राष्ट्र-निमार्ण और शिक्षा

October 1953

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(प्रो. लाल जी राम शुक्ल)

कोई राष्ट्र तभी तक सुदृढ़ रहता है जब तक उसके सम्बन्धी करण करने वाले व्यक्ति अपना कार्य भली प्रकार से करते हैं। जब राष्ट्र में उन लोगों की कमी हो जाती है जो समाज के एक व्यक्ति का सम्बन्ध दूसरे व्यक्ति से जोड़ते हैं तो समाज निर्बल और छिन्न-भिन्न हो जाता है। अपने व्यवसाय के विषय में चिन्ता करने वाले व्यक्ति चाहे वे किसी कार्य के करने में कितने ही कुशल क्यों न हों समाज और राष्ट्र को दृढ़ नहीं बनाते। ऐसे लोग समाज के उपयोगी व्यक्ति अवश्य हैं, वे समाज का धन बढ़ाते और समाज का भौतिक बल बढ़ाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर ऐसे लोगों की शक्ति को समाजोपयोगी कार्यों में लगाया जा सकता है। उनके कमाये हुए धन को समाज के काम में लाया जा सकता है, परन्तु ऐसे लोगों में स्वयं यह क्षमता नहीं होती कि वे अपनी आत्मा-स्फूर्ति से कोई सामाजिक कार्य कर सकें। जो लोग अपने ही लिए जीते हैं वे बाध्य होकर समाज की भलाई का काम करते हैं। ऐसा करने में उन्हें उस सन्तोष को अनुभूति नहीं होती जो सामाजिक भावों से भरे हुए व्यक्ति को समाज के कार्य करने से प्राप्त होता हैं। इसके कारण जब कभी ऐसे लोग अपने आप छोड़ दिये जाते हैं तो वे अपने सामाजिक कार्य को भी अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध का साधन बना लेते हैं। राष्ट्र में अनेक प्रकार के भ्रष्टाचार का यही कारण होता है। वर्तमान काल में जो हम भारतवर्ष में देशव्यापी भ्रष्टाचार देखते हैं उसका प्रधान कारण यहाँ है कि हमारे राष्ट्र में उन लोगों की कमी है जो राष्ट्रीयता के हेतुओं को लेकर किसी कार्य में हाथ डालते हैं। सामाजिकता के भावों की कमी के कारण ही हमारा देश सदियों गुलाम रहा और इन्हीं भावों की कमी के कारण अर्थात् राष्ट्र के लिए जीने वाले लोगों की कमी के कारण आज हमारे समाज में अनेक प्रकार के भ्रष्टाचार फैले हुए हैं। किसी भी राष्ट्र की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए वह आवश्यक है कि समाज में ऐसे लोगों की वृद्धि हो जो व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर नहीं वरन् दूसरों की सुख-वृद्धि के हेतु अनेक प्रकार के कामों में हाथ डालते हैं।

राष्ट्र में इस प्रकार की सामाजिकता का विकास शिक्षा के द्वारा किया जा सकता है। शिक्षा एक ओर व्यक्ति के आर्थिक ओर पारिवारिक जीवन को सम्पूर्ण बनाती है और दूसरी और वह मनुष्य में सामाजिकता के भावों की वृद्धि करती है। यदि कोई शिक्षा प्रणाली केवल व्यक्ति की आर्थिक समस्याओं को हल करती है अथवा केवल व्यक्ति में चिन्ता की क्षमता बढ़ाती है तो हम ऐसी शिक्षा प्रणाली को सन्तोष जनक शिक्षा-प्रणाली नहीं कहेंगे। यदि व्यक्तिगत जीवन के सुखी बनाने के साधनों को उपस्थित करने वाली शिक्षा ही देश के बालकों और नवयुवकों को दी जावे तो ऐसे बालक कुछ समय के लिए धनी और समृद्धिशाली नागरिक बन जायेंगे, परन्तु सामाजिकता के भावों की कमी के कारण वे अपने वैभव को अधिक दिन तक स्थिर न रख सकेंगे। धनी लोगों में जब सामाजिकता के भावों का अभाव रहता है तो वे आपस में मिलकर निर्धन लोगों को लूटने की मनोवृत्ति से अपने आपकी रक्षा नहीं कर सकते। जिस प्रकार मोटी भेड़ें और बकरियाँ भूखे भेड़िया को ही अपनी उपस्थिति से ही निमन्त्रण देती हैं उसी प्रकार सामाजिकता के भावों से वंचित धनी लोग बाहर के लोगों को उन्हें लूट ले जाने का निमन्त्रण देते हैं।

