वेदों के स्वर्ण सूत्र

October 1953

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

मा जीवेभ्य प्रमदः। अ. 8।1।7

प्राणियों की ओर से बेपरवाह मत हो।

मा प्रणाप्र पथो वयम्। अ. 13।1।59

सन्मार्ग से हम विचलित न हों।

जातवेदः पुनीहि मा। यजु. 19।39

पतित पावन प्रभु मुझे पवित्र करें।

सत्यमूचुर्नर एवा हि चक्रः।

सत्पुरुषों ने सत्य का ही प्रतिपादन किया है और वैसा ही आचरण किया है।

जानता संगमेमहि। ऋग. 5।51।15

हम ज्ञानियों की संगत में रहा करें।

मान्तः स्थुनौ अरातयः। ऋग. 10।57।1

हमारे अन्दर कंजूसी न हो।

उतो रियः पूर्णतो नोपदस्यति। ऋग. 10।117।1

दानी का धन घटता नहीं।

ईजानाः र्स्वग यन्ति लोकम्। अथर्व. 18।4।2

यज्ञ करने वाले उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।

अयज्ञियो हतवर्चा भवति। अ. 12।2।37

यज्ञहीन का तेज नष्ट हो जाता है।

अक्षैर्मादीव्यः। ऋग. 10।24।13

जुआ मत खेलो।

जाया तप्यते कितवस्य हीना। ऋग. 10।34।10

जुएबाज की स्त्री दीन-हीन होकर दुःख पाती रहती है।

प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये। अथर्व. 19।62।1

सबका कल्याण सोचो चाहे शूद्र हो चाहे आर्य।

विश्वे देवा अभि रक्षन्तु मेह। अथर्व. 5।3।4

सब विद्वान मेरी रक्षा करें।

पृणन्नापिरपृणन्तमभिष्य त। ऋग. 10।117।7

कंजूस पीछे रह जाता है, दानी आगे बढ़ जाता है।

न स सखा यो न ददाति सख्ये। ऋग. 10।117।4

वह मित्र ही क्या जो अपने मित्र को सहायता नहीं देता।

मा गृधः कस्य स्विद्धनम्। यजु. 40।1

किसी के धन को मत लो।

वयं सर्वेषु यशसः स्याम। अथ. 6।58।2

हम समस्त जीवों में यशस्वी होवें।

सुगा ऋतस्य पन्थाः। ऋग. 8।31।13

सत्य का मार्ग सुख से गमन करने योग्य सहज है।

अनागोहत्या वै भीमा। अथर्व. 10।1।29

निरपराध की हिंसा करना बड़ा भयंकर है।

मात्रतिष्टः पराँगमनाः। अथ. 8।1।9

यहाँ पर (संसार में) उदासीन मन से मत रहो।

वर्ष-13 सम्पादक - आचार्य श्रीराम शर्मा अंक-10


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: