ईमानदारी की कमाई

October 1953

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(महात्मा गान्धी)

ईसवी सन् की कुछ शताब्दियों पहले एक यहूदी व्यापारी हो गया है। उसका नाम सोलोमन था। उसने धन और यश भरपूर कमाए थे। उसकी कहावतों का आज भी यूरोप में प्रचार है। वेनिस के लोग उसे इतना मानते थे कि उन्होंने उसकी मूर्ति स्थापित की। उसकी कहावतें आज कल याद तो रखी जातीं हैं, परन्तु ऐसे आदमी बहुत कम हैं जो उनके अनुसार आचरण करते हों। वह कहता है- “जो लोग झूँठ बोलकर पैसा कमाते हैं वे घमण्डी हैं और यही उनकी मौत की निशानी हैं।” दूसरी जगह उसने कहा है- “हराम (मुफ्त) की दौलत से कोई लाभ नहीं होता। सत्य मौत से बचाता है।” इन दोनों कहावतों में सोलोमन ने बतलाया है कि अन्याय से पैदा किये हुए धन का परिणाम मृत्यु है। इस जमाने में इतना झूठ बोला और इतना अन्याय किया जा रहा है कि साधारणतः हम उसे झूठ और अन्याय कह ही नहीं सकते। जैसे कि झूठे विज्ञापन देना, अपने माल पर लोगों को भुलावे में डालने वाले लेबल लगाना, इत्यादि।

इसके बाद वह बुद्धिमान कहता है- “जो धन बढ़ाने के लिये गरीबों को दुःख देता है वह अन्त में दर दर भीख माँगेगा।” इसके बाद कहता है- “गरीबों को न सताओ, क्योंकि वे गरीब हैं। व्यापार में दुःखियों पर जुल्म न करो। क्योंकि जो गरीब को सताएगा खुदा उसे सताएगा।” लेकिन आजकल तो व्यापार में मरे हुए आदमी को ही ठोकर मारी जाती है। यदि कोई संकट में पड़ जाता है तो हम उसके संकट से लाभ उठाने को तैयार हो जाते हैं। डकैत तो मालदार के यहाँ डाका डालते हैं, परन्तु व्यापार में तो गरीबों को ही लूटा जाता है।

फिर सोलोमन कहता है- “अमीर और गरीब दोनों समान हैं। खुदा उनको उत्पन्न करने वाला है, खुदा उन्हें ज्ञान देता है।” अमीर का गरीब के बिना और गरीब का अमीर के बिना काम नहीं चलता। एक से दूसरे का काम सदा ही पड़ता रहता है, इसलिए कोई किसी को ऊँचा या नीचा नहीं कह सकता। परन्तु जब उन्हें इस बात का होश नहीं रहता कि ईश्वर उन्हें ज्ञान देने वाला है तब विपरीत परिणाम होता है।

धन की गति का नियन्त्रण

धन नदी के समान है। नदी सदा समुद्र की ओर अर्थात् नीचे की ओर बहती है। इसी तरह धन को भी जहाँ आवश्यकता हो वहीं जाना चाहिए। परन्तु जैसे नदी की गति बदल सकती है। वैसे ही धन की गति में भी परिवर्तन हो सकता है। कितनी ही नदियाँ इधर-उधर बहने लगती हैं और उनके आस-पास बहुत-सा पानी जमा हो जाने से जहरीली हवा पैदा होती है। इन्हीं नदियों में बाँध बाँधकर जिधर आवश्यकता हो उधर उनका पानी ले जाने से वही पानी जमीन को उपजाऊ और आस-पास की वायु को उत्तम बनाता है। इसी तरह धन का मन-माना व्यवहार होने से बुराई बढ़ती है, गरीबी बढ़ती है। साराँश यह है कि यह धन विष-तुल्य हो जाता है, पर यदि उसी धन की गति निश्चित कर दी जाय, उसका नियम पूर्वक व्यवहार किया जाय, तो बाँधी हुई नदी की तरह वह सुखप्रद बन जाता है।

अर्थ शास्त्री धन की गति के नियन्त्रण के नियम को एकदम भूल जाते हैं। उनका शास्त्र केवल धन प्राप्त करने का शास्त्र है, परन्तु तो अनेक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है। एक जमाना ऐसा था जब यूरोप में धनिक को विष देकर लोग उसके धन से स्वयं धनी बन जाते थे। आजकल गरीब लोगों के लिए जो खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं उनमें व्यापारी लोग मिलावट कर देते हैं। जैसे दूध में सुहागा, आटे में आलू, कहवे में ‘चीकरी’, मक्खन में चरबी इत्यादि। यह भी विष देकर धनवान होने के समान ही है। क्या इसे हम धनवान होने की कला या विज्ञान कह सकते हैं?

