उन्नति की कसौटी

December 1953

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(श्री. राधेश्याम दीक्षित, बी.ए. एल.एल.बी. लखनऊ)

प्रत्येक मनुष्य अपनी उन्नति का इच्छुक रहता है। मनुष्य ने जो भी साधन आज तक बनाये हैं वह कम से कम उन्नति के ही दृष्टिकोण से निर्धारित किये हैं चाहे उनसे उन्नति हुई हो और चाहे न हुई हो। परिवार, समाज, जाति, राज्य, राष्ट्रीयता, और अन्तर्राष्ट्रीयता, साम्यवाद, लोकतंत्र, गणतन्त्र, इत्यादि सभी वाद ओर तन्त्र उन्नति उन्नति चिल्लाते हैं। गत युद्ध ही को देख लीजिए जर्मनी, इटली, जापान भी उन्नति के लिए लड़े तथा अमेरिका और इंग्लैण्ड भी उन्नति के लिए लड़े। आज भी एक हड़ताल करने वाला मजदूर भी उन्नति के लिए लड़ता है तथा रुपया बटोरने वाला मिल मालिक भी। इस सबका स्पष्ट अर्थ यही है कि सब अपनी अपनी हाँकते हैं। दूसरे की ओर ध्यान नहीं देते या दूसरे शब्दों में एक विश्वव्यापी और व्यापक दृष्टिकोण से ब्यौरेवार समस्याओं को सुलझाने के बजाय एक ‘वाद’ अथवा सामान्य सिद्धान्त को ही सार्वजनिक और सार्वपारिस्थितिक बनाने की चेष्टा करते हैं।

व्यक्ति का उत्थान उसी क्षण से आरम्भ हो जाता है जिस क्षण से वह आत्मोन्नति के विचारों की सुदृढ़ धारणा अपने हृदय में अंकित कर लेता है। उसको अपनी कमी का आभास हो जाता है और वह उसकी पूर्ति के लिए सक्रिय हो जाता है।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी परिस्थिति विशेष होती है। अपनी परिस्थिति से किसी किसी को इतना संघर्ष करना पड़ता है कि प्राणान्त ही हो जाता है। ऐसे ही लोगों के उदाहरणों को देकर लोग कहते हैं कि मनुष्य स्वयं कुछ कर ही क्या सकता है। जैसे उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति के कूबड़ निकला है और उसके फेफड़े तथा हृदय कमजोर हैं किन्तु वह सैनिक बनना चाहता है। कोई धन हीन विद्वान है वह कोई ग्रन्थ लिखना चाहता है, लोग विभिन्न विषम परिस्थितियों का वर्णन करते हैं। आत्मोन्नति चाहने वाले व्यक्ति को सर्व प्रथम अपने लक्ष्य की स्पष्टता निर्धारित करनी चाहिए। लक्ष्य निर्धारित करते समय उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति सब कुछ नहीं हो सकता। एक ही व्यक्ति एक उच्च कोटि का सैनिक तथा साथ ही साथ उच्च कोटि का नर्तक नहीं बन सकता। मनुष्य को अपनी योग्यताओं के अनुकूल अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए।

हमारा लक्ष्य चाहे जो भी हो हमें जीवन से तीन प्रश्नों को किसी न किसी प्रकार सुलझाना ही पड़ता है।

जिस समाज में हम उत्पन्न हुए हैं अथवा जिस समाज में हम रहते हैं, अथवा रहना चाहते हैं, हमें अपने को उसके अनुकूल बनाना ही पड़ेगा।

जीवन यापन के लिए हमें कोई न कोई व्यवसाय अथवा वृत्ति अन्य किसी अर्थकारी साधना का अवलम्ब ग्रहण करना पड़ता है।

जीवन की भावनात्मक वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए कुछ न कुछ कार्य करना पड़ता है। इस शीर्षक के अंतर्गत विवाह तथा प्रेम की समस्या आती है।

यदि कोई व्यक्ति यह चाहे कि उसके जीवन में कोई संघर्ष न हो, उसे कोई समस्या न सुलझानी पड़े, सभी चीजें उसके अनुकूल हो जायं और वह अपने को परिस्थिति के अनुकूल न बनाये तो ऐसे मनुष्य के लिए जीवन भार हो जायेगा, वह स्वयं अपने जीवन से खीझने लगेगा, वह स्वयं के लिए अभिशाप हो जायेगा और दूसरों के लिए अभूतपूर्व समस्याएं उत्पन्न करेगा।

छोटे बच्चे, पागलों, कुछ प्रकार के रोगियों, तथा अतीव वृद्ध व्यक्तियों को छोड़कर प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के विषय में सोचकर प्रगति की ओर अग्रसर हो सकता है, यह दूसरी बात है कि उसे आशानुकूल सफलता न प्राप्त हो। यहाँ पर यह कहना अशंसंकितयडडडडडडडडड न होगा कि सफलता तथा उन्नति मापने के लिए स्पष्ट मापदण्ड नहीं हैं। भवभूति गैलीलियो सुकरात इत्यादि व्यक्तियों को उनके जीवन के बाद ही सफलता मिली। प्रश्न यह है कि यदि व्यक्ति स्वयं अपने जीवन से संतुष्ट, आनन्दित, तथा प्रसन्न है और अपने कार्य को वह मनसा वाचा कर्मणा लोक हितकारी समझता है तो उसके जीवन को हम सफल तथा उन्नत कह सकते हैं।

