विवेक वचनावली (Kavita)

October 1953

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गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय। बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दिया बताय॥

यह तम विष की बेलरी गुरु अमृत की खान। सीस दिये जो गुरु मिलैं तौ भी सस्ता जान॥

ऐसा कोई ना मिला सत्त नाम का मोत। तन मन सौंपे मिरग ज्यौं सुने वधिक का गीत॥

सतगुरु साँचा सूरमा नख सिख मारा पूर। बाहर घाव न दीखई भीतर चकनाचूर॥

सुख के माँथे सिले परै नाम हृदय से जाय। बलिहारी वा दुःख की पल पल नाम रटाय॥

लेने को सतनाम है देने को अनदान। तरने को आधीनता बूड़ने को अभिमान॥

दुख में सुमिरन सब करें सुख में करने न कोय। जो सुख में सुमिरन करै तो दुःख काहे को होय॥

केसन कहा बिगारिया जो मूँडौ सौ बार। मन को क्यों नहिं मूडिये जामें विषै विकार॥

कबिरा रसरी पाँव में कह सोवै सुख चैन। स्वाँस नगारा कूँच का बाजत है दिन रैन॥

कबिरा गर्व न कीजिए काल गहे कर केस। न जानौ कित मारि है क्या घर क्या परदेस॥

हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास। सब जग जरता देखि कर भये कबीर उदास॥

झूठे सुख को सुख कहैं मानत है मन मोद। जगत चबेना काल का कुछ मुख में कुछ गोद॥

पानी केरा बुदबुरा अस मानुष की जात। देखते ही छिपि जायगा ज्यों तारा परभात।

रात गवाँई सोय करि दिवस गँवायो खाय। हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाय।

आज कहैं कल्ह भजूँगा काल कहैं फिर काल। आज काल के करत ही औसर जासी जाल॥

आछे दिन पाछे गये गुरु से किया न हेत। अब पछतावा क्या करै चिड़िया चुग गई खेत॥

काल करै सो आज कर आज करै सो अब। पल में परलै होयगी बहुरि करैगा कब॥

कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय। यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखो आय॥

पाँचों नौबत बाजती होत छतीसों राग। सो मन्दिर खाली एड़ा बैठन लागे काग॥

यह तन काँचा कुम्भ है लिये फिरै था साथ। टपका लागा फूटिया कछु नहिं आया हाथ।

आये हैं सो जायँगे राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढ़ चले एक बँधे जंजीर॥

कबिरा आप ठगाइयें और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख ऊपजें और ठगे दुख होय॥

तू मत जानै बाबरे मेरा है सब कोय। पिंड प्राण से बँध रहा सो अपना नहिं कोय॥

इक दिन ऐसा हो गया कोउ काहू को नाहिं। घर की नारी को कहे तन की नारी जाँहि॥

माली भावत देखिकै कलियाँ करी पुकार। फूली फूली चुनि लिये कालि हमारी बार॥

भक्ति भाव भादों नदी सबै चली बहरा। सरिता सोइ सराहिये जेठ मास ठहराय॥

जब लगि भक्ति सकाम है तब लाग निष्फल सेव। कह कबीर वह क्यों मिले निष्कामी निज देव॥

कबिरा हँसना दूर करु रोने से करु चीत। बिन रोये क्यों पाइये प्रेम पियारा मीत॥

हँसी तो दुख न बीसरै रोवों बल घटि जाय। मनहीं माहिं विसूरना ज्यौं घुन काठहिं खाय॥

माँस गया पिंजर रहा ताकन लागे काग। साहिब अजहुँ न आइया मन्द हमारे भाग॥

पावक रूपी नाम है सच घट रहा समाय। चित चकमक चहूटै नहीं घूवाँ ह्वै ह्वै जाय॥

जो जन विरही नाम के तिनकी गति है येह। देही से उद्यम करैं सुमिरन करैं विदेह॥

आगि लगी आकाश में झरि झरि परै अंगार। कबिरा जरि कंचन भया काँच भया संसार॥

कबिरा वैद बुलाइया पकरि के देखि वाहिं। वैदन बेदन जानई करक करेजे माहि॥


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