मन में सद्भावनाएं रखें!

October 1953

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(श्रीमती प्रीतम देवी जी)

यह संसार हमारी भावनाओं का ही तो रूप है। हम जैसा स्वयं विचार करते हैं, जिन कल्पनाओं में व्यस्त रहते हैं, वैसा ही दूसरों को भी समझते हैं। अपने व्यक्तित्व के अनुसार ही हम दूसरों के चरित्र परखते हैं, उनके अच्छे-बुरे होने ही पहिचान करते हैं। संसार के व्यक्ति आइने या शीशों की तरह हैं, जिनमें हमारा प्रतिबिम्ब दिखा करता हैं, हमारे विचार मन्तव्य, भावनाएँ, योजनाएँ, कल्पनाएं साकार हो उठती हैं।

जिन व्यक्तियों में आपको त्रुटियां दृष्टिगोचर होती हैं, धीरे-धीरे उनके खिलाफ आप एक अन्य विश्वास मन में रख लेते हैं। फिर आपको उनमें दोष ही दोष नजर आने लगते हैं। इन दोषों का कारण केवल उस व्यक्ति में ही नहीं स्वयं आपमें भी है। खुद आपके दोष उस व्यक्ति में प्रतिबिम्बित होते हैं।

परदोष-दर्शन एक मानसिक रोग है। जिसके मन में यह रोग उत्पन्न हो गया है वह दूसरों में अविश्वास भद्दापन, मानसिक, नैतिक, कमजोरी देखा करता है। अच्छे व्यक्तियों में भी उसे त्रुटि और दोष का प्रतिबिम्ब मिलता है। अपनी असफलताओं के लिए भी वह दूसरों को दोषी ठहराता है।

संसार एक प्रकार का खेत है। किसान खेत में जैसा बीज फेंकता है, उसके पौधे और फल भी वैसे ही होते हैं। प्रकृति अपना गुण नहीं त्यागती। आपने जैसा बीज बो दिया, वैसा ही फल आपको प्राप्त हो गया। बीज के गुण वृक्ष की पत्ती और अणु 2 में मौजूद रहते हैं। आपकी भावनाएं ऐसे ही बीज हैं, जिन्हें आप अपने समाज में बोते हैं और उन्हें काटते हैं। आप इन भावनाओं के अनुसार ही दूसरे व्यक्तियों को अच्छा बुरा समझते हैं। स्वयं अपने अन्दर जैसी भावनाएँ लिए फिरते हैं, वैसा ही अपना संसार बना लेते हैं। आइने में अपनी ओर से कुछ नहीं होता। इसी प्रकार समाज रूपी आइने में आप स्वयं अपनी आन्तरिक स्थिति का प्रतिबिम्ब प्रतिदिन प्रतिपल बड़ा करते हैं।

एक बदशक्ल काला कलूटा व्यक्ति अपने आपको बड़ा सुन्दर समझता था। संयोग से उसे अपना प्रतिबिम्ब जल में दिखाई पड़ा। इस महाकुरूप आकृति को देखकर वह भयभीत हो गया। उसे प्रतिबिम्ब पर विश्वास न हुआ तो स्वयं काँच में देखा तब उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ। इसी प्रकार यदि हमें कोई ऐसा शीशा प्राप्त हो जाय, जो हमें आन्तरिक विकारों, दुर्भावनाओं, कुकल्पनाओं का मूर्त रूप साकार कर दे, तो हमें यह देखकर आश्चर्य होगा कि हमारे अंतर्प्रदेश में कितनी गन्दगी और विकार एकत्रित हो गये हैं। आन्तरिक गन्दगी के फलस्वरूप ही प्रायः हमें संसार में कुरूपता, और दोष का वातावरण दृष्टिगोचर होता है। हम जैसा देंगे, वैसा ही लेंगे। जब हम अनिष्टकर दोष दर्शन वाली दुष्प्रवृत्ति लेकर संसार में निकलते हैं, तो बदले में हमें दोष, असफलताएँ, प्रमाद, झूठ-कपट मिथ्याचार ही प्राप्त होगा।

हमारे सुख का कारण हमारी सद्भावनाएँ ही हो सकती हैं। अच्छा विचार, दूसरे की प्रति उदार भावना, सत् चिन्तन, गुण-दर्शन वे दिव्य मानसिक बीज हैं, जिन्हें संसार में बोकर हम आनन्द और सफलता की मधुरता लूट सकते हैं। शुभ भावना का प्रतिबिम्ब शुभ ही हो सकता है। गुण दर्शन एक ऐसा सद्गुण है, जो हृदय में शान्ति और मन में पवित्र प्रकाश उत्पन्न करता है। दूसरे के सद्गुण देखकर हमारे गुणों का स्वतः विकास होने लगता है। हमें सद्गुणों की ऐसी सुसंगति प्राप्त हो जाती है, जिसमें हमारा देवत्व विकसित होता रहता है।

सद्भाव पवित्रता के लिए परमावश्यक है। इनसे हमारी कार्य शक्तियाँ अपने उचित स्थान पर लगकर फलित पुष्पित होती हैं। हमें अन्दर से निरन्तर एक ऐसी सामर्थ्य प्राप्त होती रहती है, जिससे निरन्तर हमारी उन्नति होती चलती है।

एक विद्वान् ने सत्य ही लिखा हैं, “शुभ विचार, शुभ भावना और कार्य मनुष्य को सुन्दर बना देते हैं। यदि सुन्दर होना चाहते हो, तो मन से ईर्ष्या द्वेष और वैर भाव निकाल कर केवल यौवन पर ध्यान न दो। सुन्दर मूर्ति, पवित्र मूर्ति की कल्पना करो। प्रातःकाल ऐसे स्थानों पर घूमने के लिए निकल जाओ जहाँ का दृश्य मनोहर हो- सुन्दर-2 फूल खिल रहे हों पक्षी बोल रहे हों, उड़ रहे हों, चहक रहे हों। सुन्दर पहाड़ियों पर, हरे भरे जंगलों में और नदियों के सुन्दर तटों पर घूमो, टहलो, दौड़ो और खेलो। वृद्धावस्था के भावों को मन से निकाल दो और बन जाओ हँसते हुए बालक के समान सद्भावपूर्ण। फिर देखो कैसा आनन्द आता है।

मनुष्य के उच्चतर जीवन को सुसज्जित करने वाला बहुमूल्य आभूषण सद्भावना ही है। सद्भावना रखने वाला व्यक्ति सब से भाग्यवान है। वह संसार में अपने सद्भावों के कारण सुखी रहेगा, पवित्रता और सत्यता की रक्षा करेगा। उसके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्न रहेगा और उसके आह्लादकारी स्वभाव से प्रेरणा प्राप्त करेगा। सद्भावना सर्वत्र सुख, प्रेम, समृद्धि उत्पत्ति करने वाले कल्पवृक्ष की तरह है। इससे दोनों को ही लाभ होता है। जो व्यक्ति स्वयं सद्भावना मन में रखता है, वह प्रसन्न और शान्त रहता है। संपर्क में आने वाले व्यक्ति भी प्रसन्न एवं संतुष्ट रहते हैं। मन में सदैव सद्भावनाएँ ही रखें।


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