दूसरों के प्रति मैत्री भावना रखिए।

December 1953

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(पं. श्रीलालबीरामजी शुक्र, एम. ए.)

मैत्री- भावना का अभ्यास मनुष्य की द्वेषात्मक मनोवृत्ति के संस्कारों का विनाशक है। इसके द्वारा मनुष्य को मानसिक और शारीरिक- दोनों प्रकार का स्वास्थ्य-लाभ होता है। मैत्री-भावना के अभ्यास के ग्यारह लाभ बौद्ध ग्रन्थों में बतायें गये हैं। उनमें से मुख्य लाभ सुख की नींद सोना और प्रसन्नचित्त रहना तथा सभी का प्रिय होना है। हम जैसे विचार दूसरे लोगों के पास अनाचाय भेजते हैं। मैत्री भावना से प्रेरित होकर जो विचार दूसरे व्यक्ति के पास भेजे जाते हैं, वे उसका अवश्य लाभ करते हैं। ऐसे विचार हमारा लाभ भी करते हैं। यदि हम दूसरे लोगों को हृदय से प्यार करते हैं तो दूसरे लोग भी हमें हृदय से प्यार करने लगते हैं। मनुष्य के मन के आन्तरिक भाव किसी न किसी प्रकार प्रकाशित हो जाते हैं। अप्रकाशित होने की अवस्था में भी वे हमारे अनुकूल अथवा प्रतिकूल सृष्टि का निर्माण करते हैं।

मैत्री-भावना के अभ्यास के कई प्रकार हैं। जब किसी व्यक्ति के विषय में चर्चा की जाय, तब उसके विषय में उदार विचार ही प्रकट किये जायं। किसी व्यक्ति के विषय में हमारे आन्तरिक विचार उसके विचारों और आवरण को प्रभावित करते हैं। अतएव किसी व्यक्ति की अनुपस्थिति में प्रकाशित किए गए विचारों को व्यर्थ न समझना चाहिए। ऐसे विचार भी आचरण को प्रभावित करते हैं- चाहें वे प्रकाशित रूप से तब तक पहुँचे अथवा नहीं। हम दूसरे व्यक्तियों के विषय में जैसी चर्चा करते हैं, दूसरे की निन्दा करना अमैत्री-भाव का अभ्यास है। वह एक प्रकार ही हिंसा है। अतएव निन्दा को पाप माना गया है। जितना नुकसान किसी मनुष्य का उसका धन चुराकर किया जा सकता है, उससे कहीं अधिक नुकसान उसकी निन्दा से होता है। कितने रोजगारियों का रोजगार उनके नाम पर ही चलता है। उनकी किसी प्रकार निन्दा करना उन्हें आर्थिक हानि पहुँचाना है। इसी प्रकार समाज के कार्यकर्त्ताओं की काम में सफलता उनकी ख्याति पर निर्भर करती है। अतएव किसी व्यक्ति की निन्दा सुनने अथवा करने में भाग न लेना और उसके विषय में कुछ भली ही चर्चा करना मैत्री-भावना अभ्यास का एक रूप है।

मैत्री-भावना के अभ्यास का सामान्य रूप सबके प्रति शुभ कामना करना है। जिस व्यक्ति के प्रति हमारे मन में द्वेष-भावना है, उसके प्रति विशेष रूप से शुभ कामना करना उचित है। अपने मित्र के प्रति सभी लोग शुभ कामना करते रहते हैं, पर अपने शत्रु के प्रति विरला ही व्यक्ति शुभ कामना करता है। मनुष्य की दूसरे लोगों से शत्रुता अथवा मित्रता उसकी स्वार्थ-सिद्धि पर निर्भर करती है। जो हमारे स्वार्थ में साधक होते हैं, उन्हें हम मित्र के रूप में देखते हैं और जिन लोगों से हमारे स्वार्थ में बाधा प्रतीत होती है, उन्हें हम शत्रु रूप में देखते हैं। यदि हम अपने स्वार्थ को अलग करके किसी व्यक्ति की ओर देखे तो हम उसे न शत्रु पायेंगे और न मित्र। ऐसे व्यक्ति के प्रति भी हमें मैत्री-भावना का अभ्यास करना चाहिए।

मैत्री-भावना का अभ्यास सोते समय करना सर्वोत्तम है। सोते समय के विचार मनुष्य के आन्तरिक मन को प्रभावित करते हैं। उनसे उसके स्वभाव का परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार के अभ्यास से उन गुणों का चरित्र में आविर्भाव होता है, जिनका अन्यथा आना असम्भव दिखाई देता है। सोते समय के मैत्री-भावना के विचारों से ही मनुष्य के स्वास्थ्य में सुधार होता है। अभद्र कल्पनाओं का विनाश भी इसी प्रकार होता है।

