प्राण का दीपक (Kavita)

October 1953

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प्राण का दीपक जलाये जल रहा हूँ।

जिन्दगी की वह अमित रेखा चिरन्तन। है न जिसको जान पाया रह चपल मन।

कौन वह संबल हृदय या प्राण है। स्नेह जिसका कर रहा आह्वान है॥

मैं उसे मन में बसाये चल रहा हूँ। प्राण का दीपक चलाये जल रहा हूँ॥

मैं बिकल हूँ, प्राण मेरे है डडडडडडजिःसबल। हैं भुजाओं में निहित तूफान सा बल॥

कंटकों से भर रही जीवन डगर है। मौत से भी जीतना मुझको मगर है॥

यह अटल निश्वास ले मैं चल रहा हूँ। प्राण का दीपक जलाये जल रहा हूँ॥

ज्वार सागर का न मुझको रोक पाया। कब लुभा पाई मुझे ममता अहन्ता और माया।

सत्य का दीपक सतत जलता रहा है। आत्मा मेरा सदा यह घोषणा करता रहा है॥

मैं अकेला हूँ। अकेला ही डगर पर चल रहा हूँ॥ प्राण का दीपक जलाये जल रहा हैं॥


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