हमारी आधुनिक शिक्षा-प्रणाली में बालकों को व्यक्तिगत सुखी जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाने की ओर ही विशेष ध्यान दिया गया है। उनसे सामाजिक भावों की वृद्धि की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। जो शिक्षा हमारे बालक बड़े से बड़े विद्यालयों में पाते हैं उससे वे यह सीख जाते हैं कि वे कैसे बड़े इंजीनियर, डॉक्टर कारीगर अथवा प्रोफेसर बन जायें परन्तु वह यह नहीं सीखते कि वे अपनी सभी योग्यताओं को किस प्रकार समाज को अर्पित करें। अपने काम का समाज के ऊपर क्या प्रभाव पड़ेगा इस विचार के अभाव में हमारे शिक्षित युवक समाज के सच्चे सेवक अथवा उसके पोषक बन कर समाज के शोषक डाकू अशिक्षित डाकू से अधिक घातक होता है उसी प्रकार हमारे सामान्य विद्यालयों की उच्च शिक्षा-प्राप्त किये हुए नवयुवक समाज की अशिक्षित लोगों की अपेक्षा हमारे समाज के लिए अधिक घातक बन जाते हैं। यदि हम उपस्थिति को बदलना चाहते हैं तो हमें अपनी शिक्षा-प्रणाली में सदा यह ध्यान में रखना होगा कि हम विद्यार्थी को न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए सुयोग्य बनावें वरन् उनमें उन सामाजिक भावों का भी विकास करें जिससे समाज दृढ़ और सुचारु रूप से संचालित हो।

मनुष्य स्वनिर्मित प्राणी

मनुष्य के कोई गुण जन्मजात नहीं होते ये अभ्यास द्वारा मनुष्य में आते हैं। यूरोप के प्रसिद्ध दार्शनिक काँट महाशय के इस कथन में मौलिक सत्य है कि मनुष्य स्वनिर्मित प्राणी है। इस कथन का अभिप्राय यही है कि मनुष्य चाहे तो अपने आपको स्वार्थी और निकम्मा व्यक्ति बना सकता है अथवा वह योग्य अभ्यास के द्वारा अपने आपको दैवी पुरुष बना सकता है। सामाजिकता के भावों वाला व्यक्ति दैवी पुरुष है और यह दैविकता मनुष्य में अभ्यास से आती है। संसार के सुयोग्य शिक्षालय उनके विद्यार्थियों द्वारा ऐसे अभ्यास को कराते हैं जिससे उनमें दैवी गुणों अर्थात् सामाजिक भावों का विकास हो। इन सामाजिकता के भावों के विकास के लिए राष्ट्र के शिक्षा महारथियों को सुयोग्य योजनाएँ बनानी पड़ती हैं। जो बालक जितनी ही अधिक आनन्द के साथ अपना समय बाल समाज में व्यतीत करता है उसके कामों में भाग लेता है, अपने साथियों के सुख-दुख के लिए अपने छोटे-छोटे स्वार्थों का त्याग करता है, अपने से बड़े बालकों के अनुशासनों को मानता है, अपने से छोटे साथियों की रक्षा के लिए सदा सचेष्ट रहता है उन्हें सुखी बनाने के लिये अनेक प्रकार की योजनाएँ बनाता रहता है और समय पड़ने पर बाल। समाज के साहस के कार्यों में नेतृत्व भी करता है, वह बड़ा होने पर अपना जीवन स्वार्थ परायणता के व्यवसायों में व्यतीत नहीं करता। जब तक यह दूसरों के जीवन को सुखी न बनावे वह अपने जीवन को सारहीन मानता है ऐसा ही बालक गाँव का, परगने का, जिले, प्रान्त अथवा देश का अगुवा बनता है, वह समाज के साधारण लोगों को अपने आचरण से प्रभावित करता है और उन्हें सद्पथ पर चलने का निर्देश देता है।

