ये भयंकर भूलें कदापि न करें।

December 1953

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(प्रो. मोहनलाल वर्मा, बी.ए.एल.एल.बी.)

मनुष्य के दैनिक व्यवहार में ऐसी अनेक भूलें हैं, जिनसे उनका जीवन विषाक्त बनता है और व्यवहार में कटुता उत्पन्न होती है। सर्वप्रथम भूल यह है कि हम दूसरों को बरबस अपनी तरह विश्वास, मत, स्वभाव एवं नियमों के अनुसार कार्य करने और जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करते हैं। मान लीजिये, आप घर के सबसे बड़े सदस्य हैं। आप सुशिक्षित सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व के व्यक्ति हैं। अपने नीचे के व्यक्तियों का सुधार करने उन्हें अपने मतानुसार ढालने को बाध्य करते हैं, किन्तु आप देखते हैं कि आपकी बातें नहीं मानी जाती, थोड़े बहुत आचरण सुधारने के अतिरिक्त आपके मत को कोई नहीं सुनता। तर्कपूर्ण और उत्तम होते हुए भी इन सूचनाओं की अवहेलना की जाती है। चूँकि आपकी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता, आप मन में दुखी अतृप्त से रहते हैं। मन भारी भारी सा रहता है। दूसरों को बरबस सुधार डालने, अपने विचार या दृष्टिकोण को जबरदस्ती थोपने की भूल कदापि न करें। आप बाह्य जोर डालकर, डरा धमकाकर अथवा अन्य ऊपरी उपायों से अपने परिवार, आफिस स्कूल या ग्राहकों के स्वभावों को नहीं बदल सकते।

स्मरण रखिए, मनुष्यों के स्वभाव, रुचि, दृष्टिकोण, रहने सहने के ढंग और विचार पद्धतियाँ भिन्न भिन्न हैं। आप जैसे हैं, वैसा दूसरा कोई नहीं है। सबका आन्तरिक वातावरण एवं मानसिक संस्थान पृथक-पृथक है। जन्म से एक ही परिवार में रहने वाले भाई-भाई या बहिन-बहिन में हर बात की पृथकता है, जीवन के भिन्न-भिन्न आदर्श हैं। आत्म विश्वास या मानसिक विकास के स्तर भी प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही निर्धारित करता है। एक स्तर से विकास का दूसरा स्तर पार करने में पृथक समय लगेगा अतः मनोवैज्ञानिक मार्ग यह है कि आप दूसरों को प्रेममय संदेश भाव ही देते रहें, पर उनके निश्चय में, कार्य व्यापार में पूर्ण स्वतन्त्रता हो। बन्धन द्वारा मानव की प्रतिभा तथा मौलिकता का ह्रास होता है। अधिक नियन्त्रण से मानसिक तनाव उत्पन्न होता है। जबरदस्ती करने से दूसरे व्यक्ति में विरोध की भावना उत्पन्न होती है। सुधारक एवं जिसका सुधार दृष्ट है- दोनों का जीवन रसहीन हो जाता है और इनके विरोध में क्रोध, असन्तोष एवं उत्तेजना का जन्म होता है। मनुष्य की यह प्रकृति है कि वह नियन्त्रण एवं बन्धन के विरुद्ध बगावत करता है, पर प्रेममय संकेत, मुस्कराते हुए सुझाव स्वीकार कर लेता है।

स्मरण रखिए, मनुष्य अपनी सहज वृत्तियों के बल पर साँसारिक जीवन व्यतीत करता है। उसके अन्तःकरण में जो आदतें प्रारम्भ से बनी हैं, उन्हें पूरा करने, वैसे ही रहने, खाने पीने में आनन्द का अनुभव करता है। हम में से प्रत्येक के आनन्द प्राप्त करने के ढंग भिन्न भिन्न हैं। हमारा बन्धन और नियन्त्रण उसके आन्तरिक जीवन में बाँधा उपस्थित करता है।

