(जापानी डॉक्टर श्री शोजाबुरो ओवेट)
प्राणायाम के वैज्ञानिक सिद्धान्त की व्याख्या, उसके प्रयोग सिद्ध परिणामों और उसकी रीतियों का वर्णन करने के पहले मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि मैंने क्यों प्राणायाम करना आरम्भ किया।
पाँच वर्ष की अवस्था तक मैं खूब स्वस्थ रहा, किन्तु पाँचवें वर्ष, 1892 के मार्च में, मेरी बाँई जाँघ पर अचानक अस्थि शोध हो गया। नगर के एक चिकित्सक से सलाह ली गई, परन्तु वह रोग को नहीं पहचान सका। सूजन बुरी तरह बढ़ती गई, इससे मेरे पिता को बड़ी चिन्ता हुई। वे मुझे टोकियो के सतो के अस्पताल में ले गये। परन्तु उचित उपचार के लिये बहुत देर हो गई थी और मेरा शरीर बहुत कृश हो चला था।
जब मुझे इस अस्पताल में एक महीना हो गया तब बैरन सतो ने मेरे माता-पिता को सम्मति दी कि मुझे वायु-परिवर्तन के लिये निक्कों भेज दे। जब मैं निक्कों में था तो रुग्ण भाग पकने लगा। इसलिये एक सर्जन ने चीर-फाड़ की। इस छोटे से ऑपरेशन के बाद पीड़ा प्रायः भाग गई और साधारणतः मेरा स्वास्थ्य कुछ अच्छा हो गया। किन्तु पूरी चिकित्सा के लिये मैं अभी बहुत निर्बल था।
जब मैं बारह वर्ष का हुआ तो एक प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक डॉक्टर हतनों ने मेरी जाँच की। रोग का पूरी तरह निदान कर लेने पर उन्होंने शल्यचिकित्सा (चीर-फाड़) के लिये उस अवसर को ठीक उपयुक्त बतलाया। उसी वर्ष, मार्च में मैं मितो में उनके अस्पताल में भरती हो गया। वहाँ मेरी बाँई जाँघ पर कठिन ऑपरेशन किया गया और बेकाम हड्डी के तीन टुकड़े निकाले गये। यह चीर-फाड़ सफल सिद्ध हुई। उसी वर्ष नवम्बर में मैं सात वर्ष की लम्बी बीमारी से प्रायः आरोग्य हो गया। मेरे माता-पिता के हर्ष का ठिकाना न रहा।
इस प्रकार पाँचवे और सातवें वर्ष के बीच जिस समय बालकों की शारीरिक वृद्धि होती है, मैं रोग के कारण खाट ही पकड़े रहा और यदि डॉक्टर हतनों ने कुशल शल्य-प्रयोग न किया होता तो मैं लँगड़ा हो गया होता और सम्भव है कि मर भी गया होता। आजकल भी कई लोग इसी रोग के कारण या तो लूले हो जाते हैं या मर जाते हैं।
ऑपरेशन हुए अभी केवल पाँच महीने हुये थे, इसलिये मेरा चेहरा इतना पीला और शरीर इतना दुबला था कि हर कोई मुझे क्षयी-बालक समझता था। पाठशाला के वैद्य ने मेरी जाँच करके कहा, तुम्हारे फेफड़े बलवान नहीं है, तुम्हें उनकी परवाह करनी चाहिये। डाक्टरी जाँच से पता चला कि मेरी छाती अपने दर्जे में सबसे ज्यादा सिकुड़ी हुई थी और फेफड़े को फुलाने और संकुचित करने से छाती की चौड़ाई में केवल 18 इंच का अन्तर होता था।
डॉक्टर ने मेरे छोटे से हृदय को बड़ा उत्साहित किया। उस समय मेरे नगर में क्षय से बहुत लोग मर रहे थे और मुझे विश्वास हो गया था कि यक्ष्मा संसार में सबसे भयंकर रोग है। यक्ष्मा का प्रतिबन्ध क्यों नहीं किया जा सकता? फुफ्फुस को बलिष्ठ बनाने का सबसे अच्छा उपाय क्या है? ये प्रश्न मुझे हमेशा चिन्ता में डाले रखते थे।
