पश्चिमी सभ्यता मरने जा रही है।

October 1953

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(श्री विल्फ्रेड वेलाफ)

औद्योगिक क्रान्ति ने मनुष्य और समाज के स्वभाव में जो परिवर्तन कर दिये, उनके फलस्वरूप अच्छी तरह संगठित गाँवों के कुशल कलाकारों को भूख से मजबूर होकर, नीरस और आत्महीन शहरों में जाना पड़ा, जहाँ उनके जिम्मे भयंकर कारखानों में बिजली से चलने वाली जड़ मशीनों के सम्भाल के सिवा और कोई काम नहीं रहा। इसका मतलब उनके लिये एक अर्थपूर्ण और अनेक सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों वाले जीवन से निकल कर ऐसे जीवन में प्रवेश करना था, जिसमें न कोई अर्थ था और न किसी तरह के सामाजिक या आध्यात्मिक महत्व का कोई चिन्ह मौजूद था। यह एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी, सर्जक अवसर, व्यावसायिक और सामाजिक महत्व, स्वतन्त्रता और स्थानीय प्रतिष्ठा के जीवन को छोड़कर ऐसा जीवन अख़्तियार करना था, जिसमें धनी और शक्तिशाली मालिक का पूरा गुलाम बन जाता पड़ता है। और इस मालिक का मुख्य ध्येय पैसा कमाना ही था।

समय पाकर अब दुनिया के बाजारों की होड़ बढ़ी, तो कारखानों में विशिष्टीकरण (स्पेशियलाइजेशन) को बढ़ाकर उत्पादन को सस्ता बनाने का आम रिवाज हो गया। इसने आविष्कार काम को टुकड़ों में बाँट कर और फिर उन्हें जोड़कर तैयार करने की टेकनिक की प्रक्रियाएँ दोहराने वाली मशीनों की शृंखला को जन्म दिया, जिससे कुछ उद्योगों में दोहराये जाने वाले श्रम का प्रतिशत 65 प्रतिशत तक पहुँचा गया।

यह स्थिति ऐसी हर एक चीज को खतरा कर देती है, जिसका सम्बन्ध मानव प्रतिष्ठा और आध्यात्मिक संस्कृति के साथ है, सच पूछा जाय तो वह आध्यात्मिक मानव-ईश्वर के प्रतिबिम्ब रूप सर्जक मानव का इनकार है। इस यान्त्रिक तन्त्र में बुद्धि योग्यता, और अक्षमता रूप है, वह उत्पादन में रुकावट डालती है, क्योंकि वह निरर्थकता की भावना को बढ़ाती है, अपने काम में किसी तरह का रस नहीं रहने देती और इस तरह उत्पादन को घटाती है। इसलिए हर एक के मन बहलाव के साधन दाखिल करने पड़ते हैं, ताकि लोग मानव के स्तर से नीचे उतर कर पशु की तरह काम करते रहें। इसी मतलब के लिए अधिकाधिक वैज्ञानिक इस क्षेत्र में दाखिल किये जाते हैं-आज का विज्ञान इस हद तक नीचे गिर गया है।

न तो धर्म ने और न संस्कृति ने कभी इस आध्यात्मिक क्रूरता का विरोध किया। चतुराई से नए भौतिक वाद को धार्मिक पवित्रता का जो जाना पहनाया गया, उसके कारण भौतिकवाद के बारे में ऐसा घातक भ्रम बढ़ा कि आज भी दुनिया उसके कुछ बुरे से बुरे परिणामों को नहीं देख पाती। धन, दौलत, ऐश्वर्य, सामाजिक प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय शक्ति के गौरव-गान का परिणाम सामाजिक और आध्यात्मिक कंगाली, गैर जिम्मेदारी और नैतिक व सामाजिक भावना की शिथिलता में आया, जो प्रत्यक्ष रूप में हमारी सभ्यता की नींव को खोखली बना रही है। एक समय के जिम्मेदार और संपूर्ण व्यक्तियों के सामाजिक कर्त्तव्यों और आदान-प्रदान की भावना वाले कुशल कारीगरों के यन्त्रवत काज करने वाले मजदूरों में बदल जाने से अधिकतर लोगों की दृष्टि में काम का महत्व पैसा कमाने के साधन के सिवाय और कुछ नहीं रह गया है। इस तरह हमारी आज की सभ्यता ने नकद पैसे पर आधार रखने वाला भौतिकवादी सभ्यता का रूप ले लिया है-ऐसे अपूर्ण व्यक्तियों ने समाज का रूप ले लिया है, जो अधिकतर सामूहिक उत्तेजनाओं और प्रदर्शनों के बल पर जीते हैं और अपनी सारी जरूरतें पैसे से पूरी करने की अपेक्षा रखते हैं। इस आध्यात्मिक दृष्टि से बाँझ दुनिया में धर्म का कोई अर्थ नहीं है और चर्च भी एक बेगार सा है।