मैत्री-भावना के अभ्यास का एक रूप अपनी सहायता की आशा रखने वाले व्यक्ति की सहायता करना है। संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें हमारी सहायता अथवा सेवा की आवश्यकता है। इनकी सहायता और सेवा करना हमारा धर्म है। जो व्यक्ति संसार के कल्याण की भावना मन में लाते हैं, पर अपनी थैली से एक भी पैसा गरीब, दीन दुखियों की सहायता के लिए नहीं निकालते, वे अपने प्रति सच्चे नहीं हैं। ऐसे व्यक्तियों के सद्भाव निकम्मे होते हैं। त्याग ही हमारे भावों की सच्चाई की कसौटी है। यदि हम मैत्री भावना को सच्चा मानते हैं तो उसके अनुसार हमें अपना आचरण भी बनाना होगा। मनुष्य का जैसा आचरण होता है, उसके आन्तरिक विचार भी वैसे ही होते है जिस प्रकार विचारों का प्रभाव आचरण पर पड़ता है। आचरण और विचार एक दूसरे के सापेक्ष हैं।

मनुष्य दूसरे लोगों की सहायता धन से अथवा शारीरिक सेवा से कर सकता है। बीमार की सेवा करना मैत्री भावना के अभ्यास का एक रूप है। बुद्ध भगवान ने कहा है कि जो बीमार की सेवा करता है, वह मेरी ही सेवा करता है। रोगी व्यक्ति की सेवा से एक ओर रोगी व्यक्ति का मानसिक लाभ होता है और दूसरी ओर सेवा करने वाले का भी मानसिक लाभ होता है। जिस व्यक्ति को किसी प्रकार की बीमारी है, वह उसी प्रकार की बीमारी से पीड़ित जब किसी दूसरे व्यक्ति की सेवा करने लगता है, तब अपनी बीमारी से मुक्त होने लगता है।

कितने ही लोग सदा अपने आपके विषय में चिन्तित रहते हैं। वे जितना ही अधिक अपनी स्थिति को सुधारने की चेष्टा करते हैं, उनकी स्थिति उतनी ही और भी बिगड़ती जाती है। ऐसे व्यक्ति यदि अपने विषय में चिन्ता करना छोड़कर किसी दूसरे व्यक्ति की दयनीय दशा को सुलझाने में लग जायें तो वे अपनी दयनीय अवस्था से भी मुक्त हो सकते हैं। विचार करने से ही हमारे दुःख बढ़ते हैं। उन पर विचार न करने से बहुत से दुःख अपने आप ही शान्त हो जाते हैं। जिस व्यक्ति को दूसरों के दुःखों के विषय में सोचने से फुरसत नहीं मिलती, उसे अपने दुःख दुःख रूप ही नहीं दिखाई देते। वे जीवन की प्रयोगशाला के एक अंग बन जाते हैं। वह इन दुखों से आनन्द की ही प्राप्ति करता है।

मैत्री भावना के अभ्यास का एक परिष्कृत रूप सद्विचारों का निर्माण है। संसार में सद्विचारों के अभाव में कितने ही लोग दुखी हैं। यदि उनके विचारों में परिवर्तन हो जाय तो उनके दुखों का अन्त हो जाय। हमारे सद्विचार उन्हीं लोगों का सबसे अधिक लाभ करते हैं, जो हमें जानते हैं और जो सदा हमारे संपर्क में आते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी मानसिक उलझन में पड़ जाता है, तब उसे सहायता देना हमारा धर्म है। इस प्रकार की सहायता से उसमें उत्साह की वृद्धि हो जाती है। सच्चे मन से जो व्यक्ति दूसरों की सहायता करना चाहता है, उसे सहायता करने का मार्ग मिल जाता है। निराशायुक्त लोगों को सद्विचार द्वारा सहायता देना और उनके मन में नई आशा का संचार करना समाज की सबसे बड़ी सेवा है। आशावादी मनुष्य ही संसार का कोई कल्याण कर सकता है। कितने ही लोगों को पत्र लिखकर कितनों को बातचीत के द्वारा और कितनों को लेखों और पुस्तकों के द्वारा अपने विचारों से लाभ पहुँचाया जा सकता है। ये मैत्री भावना के अभ्यास के कुछ प्रकार हैं।


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