकार की योजनाओं को सफल बनाने के लिए अनेक प्रकाशवान आत्माओं को जीवनों की आहुतियाँ अपेक्षित होती है। आज गायत्री तपोभूमि तथा उसके कार्यकर्त्ताओं की शक्ति नगण्य है पर कल जब अनेक जागृत आत्माएँ इस युग परिवर्तनकारी महान ज्ञान यज्ञ में अपनी परम निस्वार्थ आहुतियाँ अर्पण करेंगी तो निश्चित रूप से कार्य क्षमता बहुत बढ़ जायेगी और वह महान कार्य सफलता पूर्वक सम्पादित हो सकेगा। इस अंक के प्रारम्भिक पृष्ठों में इन्हीं प्रयोजनों के लिए नरमेध यज्ञ की पुकार की गई है। नरमेध यज्ञ की आवश्यकता सुनकर दधीच जैसे ऋषियों की सन्तान का रक्त ठण्डा पड़ जाय ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे आत्म बलिदानी नरमेध के ‘बलि पशुओं’ के रक्त के गारे और हड्डियों की ईंटों से ही हमारा साँस्कृतिक पुनरुत्थान होगा। यह पुनरुत्थान- युग परिवर्तन का एक विशाल आयोजन है जिसके द्वारा संसार की वर्तमान अशान्तियों के स्थान पर सच्ची सुख शान्ति की, सच्ची समृद्धि और सद्भावनाओं की स्थापना सम्भव हो सकेगी। आइए, हम तुच्छ स्वार्थी की कीचड़ से ऊपर उठकर माता की इच्छा और युग की पुकार को पूर्ण करने में संलग्न हों।


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