तब अगर मजदूरों में चोरी की और समाज के ऊँचे वर्गों में ऊँची कीमतें लेने की अनैतिक वृत्ति का बोलबाला हो और वह दिन-प्रति-दिन बढ़े, तो इसमें आश्चर्य क्या? इस बुराई का नतीजा यह है कि मनुष्य के काम और उसकी आत्मा के बीच कोई सम्बन्ध नहीं रहा। जब मनुष्य काम में किसी तरह की जिम्मेदारी महसूस नहीं करता, तो वह नैतिक दृष्टि से भी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाता। इसमें कोई शक नहीं कि हम इस नतीजे से एक सर्वथा नीतिहीन सभ्यता को जन्म दे रहे हैं। अगर हम उसकी कोई प्रतिक्रियाओं को उलटा न दें, तो उसका अन्त निकट ही समझिये।

साराँश यह है कि हमारे युग की मूल समस्या आध्यात्मिक है। वह समस्या औद्योगिक क्राँति की प्रगति के दरमियान भौतिक मूल्यों पर दिनों दिन अधिक जोर देने से पैदा हुई, जिसका यह नतीजा हुआ है कि मानव-कल्याण या अच्छे जीवन की चीजों और सुख-सुविधाओं के अधिक से अधिक उपयोगों के साथ एक रूप कर दिया गया है, दोनों में कोई भेद ही नहीं किया जाता।

पश्चिम में धन-दौलत और भौतिक वस्तुओं के बाहुल्य पहले से ही पूँजीवाद के प्रधान लक्ष्य रहे हैं । इन दोनों का लोभ और प्रेम आखिरकार समाज के हर वर्ग में पैठ गये हैं। इन्होंने शुरू के समाजवादियों के-जो गुणप्रधान सभ्यता की हिमायत करते थे- आदर्शवाद को व्यर्थ बना दिया है और मार्क्स के जरिये भौतिकवाद के शुभ भयानक स्वप्न को साम्यवादियों के हाथ में सौंप दिया है। आज तक सर्वभक्षी भौतिकवाद पृथ्वी के साधनों पर इतनी तेजी से नाश कर रहा है कि पृथ्वी का उपजाऊपन कायम रखकर या खोज और आविष्कार के जरिये उनकी पूर्ति नहीं की जा सकती।

18 अगस्त 1949 को ‘लन्दन टाइम्स’ में छपे ‘कच्चे माल की बरबादी’ लेख ने कच्चे माल की सुरक्षा की बहुत बड़ी आवश्यकता की तरफ लोगों का ध्यान खींचा था और ब्रिटिश एसोसिएशन की एक बैठक में दिये गये डॉ. आर. पी. लिनस्डेड एफ. आर. एस. के भाषण का नीचे लिखा हिस्सा उद्धृत किया किया था।

“मनुष्य अब कच्चे माल पर भयंकर आक्रमण कर रहा है। यह बनाया गया है कि पिछले सम्पूर्ण इतिहास में सारी दुनिया में कितने खनिज पदार्थ निकाले गये थे, उनसे ज्यादा 1900 से आज तक अमरीका में भूगर्भ से निकाले गये हैं। 1947 के अन्त तक सम्पूर्ण मानव इतिहास में कोयले का एकत्र उत्पादन लगभग 81 अरब मेट्रिक टन हुआ था। इसमें से 61 अरब मेट्रिक टन कोयला 1900 से अब तक खदानों से निकाला गया और काम में लिया गया।” अमरीका सारी दुनिया से ज्यादा लोहा और फौलाद, पैट्रोल, अखबारी कागज और रबर का उपयोग करता है। अब वह यह सारा कच्चा माल और दूसरे 80 जात के कच्चे माल बाहर से मँगाता है, क्योंकि वह अपने कच्चे माल का अधिकतर भाग खतम कर चुका है। “अमरीका, जो एक समय ऊपर से अटूट कुदरती भण्डार का स्वामी माना जाता था, कई तरह से अभाव ग्रस्त राष्ट्र बन जाने के खतरे में है।”

पश्चिमी सभ्यता का ध्येय क्या है? अमरीका के जीवन मान को प्राप्त करना!

भौतिकवाद मानव की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की कोई शक्ति अपने में नहीं रखता, उलटे वही मनुष्यों को अशान्त व्याकुल और बेचैन ही बनाता है। अमेरिका में वह अशान्ति और व्याकुलता सबसे ज्यादा बढ़ रही है। भूख और भोग विलास के क्षेत्र में इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है, जिस आदमी के पास जितना ज्यादा होता है, उतना ही ज्यादा व्याकुल और बेचैन वह पाया जाता है।

हमारी सभ्यता नष्ट हो रही है। वह इतनी कृत्रिम और अस्थायी हो गई है कि बढ़ता हुआ डर उसकी नींव को ही हिला रहा है। अगर इस नाश को रोकना हो तो हमें कई आध्यात्मिक अधिकारों और मूल्यों की पुनः स्थापना करनी होगी, जिन्हें हमने औद्योगिक क्रान्ति के समय में खो दिया है।


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