मेरे मन में है, एक चुभन, ‘मैं क्या हूँ?’ मेरे मन में है, एक जलन ‘मैं क्या हूँ?,
मैं देख रहा हूँ, अगर मर रहा देखो- मेरे मन में है, एक तपन, ‘मैं क्या हूँ?’
मैं पास पास दिन-रात रहूँ, ‘क्या जानूँ?’ मैं कूल पास सरि-सरिस बहूँ, ‘क्या जानू?’
मैं मूल समीप वितान लताओं का हूँ- मैं पुण्य-पास सुख-वास बहूँ, ‘क्या जानू?’
है एक पेड़ के वासी, दोनों प्राणी। हैं एक नाम के नामी दोनों प्राणी॥
हैं एक, मगर अन्तर है थोड़ा सा ही- है अन्तरीय महदन्तर की आधानी॥
मैं जानूँ - तू हो जावे मैं ‘क्या जानूं?’ मैं मानूँ- तू हो जावे मैं ‘क्या जानूं?’
मेरी चिर-साध जभी हो जावे पूरी। मैं पाऊँ तू, ‘तू मैं, फिर ‘मैं, क्या जानूं?’