विचारों का महत्व

मनुष्य के जीवन के विकास में उसके प्रतिदिन के विचार, भाव और क्रियाएँ बड़े महत्व का स्थान रखते हैं। बालक जो कुछ प्रतिदिन सुनता, समझता, बोलता और करता है। उससे उसका मन बनता है। बालक के आस-पास के वातावरण का प्रभाव उसके जीवन को विशेष ओर मोड़ने में भारी महत्व रखता है। बालक जैसे वातावरण में रहता है उसी प्रकार का उसका स्वभाव बन जाता है। पूँजीवादी विचारों के वातावरण में रहने वाला बालक स्वयं एक धनी व्यक्ति बनने में अपने जीवन की पूर्णता देखता है। इसी प्रकार जो बालक नित्यप्रति देश के परोपकारी समाज सेवकों के त्याग की कहानियाँ सुनता है। उनके दर्शन करता है, उनके उपदेशों को सुनता है वह अपने जीवन का आदर्श समाज सेवा और समाज के लिए अपना सर्वस्व करना बना लेता है। जब तक वह ऐसे कामों में नहीं लग जाता जिससे समाज का वास्तविक लाभ हो वह अपने आपमें आत्म सन्तोष की अनुभूति नहीं करता।

छोटे बालकों में सामाजिकता की वृद्धि उनके खेलों के द्वारा की जा सकती है। बालक खेल में ही बड़े महत्व के सामाजिक गुणों को प्राप्त करते हैं। बालक के खेल जितने ही अधिक सामाजिक हों उतना ही अच्छा है। खेल के कार्य में जो आनन्द की अनुभूति बालक को होती हैं वह खेल के समय के संस्कारों को स्थायी बना देती है और जब ये संस्कार सामाजिक क्रियाओं के होते हैं तो वे बालक के स्वभाव को सहज में ही समाज प्रेमी बना देते हैं। क्योंकि बिना समाज के खेल की क्रियाएँ सम्भव नहीं। जब इस प्रकार के खेल से संस्कार बालक के अचेतन मन में बैठ जाते हैं तो बालक स्वभावतः ही सामाजिक कार्यों में अपनी पूर्णता की खोज करने लगता है ऐसा व्यक्ति आगे चल कर सामाजिक नागरिक बनता है।

बालकों के द्वारा अभिनय करना, वाक् प्रतियोगिता में भाग लिवाना और समाज-सेवी लोगों की जयन्ती मनाना, उनमें सामाजिक भावों को दृढ़ करने के उपाय हैं। इनके अतिरिक्त बालकों के प्रतिदिन के आचरणों को देखना होगा कि वे कहाँ तक दूसरों के लाभ के लिए स्वार्थ का त्याग करते हैं और अपने आपको कठिन परिस्थिति में डालते हैं।

शिक्षक की योग्यता

बालकों को सामाजिक कार्य में प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक है कि स्वयं शिक्षक प्रबल सामाजिक भावों का व्यक्ति हो। पुराने समय में समाज की शिक्षा ऐसे ही लोगों के हाथ में होती थी जिसका व्यक्तिगत जीवन बिलकुल ही चिन्तारहित रहता था। जो अपनी लाभ-हानि की बातों को बहुत कम सोचा करते थे। और जो सदा परोपकार में ही अपना सच्चा कल्याण देखते थे। भारतवर्ष में समाज के शिक्षक भिक्षु, संन्यासी और ऐसे ब्राह्मण होते थे जिन्हें धन संचय की चिन्ता नहीं रहती थी। यूरोप में भी जनता के शिक्षक ईसाई, पादरी और भिक्षु होते थे। आधुनिक काल में संसार के सभी शिक्षालयों में ऐसे शिक्षकों का अभाव है। जब से विद्या प्राप्ति का प्रधान हेतु धनोपार्जन हो गया है तब से शिक्षकों की मनोवृत्ति शिक्षा के द्वारा धन कमाने की बन गई है। यही कारण है कि न केवल भारत में वरन् संसार के सभी देशों में सच्चे सामाजिक भावों की कमी पायी जाती है।

हम विश्वास करते हैं कि शिक्षा ही स्वयं उन साधनों को प्रस्तुत करेगी जिनसे विकृत शिक्षा के दोष हटेंगे और मनुष्य में उन सद्गुणों का आविर्भाव होगा जिससे मानव समाज सुखी और संपन्न बनेगा।


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