नील नामक मनोवैज्ञानिक ने बच्चों के लिए “फ्रीडम स्कूल” (अर्थात् स्कूल में छोटे बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्रता देकर केवल प्रेममय संकेत द्वारा शिक्षण) की योजना रखी है। उनके अनुसार बच्चे जैसे चाहे रहें, पढ़े या न पढ़ें, कक्षाओं में जायें या न जायें, उनका वृत्तियाँ दिलचस्पी उत्पन्न कर आत्म विश्वास की और लगाई जायें। उन्हें अपने आप, कम से कम बाधा उत्पन्न कर शिक्षित होने दिया जाय। यदा कदा प्रेममय संकेत दे दिये जाया करें। इस योजना के परिणाम बड़े सफल रहे हैं। अनुचित बन्धन, डाट फटकार, मारपीट, जुरमानों से बचकर बच्चों में आत्मविश्वास की रुचि उत्पन्न हुई है। केवल उत्साहवर्द्धक संकेतों से उनमें खुशी अपने कार्य अच्छी तरह समाप्त करने की आदतों का विकास हुआ है।

मनुष्य का अनुभव ही सर्वोत्तम शिक्षक है। हम अपने कटु मृदु अनुभवों के आधार पर स्वयं ज्ञान प्राप्त करते हैं। विश्व के संकट धीरे-धीरे मनुष्य को जो ज्ञान प्रदान करते हैं, यह ठोस स्थायी ज्ञान हैं। जिस व्यक्ति का सुधार करना है, उसे परोक्ष रूप से उसकी गलती का अनुभव कराइए, प्रेमपूर्ण संकेत दीजिए पर सावधान! बन्धन या अनुचित नियन्त्रण दबाव मत आने दीजिए। वास्तव में हम स्वयं अपने अनुभव से, नाना टक्करें खा खाकर बातें सीखते हैं।

अनेक व्यक्ति स्वयं अर्जित बल पर ही जीवन-निर्माण कर सकते हैं। यदि इन्हें साधारण स्कूलों में पढ़ाया जाता, तो सम्भव था, वे इतने स्थायी विद्वान न बन पाते। उनकी शिक्षा में किसी बन्धन या नियन्त्रण ने कार्य नहीं किया। शेक्सपीयर किसी स्कूल में नहीं पढ़े थे। उपन्यासकार डिकिन्स के विषय में कहा जाता है कि लन्दन की गलियाँ उसकी विश्वविद्यालय थी। रविन्द्रनाथ ठाकुर जैसे महान कवियों के व्यक्तित्व का ज्ञान उनके वैयक्तिक अनुभवों के बल पर हुआ था। प्रकृति देवी के साक्षात संसर्ग में आये और उसी के द्वारा उन्हें संसार का वह अनुभव प्राप्त हुआ, जिसके द्वारा उनकी ईश्वर प्रदत्त सर्वतोमुखी प्रतिभा विकसित हो सकी। मनुष्य एक जीवित पिंड है। इसे कोई नर साँचे में नहीं डाल सकता। उसकी वैयक्तिक रुचि और अंतःप्रेरणा के आधार पर ही उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।

स्वतन्त्रता मनुष्य की सुषुप्त आन्तरिक शक्तियों को जागृत करती है, बन्धन और नियन्त्रण उसका ह्रास करता है। प्रत्येक व्यक्ति का आन्तरिक जीवन स्वभाव, आदतें, रुचि, संस्कार ही उसके जीवन का ध्रुव तारा है। फूल के समान उसे स्वयं मौलिकता से खिलने, विकसित होने दीजिए। चतुर माली की तरह प्यार से उसे दुलराइये, प्रोत्साहित कीजिए, प्रेममय संकेत दीजिए किन्तु सावधान! दूसरे को अपने स्वभाव या रुचि के अनुसार जीवन व्यतीत करने को बाध्य मत कीजिए। बन्धन और नियन्त्रण उसकी कार्य शक्तियों को पंगु कर देगा।

आप स्वयं जैसा चाहें कार्य करें, जैसे चाहें जीवन व्यतीत करें, खाएँ पीएँ, किन्तु दूसरों को उनके स्वभाव एवं आदत के अनुसार जीने दीजिए। दूसरों के आनन्द प्राप्त करने के तरीके पृथक-पृथक हैं। उन्हें इतना अवसर दीजिए कि वे अपने ढंग से जीवन का मजा लूट सकें, स्वच्छन्द वायु में विचरण कर सकें, जहाँ चाहें फिर सकें, उठ, बैठ, खेल, खा सकें। यदि इसमें कुछ भी परिवर्तन की इच्छा है, तो प्रेममय सुझाव के रूप में एक मित्र की तरह अपना संकेत आने दीजिए।