इसके बाद शीघ्र ही मुझे प्रकृति-विज्ञान सम्बन्धी एक व्याख्यान सुनने का अवसर मिला। उससे मुझे पता लगा कि जैसे आग हवा की सहायता से जलती है उसी तरह शरीर का ताप भी ऑक्सीजन की खपत और शरीर की तथा उसके सब जन्तुओं की पुष्टि पर निर्भर है। तब मेरे मन में विचार आया कि अगर फेफड़े इतने मजबूत हों कि काफी ऑक्सीजन खींच सकें तो क्षय के कीड़े फेफड़ों में प्रवेश कर लेने पर भी ऑक्सीजन से जल जायं। जैसे उचित व्यायाम से शरीर बलवान बनता है उसी प्रकार उपयुक्त व्यायाम से फेफड़े भी बलवान बनाये जा सकते हैं। और फेफड़ों का व्यायाम प्राणायाम मात्र हैं। इस अन्वेषण ने मेरे मन को शान्त किया और यही मेरे प्राणायाम को आरम्भ करने का कारण है।
व्याख्यान समाप्त होते ही मैं अपने डेरे पर लौट आया और देहात की पवित्र वायु में प्राणायाम का अभ्यास करने लगा। यह 24 मई 1900 की बात है। तबसे मैं प्रतिदिन प्रातःकाल पाठशाला को जाते हुये खेलते हुये, चलते हुये और सोने से पहले दृढ़ता से प्राणायाम करने लगा। केवल जागते हुए ही नहीं, स्वप्नों तक में मैंने प्राणायाम किया। और अब तक मुझे कई अवसर याद हैं जब बिस्तरे पर से जगकर मैंने अपने आपको प्राणायाम करते हुए पाया।
इस समय से मेरे शरीर में खूब उन्नति होने लगी। एक ही वर्ष में फेफड़ों को फुलाने और सिकोड़ने से मेरी छाती की चौड़ाई में लगभग 4 इंच का अन्तर हो गया और ऊँचाई में मैं चार इंच बढ़ गया। अब मैंने डॉक्टर से पूछा कि, क्या मरे फेफड़े यक्ष्मा के शिकार तो न होंगे? उसने उत्तर दिया, तुम्हारी बड़ी तगड़ी छाती है, क्षय का तुम्हारे लिये सवाल ही नहीं उठ सकता। मैं प्रसन्नता से फूला न समाया। इस प्रकार मैंने अपनी ही इच्छा से प्राणायाम करना आरम्भ किया था, किसी वैद्यक ज्ञान के कारण नहीं। मुझे दृढ़ विश्वास हो गया था कि प्राणायाम से शरीर बलवान होता है और यक्ष्मा का प्रतिबन्ध होता है। इसी विश्वास से मैं अपने माता-पिता और बन्धु-बान्धओं को प्राणायाम करने की सम्मति देने लगा। अपने विश्वास के कारणों का जब कभी मैं स्मरण करता हूँ तो मुझे मालूम होता है कि यद्यपि वे बहुत साधारण थे तो भी आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार सर्वथा अशुद्ध नहीं थे।
अपने तेरहवें और पन्द्रहवें वर्ष के बीच मैं आजकल से भी अधिक समय तक प्राणायाम किया करता था, कभी-कभी तो मैं चार या पाँच घण्टे प्रतिदिन प्राणायाम करता था। बहुधा लोग मुझसे पूछते हैं कि युवकों के लिये और विशेषकर बालकों के लिये प्रतिदिन तीन-चार घण्टे प्राणायाम करना हानिकारक तो नहीं है? ये सन्देह कल्पित हैं, अनुभव इनका आधार नहीं है। स्वयं अपने अनुभव से मेरा विश्वास है कि कई घण्टों तक प्रतिदिन प्राणायाम करना बहुत लाभदायक है।
अध्यापक फुतकी ने उदरगत-श्वासक्रिया (प्राणायाम की एक विधि) का अभ्यास करना उसी समय आरम्भ कर दिया था जब वे हाई स्कूल में विद्यार्थी थे। इससे उनका निर्बल शरीर बलिष्ठ हो गया। जिन दिनों वे प्राणायाम को अधिक दृढ़ता और उत्साह के साथ किया करते थे उन दिनों उन्होंने 36 मील की एक दौड़ में भाग लिया और उसे जीत लिया, यद्यपि इस दौड़ में भाग लेने वाले कई प्रतियोगी ऐसे भी थे जो उनसे अधिक बलवान दिखाई देते थे, इस प्रकार उन्होंने सिद्ध कर दिया कि उनके फुफ्फुस और हृदय भी उतने ही बलवान हैं जितने उनके और अवयव। यदि केवल उनके अवयव ही बलिष्ठ होते और फेफड़े और हृदय निर्बल होते तो वे अवश्य ही दौड़ में जीत नहीं सकते थे।