न्याय का रास्ता ही सच्चा

परन्तु यह न समझ लेना चाहिये कि अर्थशास्त्री निरा लूट से ही धनी होने की बात कहते हैं। उनकी ओर से यह कहना ठीक होगा कि उनका शास्त्र कानून-संगत और न्याय-युक्त उपायों से धनवान होने का है। पर इस जमाने में यह भी होता है कि अनेक बातें जायज होते हुए भी न्यायबुद्धि से विपरीत होती हैं। इसलिए न्यायपूर्वक धन अर्जन करना ही सच्चा रास्ता कहा जा सकता हैं। और यदि न्याय से ही पैसा कमाने की ही बात ठीक हो तो न्याय-अन्याय का विवेक उत्पन्न करना मनुष्य का पहला काम होना चाहिये। केवल लेन-देन के व्यावसायिक नियम से काम लेना या व्यापार करना काफी नहीं है। यह तो मछलियाँ, भेड़िये, और चूहे भी करते हैं। बड़ी मछली छोटी को खा जाती है, चूहा छोटे जीव-जन्तुओं को खा जाता हैं और भेड़िया आदमी को खा डालता है। उनका यही नियम है, उन्हें दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, परन्तु ईश्वर ने मनुष्य को समझ दी है, न्याय-बुद्धि दी है। उसके द्वारा दूसरों को भक्षण कर उन्हें ठगकर उन्हें भिखारी बनाकर इसे धनवान न होना चाहिये।

धन साधनमात्र है और उससे सुख तथा दुःख दोनों ही हो सकते हैं। यदि वह अच्छे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तो उसकी बदौलत खेती होती हैं और अन्न पैदा होता है, किसान निर्दोष मजदूरी करके सन्तोष पाते हैं और राष्ट्र सुखी होता है। खराब मनुष्य के हाथ में धन पड़ने से उससे (मान लीजिये कि) गोले बारूद बनते हैं और लोगों का सर्वनाश होता है। गोला बारूद बनाने वाला राष्ट्र और जिस पर इनका प्रयोग होता है वे दोनों हानि उठाते और दुःख पाते हैं।

इस तरह हम देख सकते हैं कि सच्चा आदमी ही धन है। जिस राष्ट्र में नीति है वह धन सम्पन्न है। यह जमाना भोग-विलास का नहीं है। हर एक आदमी को जितनी मेहनत-मजदूरी हो सके उतनी करनी चाहिये।

सोना-चाँदी एकत्र हो जाने से कुछ राज्य मिल नहीं जाता। यह स्मरण रखना चाहिये कि पश्चिम में सुधार हुए अभी सौ ही वर्ष हुए हैं। बल्कि सच पूछिये तो पचास ही कहे जाने चाहिए। इतने ही दिनों में पश्चिम की जनता वर्णसंकर सी होती दिखाई देने लगी है।

यूरोप के राष्ट्र एक दूसरे पर घात लगाए बैठे हैं। केवल अपनी तैयारी में लगे होने के ही कारण सब शान्त हैं। किसी समय जब जोरों की आग लगेगी तब यूरोप में नरक ही दिखाई देगा। यूरोप का प्रत्येक राज्य काले आदमियों को अपना भक्ष्य मान बैठा है। जहाँ केवल धन का ही लोभ है वहाँ कुछ और हो ही कैसे सकता है? उन्हें यदि एक भी देश दिखाई देता है तो वह उसी तरह उस पर टूट पड़ते हैं जिस तरह चील और कौवे माँस पर टूटते हैं। इस प्रकार सब उनके कारखानों के ही कारण होता है, वह मानने के लिए हमारे पास कारण हैं।

व्यापारी का काम भी जनता कि लिए जरूरी है, पर हमने मान लिया है कि उसका उद्देश्य केवल अपना घर भरना है। कानून भी इसी दृष्टि से बनाये जाते हैं कि व्यापारी झपाटे के साथ धन बटोर सके। चाल भी ऐसी ही पड़ गई है कि ग्राहक कम से कम दाम दे ओर व्यापारी जहाँ तक हो सके अधिक माँगे और ले। लोगों ने खुद ही व्यापार में ऐसी आदत डाली और अब उसे उसकी बेईमानी के कारण नीची निगाह से देखते हैं। इस प्रथा को बदलने की जरूरत है। वह कोई नियम नहीं हो गया है कि व्यापारी को अपना स्वार्थ की साधना-धन ही बटोरना-चाहिए। इस तरह के व्यापार को व्यापार कहकर चोरी कहेंगे। जिस तरह सिपाही राज्य के सुख के लिए जान देता है उसी तरह व्यापारी को जनता के सुख के लिए धन गँवा देना चाहिए, प्राण भी दे देना चाहिए। सिपाही का काम जनता की रक्षा करना है, धर्मोपदेशक का उसको शिक्षा देना है। चिकित्सक का उसे स्वस्थ रखना है, और व्यापारी का उसके लिए आवश्यक माल जुटाना है। इन सबका कर्त्तव्य समय पर अपने प्राण भी दे देना है।


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