संक्षेप में दूसरों को सुधारकर अपने स्वभाव, रुचि, शिक्षा, उन्नति या आदर्शों के अनुकूल बना लेने की कोशिश करने की मूर्खता मत कीजिए। बरबस सुधार थोपने से न सुधार होता है, न आपका ही मन प्रसन्न रहता है। प्रत्युत दूसरा व्यक्ति मित्र से शत्रु बन जाता है।

रजनीश के ये शब्द कितने मार्मिक हैं ‘तू अपने रास्ते पर चल और दूसरों को अपनी राह चलने दें... व्यर्थ हस्तक्षेप कर झगड़ा न कर। सभी को आँखें मिली है और अपना रास्ता हर एक स्वयं चुन सकता है। रास्तों के लिए झगड़ा जंगली दिनों का सूचक है। मुहम्मद कहा करते थे कि ठीक रास्ता गलत रास्ते से अपने आप साफ होता है। उसके लिए जबरदस्ती या जिद की जरूरत नहीं है।”

कुछ व्यक्तियों की यह धारणा है कि व्यक्तिगत उन्नति दूसरों के अधिकारों को कुचलने, अपहरण करने, अपने से नीचे वालों को व्यक्तिगत हानि पहुँचाने या दबाने, धमकाने, डाँटने फटकारने से प्राप्त होती है।’ यदि हम अमुक व्यक्ति को दबाये रखेंगे, तो अवश्य परोक्ष रूप में हमारी उन्नति हो जायगी, अमुक व्यक्ति हमारी उन्नति में बाधक है, अमुक हमारी चुगल करता, दोष निकालता, मानहानि करता अथवा अवनति का कारण है। अतः हमें अपनी उन्नति न देखकर पहले अपने प्रतिपक्षियों को रोके रखना चाहिए।” ऐसा सोचना और दूसरों पर अपनी असफलताओं का कारण मानना, भयंकर भूल है।

दूसरों को अपनी अवनति या पीछे पड़े रहने का दोषी मत बनाइये, उन पर अपनी असफलताएँ या दुर्बलतायें मत थोपिए, दूसरों के अधिकारों को दबाने से उनको व्यर्थ ही हानि पहुँच जायेगी और स्वयं आपको कुछ व्यक्तिगत लाभ न होगा। सम्भव है, हानि पहुँचने वालों में आपके कोई हितैषी मित्र सुहृदय हों, जो आपके अनुचित व्यवहार से क्रुद्ध होकर उल्टे हानि पहुँचाएँ।

व्यक्तिगत उन्नति की आधारशिला मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक विशेषताएं ही हैं। दूसरों को दबाना, चुगली करना या कुचलना तो आपकी ईर्ष्या, क्रोध एवं उत्तेजना की प्रक्रियाएँ हैं। जो व्यक्ति इस तुच्छ दमन के कार्य में लगा रहता है, उल्टे उसकी ही एकत्रित शक्तियों का क्षय हो जाता है। अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या की अग्नि सुलगती रहकर समस्त मौलिकता, साइंस एवं नवोत्साह को मार डालती है। अपनी अच्छी बुरी अवस्था के जिम्मेदार हम स्वयं ही हैं। दूसरों पर व्यर्थ कलंक कालिमा पोतने की भूल कदापि न करें। स्वयं अपनी उन्नति करें, दूसरों को अपने मार्ग का कंटक कदापि न समझें।

जो गलतियाँ, प्रतिकूलताएँ, खराबियाँ, हानि दूर नहीं की जा सकतीं, जो तीर हाथ से निकल चुका है, जिसके बारे में आप बेबस हैं, उस पर बैठे-बैठे चिंता करना, पछताना, आत्मग्लानि के शिकार रहना बार-बार घूम फिरकर उसी का शोक बनाते रहना एक भयंकर भूल है। इस चिंता की आदत को त्याग देना ही श्रेष्ठ है।

तनिक सोचिए, यदि आपका मित्र परिवार का कोई सदस्य स्वर्गवासी हो गया है, तो अब उसके विषय में चिंतित होने से क्या लाभ? आपके पुत्र-पुत्री का पत्र काफी दिनों से नहीं आया है, आप कई पत्र भी लिख चुके हैं पर उत्तर नदारद! अब आप क्या करें? तार दे दीजिए, साथ ही एक लम्बा पत्र लिख दीजिए। बस, अब चिंता छोड़ दीजिए। आपने अपना-सा सब कुछ कर दिया अब व्यर्थ की चिंता से क्या लाभ?