एक रोचक घटना सुनिए। अप्रैल 1903 की बात है, अभी मैंने पहले-पहल लोगों को प्राणायाम करने की सम्मति देना आरम्भ किया था। मेरे पिता के कारखाने में कजूसो किमुरा नामक एक मजूर काम करता था। उसकी माता और उसके दो भाई यक्ष्मा से मौत के मुख में जा चुके थे और उसके पिता की मृत्यु स्वरयन्त्र के क्षय से हुई थी। इस प्रकार क्षय की ओर उसकी पैतृक प्रवृत्ति थी, और उसके शरीर की गठन भी निर्बल थी। वह इतना पीला और इतना दुबला पतला था कि हर किसी का यही विश्वास था कि वह क्षय का शिकार हो चुका है। निर्बल वह इतना था कि उससे 28 सेर वजन का लोहे का डण्डा भी न उठता था। काम से वह अक्सर गैरहाजिर रहता था। कुछ समय से वह औषधों का भी उपयोग कर रहा था पर उससे लाभ कुछ भी नहीं हो रहा था। उसने मुझसे पूछा कि मैं बलिष्ठ कैसे हों सकता हूँ। उस समय अवस्था तो मेरी सोलह वर्ष की ही थी पर प्राणायाम पर मेरा विश्वास दृढ़मूलक था। मैंने उससे कहा-जो मेरे कहने के अनुसार काम करोगे तो तुम्हें जुलाई से पहले ही अपना खोया हुआ बल प्राप्त हो जाय।
(1) प्रतिदिन प्रातःकाल 6 बजे उठो, सारे शरीर पर शीतवर्षण के बाद खुली खिड़की के सामने दस-पन्द्रह मिनट तक प्राणायाम करो, उसके बाद बीस मिनट तक खेतों (खुली हवा) में टहलो, तब जलपान करो।
(2) एक दिन में तीन बार भोजन करो, और बीच में कुछ न खाओ।
(3) दिन ढले दस से पन्द्रह मिनट तक प्राणायाम करो।
(4) सोने के पहले शीत-घर्षण के बाद फिर दस से पन्द्रह मिनट तक प्राणायाम करो।
दस दिन तक प्राणायाम करने के बाद उसे तन-मन दोनों से शान्ति का अनुभव होने लगा। उसके स्वास्थ्य में लगातार उन्नति होती गई और अब वह सदैव कहा करता है कि मेरा स्वास्थ्य प्राणायाम का ही शुभ परिणाम है। जब तक जीवन रहेगा तब तक मैं उसका अभ्यास करता रहूँगा।
उस समय से मैं अपने पिता के कारखाने के सब मजूरों को प्राणायाम करने की सम्मति देने लगा।
अब मैं हाल की कुछ थोड़ी सी घटनाओं का वर्णन करता हूँ।
एक कारखाने का एक साझीदार दस वर्ष से आमाशय और अन्तड़ियों के जीर्ण रोग से पीड़ित था। उस समय उसकी उम्र 27 वर्ष की थी। मैंने उसे मार्च 1912 में प्राणायाम करने की सम्मति दी और उसी वर्ष जुलाई में उसके रोग का निवारण हो गया।
एक सरकारी पदाधिकारी, जिसकी अवस्था 21 वर्ष की थी, तीन वर्ष से नाड़ी-दौर्बल्य और कोष्ठबद्धता से पीड़ित था। स्नायविक विकार और पेट की पीड़ा के कारण रात को उसे नींद नहीं आती थी, दिन में उसे सिर दर्द रहता था, उसकी भूख लोप हो गई थी और दिन-दिन वह दुर्बल होता जा रहा था। मार्च 1912 में मैंने उसकी पहली बार जाँच की और उसे प्राणायाम का अभ्यास करने की सलाह दी। छः महीने के बाद वह इन कष्टसाध्य रोगों से मुक्त हो गया, और अब तो उसके रोग के सब लक्षण तिरोहित हो गये हैं और अपने काम में उसे आनन्द मिलता है।
अब तक मैंने यक्ष्मा के बहुत से रोगियों को प्राणायाम करने की सम्मति दी है और प्रत्येक दशा में फल भी उत्तम रहे हैं।
मैंने यक्ष्मा के प्रतिशोध के लिए प्राणायाम करना आरम्भ किया था, अपने ऊपर उसके आरोग्यप्रद प्रभावों और अपने किये कई प्रयोगों से मुझे विश्वास है कि यदि स्वस्थ मनुष्य प्रतिदिन बीस मिनट प्राणायाम करे तो उसे कभी यक्ष्मा न होगा।