योग विद्या की महत्ता

December 1953

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(डॉ. शिवरतन लाल त्रिपाठी)

योगात्संप्राप्यते ज्ञानं योगो धर्मस्य लक्षमणम्। योगः परं तपो ज्ञेयस्तस्माद्योगं समभ्यसेत॥1॥ नचतीव्रेण तपसान् स्वाध्यायैर्न चेत्यया। गतिं गन्तुँ द्विजाः शक्ता योगात्संप्राप्नुवन्तियाम्॥2॥

अत्रि सं

भावार्थ- योग से ज्ञान प्राप्त होता है, योग ही धर्म का लक्षण है, और योग ही परम तप है, इसलिए योग का अभ्यास करना चाहिए॥1॥ कड़ी तीव्र तपस्या, सर्वदा शास्त्रों के अध्ययन से जो गति नहीं मिलती है वह द्विजों को योगाभ्यास से मिल जाती है॥2॥

विदुर नीति में भी कहा है- “योगेन रक्ष्यते धर्मों विद्या योगेन रक्ष्यते” योग से विद्या और धर्म रक्षित होते हैं। फिर कहा है कि संसार के ताप से तपे हुए मनुष्यों को योग ही परम औषधि है “भव तापेन तप्तानाँ योगहि परमौषधम्”।

यजुर्वेद में कहा है कि -

सीरा युञ्जन्ति कवयो-युगा वितन्वते पृथक् धीरा देवेषु सुम्न्या।

य.अ. 12 मं. 67

अर्थ- (कवयः) जो विद्वान योगी लोग और (धीराः) ध्यान करने वाले हैं वे (सीरा सुञ्जन्ति) यथायोग्य विभाग से नाड़ियों में अपने आत्मा से परमेश्वर की धारणा करते हैं (युगः) जो योग युक्ति कर्मों में तत्पर रहते हैं (वितन्वते) अपने ज्ञान और आनन्द को विस्तृत करते हैं (देवेषुसुम्न्या) वे विद्वानों के बीच में प्रशंसित होकर परमानन्द को प्राप्त करते हैं। गीता में कहा है-

वेदषु यज्ञेषु तपः सुचैव, दानेषु यत्युण्यफलं प्रदिष्टम। अत्येति तत्सवंमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥

गी.अ. 8 श्लोक 28

भावार्थ- योगी पुरुष इस रहस्य को तत्व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और दाना दिकों के करने में जो पुण्यफल कहा है उस सबको छलाँग जाता है और सनातन परमपद को प्राप्त होता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा है कि-

तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपिमतोऽधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तरमाद्योगी भवार्जुन॥

भावार्थ- योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ और शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।

गी.अ. 6 श्लोक 46

योग भ्रष्ट पुरुष पुनर्जन्म मैं भी योगरत होता है। यदि योगी, योग को यथावत पूर्ण करने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो, तो उसका योग निष्फल नहीं जाता। जैसा कि भगवान कृष्ण जी ने कहा है-

प्राप्य पुण्यकृताँ लोकानुषित्वा शाश्वती समाः।

शुचीनाँ श्रीमताँ गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥

अ.गी.अ. 6 श्लोक 41

अर्थ- योग भ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक वास करके शुद्धाचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।

अथवा योगिनामेव कुले भवित धीमताम।

एतद्धि दुर्लभतरंलोके जन्म यदीदृशम॥

भ.गी.अ. 6 श्लोक 42

अर्थ- वैराग्यवान् पुरुष उन लोकों अर्थात् लोगों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है परन्तु इस प्रकार का जो जन्म है सो संसार में निःसन्देह अति दुर्लभ है। इस विषय का वेदोक्त प्रमाण भी लिखते हैं-

विधेमते परमे जन्मन्नम्ने विधे मस्तोमेरैवरेसधस्थे।

यस्म द्योरुदारिथा यजेतं प्रत्वेहवीं षिजुहुरेस्ससिद्धे॥

यजु. अ. 17 मं. 75

भावार्थ- इस संसार में योग के संस्कार से युक्त जीव का पवित्र भाव से जन्म होता है, इस तरह संस्कार की प्रबलता से योग ही के जानने की चाहना करने वाले होते हैं। सब योगीजन जैसे अग्नि ईंधन को जलाता है वैसे ही समस्त दुख, अशुद्धि भाव को योग से जलाते हैं। इस मन्त्र से पुनर्जन्म भी सिद्ध होता है।

योग साधन की प्रधान सामग्री

ब्रह्मा विद्या के जिज्ञासु मुमुक्षु (स्त्री हो या पुरुष) सभी को योगाभ्यास करना उचित है। पूर्ण योगी होने के निमित्त उसको निम्नलिखित सामग्री बलपूर्वक प्राप्त करना चाहिए। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा यह योग साधन सामग्री हैं। इसी के द्वारा पुरुष पूर्ण योगी होता है।

(1) ‘श्रद्धा’- परमात्मा में विश्वास पूर्वक दृढ़ भक्ति और प्रेमभाव तथा लोक और परलोक के विषयों में तृष्णा रहित योग में होने वाली रुचि को श्रद्धा कहते हैं।

(2) ‘वीर्य’- श्रद्धालु तथा विवेक के अर्थी पुरुष का योग सम्पादन के लिए जो उत्साह है उसको वीर्य कहते हैं।

(3) ‘स्मृति’- उत्साह वाले पुरुष को वेद अनुमान तथा अचार्य्योदेश से जाने हुए योग साधनों में होने वाले स्मारक का नाम स्मृति है।

(4) समाधि- समाहित चित्त अर्थात् चित्त की सावधानता तथा एकाग्रता समाधि कहलाती है।

(5) ‘प्रज्ञा’- निर्मल बुद्धि जिससे कठिन विषय भी शीघ्र समझ में आ सके तथा उससे किसी प्रकार का संशय (शंका) वा भ्रान्ति न रहे, ऐसी विमल ज्ञान कारिणी बुद्धि को प्रज्ञा जानो। इन उक्त पाँचों साधनों का अभ्यास करके मुमुक्षु जिज्ञासु योगीपने की योग्यता स्वरूप सामग्री प्राप्त करें। यहाँ श्रद्धा आदि उपायों का परस्पर कार्य करण भाव है। अर्थात् प्रथम श्रद्धा से वीर्य, वीर्य से स्मृति, स्मृति से समाधि और समाधि से ‘प्रज्ञा’ एवं प्रज्ञा से पर-वैराग्य (तृष्णा का त्याग करना) तथा परवैराग्य असम्ज्ञात समाधि होती है। उक्त श्रद्धा आदि साधनों वाले, योगियों के मध्य में जिनको शीघ्र असम्प्रज्ञात समाधि का लाभ होता है। पातंजलि महर्षि ने योगदर्शन में कहा है- “तीव्र संवेगानामासन्नः” पा. समाधि पा. सू. 21॥ अर्थात् तीव्र वैराग्य वाले योगियों को शीघ्र समाधि तथा फल कैवल्य (मोक्ष) का लाभ होता है।


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