चिंता छोड़िये, कहने का तात्पर्य यह नहीं कि आप प्रयत्न न करें। आप पूरी कोशिश कर डालिये, कोशिश में कोई कसर मत छोड़िये, इसके उपरांत चिंता छोड़ दीजिए। जो विधि का विधान बदला नहीं जा सकता, जो सुधार की सीमा के बाहर है, उस पर व्यर्थ चिंतित होने से क्या लाभ? चिंता में फँसकर व्यर्थ शक्ति क्षय करने की भूल मत कीजिए।

मरा हुआ व्यक्ति चिंता से वापस नहीं आयेगा। व्यापार में हुई आर्थिक हानि या हारा हुआ मुकदमा चिंता से नहीं जीता जा सकता। घर से भागा हुआ लड़का कलपने, रोने, पीटने से वापस नहीं आ सकेगा। चोरी हुआ माल चिंता से पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। गिरता हुआ स्वास्थ्य चिंता से और भी जल्दी गिरता जायगा। परीक्षा में फेल होकर आत्महत्या करने से क्या पास हो सकेंगे? कदापि नहीं। घर में छोटे बड़े झगड़े टंटे हर एक के यहाँ चलते हैं जो समय पाकर स्वयं ठीक हो जाते हैं। जहाँ आपका कोई बस नहीं, उन बातों पर व्यर्थ चिंतित होना एक भूल है।

जिद्दीपन सर्वथा त्याज्य है।

चरित्र में दृढ़ता अपने कार्य के प्रति लग्न बहुत उत्तम गुण है, जिद्दीपन से अपने ही मत, विचार या आदर्शों पर डटे रहना एक भूल है। जिस गुण की सर्वाधिक आवश्यकता है, वह चरित्र की परिस्थितियों के अनुकूल लचक अर्थात् परिवर्तित हो जाना है। आपका अफसर न जाने किस प्रकृति का व्यक्ति हो उसकी धारणाएँ भी विभिन्न हो सकती हैं। यदि आप लचक कर अपने को उसके अनुसार ढाल सकें, अपने को बदल कर अपना काम निकाल सकें जिद न करें, तो आप व्यवहार कुशल हैं। काँच लचक नहीं सकता, टेढ़ा होते ही टूट जाता है। बेंत लचकीला होने से हर स्थिति में कामयाब होता है। संसार में काँच की तरह दृढ़ रहने से आप टूटेंगे, इधर उधर पूरे संसार में असफल, जिद्दी, सनकी कहे जायेंगे। बेंत की तरह लचकीले, परिस्थिति के अनुसार ढलने का गुण धारण कर आप सर्वत्र प्रेम तथा आदर के पात्र बनेंगे। हो सकता है, बाद में आपके व्यक्तिगत मत या धारणाएं भी दूसरे स्वीकार कर लें, किन्तु पहले तो आपकी लचक ही आपकी सहायक होगी।

जिद्दी और अड़ियल स्वभाव के मत बनिये। विद्वान भी जिद्द से सनकी कहलाता है। आज आप जिस बात पर जिद्द कर रहे हैं, कल सम्भव है वह आपको स्वयं ही गलत प्रतीत होने लगे। यदि आप लचक कर कुछ दूसरों की सुनें, तो उसका सार तत्व ग्रहण कर सकेंगे और अपनी विचारधारा को मजबूत बना सकेंगे।

जब हम चरित्र में लचक धारण करने को कहते हैं, तो हमारा तात्पर्य यह नहीं कि आप दूसरों के गलत त्रुटिपूर्ण अतर्कपूर्ण मन्तव्य को स्वीकार कर ही लें। आप कुछ देर के लिए उसके सामने उसका मन्तव्य स्वीकार कर लीजिए पर कीजिए अपने मन की बात। इससे दूसरे व्यक्ति के अहंभाव की रक्षा हो जायगी और वह आपका मित्र बन जायगा।

एक व्यक्ति ने एक विद्वान की पुस्तक की पाण्डुलिपि में कुछ गलतियाँ निकाली और उन्हें सुधारने को कहा। विद्वान ने उस व्यक्ति के समक्ष काटकर उसके अनुसार लिख लिया। वह प्रसन्न हो उठा पर उसके चले जाने के उपरान्त पुनः ज्यों का त्यों कर दिया। जरा सी लचक से वह व्यक्ति भी प्रसन्न हो उठा, विद्वान का कुछ न बिगड़ा।


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