ईश्वरीय न्याय अटल है।

October 1953

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(महात्मा जेम्स सेलन)

कुकर्मों के लिये दण्ड पाना उतना ही कल्याणमय है, जितना सुकर्मों के लिये सुख पाना। यदि हम अपनी मूर्खता और अपने पाप के लिए दण्ड न पावें तो हम सुरक्षित नहीं रह सकते। हम उच्छृंखल हो जायं। और उस समय हम अपने शुभ तथा ज्ञानमय कर्म के फलों से भी हाथ धो बैठेंगे। तब नृशंसता का साम्राज्य फैल जायगा। वास्तव में ईश्वरीय ‘नियम’ न्याय और दया की पद्धति है।

निस्संदेह, श्रेष्ठ नियम तो अनन्त दया की निधि है। इसका कार्य अविचल और उपभोग अपरिमित है। यह वही अनन्य प्रेम है जो सदैव पूर्ण रहता है और सर्वकाल में प्रवाहित होता रहता है।” क्रिश्चियन इसी का गान किया करते हैं। बुद्ध धर्म के सिद्धान्तों में इसी को “अपरिमित दया” की संज्ञा दी गयी है। जो नियम हमें दण्ड देता है, वही हमारी रक्षा भी करता है।

जब मनुष्य अज्ञानता से अपना पतन करना चाहता है, तब वह अपना प्रेम-प्रेरित कर- जो हमें दुःखद प्रतीत होता है-रक्षार्थ बढ़ा देता है। हमारे प्रत्येक दुःख हमें दैवी-प्रकाश की ओर अग्रसर करते हैं। हमारे प्रत्येक सुख ईश्वरीय नियम की महत्ता का गुण गान करते हैं और हमें बताते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने पर हम कितने उच्चतम आनन्द के उत्तराधिकारी होंगे। अनुभव ही उन्नति की सीढ़ी है। कुछ अंश तक दुःख ही हमारे अनुभव का कारण होता है। जिस समय हमारा हृदय प्रेम से द्रवीभूत हो जाता है- उस समय इसके प्रत्येक आश्चर्यजनक मंगल-कार्य में प्रेम ही का व्यवहार दिखाई पड़ता है। ज्ञान-प्राप्त करते ही शान्ति की प्राप्ति निश्चित हो जाती है।

वस्तुओं के सर्वश्रेष्ठ नियम-क्रम में हम कोई परिवर्तन नहीं कर सकते। परन्तु उस श्रेष्ठ को भली-भाँति बुद्धिगम्य करने के लिए और उसकी आभा से प्रभावित होने के लिए हम अपने की मोड़ सकते हैं। उच्चकोटि की वस्तु का ह्रास करना महामूर्खता है। किन्तु तुच्छ वस्तु को उच्च आदर्श तक पहुँचा देना ज्ञान की चरम सीमा है। विश्व-ब्रह्माण्ड के दिखलाई देने वाली वस्तुओं के रचनाक्रम पर शंकित नहीं होते, वे संसार को सब तरह से पूर्ण पाते हैं। उनके लिए यह, असम्बद्ध वस्तु-खण्डों का एक ढेर नहीं है। वे सर्वत्र स्थायी आनन्द और दैवी शान्ति ही का दर्शन करते हैं।

अपवित्र वासनाओं में फँसा हुआ मूर्ख बन्दी, भले ही चिल्लाया करे “ऐ प्रेमी, कितना सुन्दर होता यदि हम और तुम विश्वकर्त्ता से मिलकर कूट-नीति का प्रयोग कर सकते और वस्तुओं के दुःखद रचनाक्रम को खण्डित करके अपनी इच्छानुसार उनकी रचना फिर से करते।’ इस प्रकार इच्छा रहती है भोग-लम्पटों की जो निन्दित भोग-विलासों से अपनी तृप्ति करके उसके स्वाभाविक दुःखद परिणामों से बचना चाहते हैं। ऐसे ही लोग संसार की ‘वस्तुओं को दुःखदायी रचना के रूप में देखा करते हैं। वे संसार को अपनी वासना-तृप्ति के लिये एक साधन-मात्र बनाना चाहते हैं। उन्हें उच्छृंखलता प्रिय है, नियम नहीं। किन्तु ज्ञानी अपनी इच्छा और वाँछना को ईश्वरीय नियम की ओर झुकाता है। वह भूखण्ड के अपार विस्तार को प्रकाशमय-पूर्णता के रूप में देखता है।

बुद्ध भगवान विश्व के ‘नैतिक-नियम’ को सदैव ‘कल्याण-मय’ कहा करते थे। और वास्तव में यदि कोई इसे किसी दूसरे दृष्टिकोण से देखता है तो ठीक नहीं करता। क्योंकि उससे पाप का तथा निर्दयता का लेश-मात्र भी होना असम्भव है। निर्बलों को कुचलने वाला और मूर्खों का नाश करने वाला यह वज्रवत-हृदय का कोई दानव नहीं, पर यह तो लालन-पालन करने वाला प्रेम है- दया का स्रोत है। वह निर्बल से निर्बल लोगों को भी चोट नहीं लगने देता। बलवान से बलवान लोगों की रक्षा, उनके बल के विनाशकारी प्रयोग से किया करता है। यह तो सब बुराइयों का नाशक और सब अच्छाइयों का रक्षक है। नन्हें बीज को बड़े बचाव के साथ प्रस्फुटित रहता हैं और श्वाँस मात्र से ही घोर से घोर अपराध को मिट्टी में मिला देता है। इसे देखना स्वर्ग-दर्शन है। इसे जान लेना समाधि-सुख है। इसको देखने वाले और इसे जानने वाले परम शाँति को प्राप्त कर सदैव आनन्द ही लूटा करते हैं।

यह न्याय-धर्म है, जिसे कोई विचलित नहीं कर सकता। प्रेम उसका हृदय है। शान्ति और सुन्दर आदर्श इसका ध्येय है। इसका अनुसरण करो।

आध्यात्मिक सुख कौन-कौन हैं? वे हैं-दया भ्रातृत्व प्रेम, उदारता, सुहृदयता, क्षमता, सन्तोष, शान्ति, अनन्त प्रेम तथा असीमित अनुकम्पा। ये सुख, भूखी आत्मा की ये आवश्यकताएँ प्राप्त हो सकती हैं-किन्तु उनका उचित मूल्य चुकाना होगा। इनका मूल्य है-निर्दयता, रुष्टता, निष्ठुरता, कोप, अधैर्यता, अविश्वास, कलह, घृणा और क्रूरता और इनसे उत्पन्न सुख तथा सन्तोष सबकी तिलाँजलि कर देनी पड़ेगी। धार्मिक मुद्राएँ जो स्वयं मृतक प्रतीत होती हैं- त्यागनी पड़ेंगी। इनका त्याग करते ही आपको तुरन्त इनकी धार्मिक प्रति-मूर्तियाँ प्राप्त होंगी। और तब आप अपने को आनन्द स्रोत में बदले हुये आयेंगे।

आध्यात्मिक सुख को भौतिक मूल्य पर और भौतिक सुखों को आध्यात्मिक मूल्य पर लेने की आशा करना स्वार्थपरता और मूर्खता की जड़ है। यह तो केवल विनियम और धर्म का मिश्रण करना और विनियम ही को धर्म मान लेना है। सहायता, दया तथा प्रेम क्रय नहीं किये जा सकते इनका केवल आदान-प्रदान हो सकता है। दान का मूल्य ग्रहण करने पर दान नहीं रह जाता।


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