संसार में अपने गुणों तथा परिस्थितियों के कारण मनुष्य के हाथ में बड़ी शक्ति अर्जित हो जाती है। लोग सेनापति, तानाशाह, शासक, लक्ष्मीपति, नेता इत्यादि न जाने क्या क्या बन जाते हैं। उनकी तनिक सी त्रुटि से सहस्रों मनुष्यों का प्राणान्त हो जाता है। सैकड़ों देश बन बिगड़ जाते हैं, और आज विज्ञान के युग में तो हिटलर जैसी तानाशाही मनोवृत्ति से सारे संसार का जीवन ही डावाँडोल हो सकता है।

अब एक प्रमुख प्रश्न यह उठता है कि क्या हम ऐसे जीवन को सफल और उन्नत कह सकते हैं जिसमें कोई व्यक्ति स्वयं अपने जीवन से संतुष्ट रहकर अपने कार्यों को लोकहित कारी मानकर अपना जीवन यापन करता है किन्तु उसका जीवन दूसरों के लिए कंटकाकीर्ण हो जाता है। पागल खाने में बहुत से ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो अपने कार्यों को अतीव लोक हितकारी समझते हैं जो अपने जीवन से संतुष्ट रहते हैं तथापि यह सर्वविदित ही है कि पागल खाने में रहने वाले ये व्यक्ति उन्नत नहीं कहे जा सकते।

पागल व्यक्ति में तथा सामान्य तथा उन्नति शील व्यक्ति में क्या अन्तर माना जाय? पागल व्यक्ति अपने विरोधियों की भावना को नहीं समझता। वह उनका विश्लेषण नहीं कर सकता किन्तु सामान्य तथा उन्नति शील व्यक्ति अपने विरोधियों की भावना को पूर्ण रूप से समझता है और समय समय पर वह उनसे सहमत भी हो सकता है और कभी कभी तो यह उन विरोधियों के साथ सम्मिलित भी हो सकता है। विरोधियों के प्रति सहिष्णुता तथा उनकी मनोवृत्ति को समझना उन्नति तथा प्रगति का परिचायक है। विरोधियों के प्रति असहिष्णुता से ही विक्षिप्तता का आरम्भ होता है। यहाँ पर प्रयुक्त विरोधी शब्द में और शत्रु शब्द में अन्तर है।

किन्तु वस्तु में दोष होने से उसका विरोध किया जाता है। किन्तु शत्रुता तो उस स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति का परिणाम है जो बिना गुण दोष पर विचार किये ही अपने विपक्षी के उन्मूलन में कटिबद्ध हो जाती है।

संसार में कौन सा कार्य उचित अथवा कौन सा कार्य अनुचित? इसके लिए कोई नियम नहीं बताया जा सकता। औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न सारे मानव समाज से सम्बद्ध है और बिना व्यापक मानवीय दृष्टिकोण के इस प्रश्न पर विचार ही नहीं किया जा सकता। प्रत्येक कार्य के औचित्य अथवा अनौचित्य का प्रश्न एक ब्यौरे की चीज है और प्रत्येक प्रश्न पर अलग से ही विचार करना चाहिए।

उन्नति क्या है और अवनति क्या है इस सम्बन्ध में लोगों के दृष्टिकोण भिन्न भिन्न हैं। एक विषमान रोगी, स्वार्थी, मनुष्य की उन्नति और एक आत्म ज्ञानी परमार्थ प्रिय व्यक्ति की उन्नति का मापदण्ड एक दूसरे से विरुद्ध होता है। एक जिस बात को उन्नति मानता है उसी को दूसरा अवनति कहता है। ऐसी दशा में यह जानना कठिन हो जाता है कि वास्तविकता क्या है।

विचारकों और विद्वानों के अनुभवों से यह पता चलता है कि रुपया पैसा बढ़ना कोई उन्नति नहीं, वरन् अनेक आपत्तियों की जननी है, इससे व्यक्ति का निज का तथा समाज का अहित ही होता है इसलिए हमारे पूर्वज धन संचय होने पर उसे दान आदि शुभ कार्यों में खर्च करते रहते थे। स्वास्थ्य की उन्नति, विद्या की उन्नति, अनुभवों की उन्नति, सन्मित्रों की संख्या की उन्नति, योग्यताओं और गुणों की उन्नति इन्हें संसार की ऐसी उन्नतियों में कहा जा सकता है जिनसे अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है।

सबसे बड़ी उन्नति आत्मिक उन्नति है। सद्भावनाओं की, शुभ संकल्पों की, उच्च चरित्र की और आदर्श निष्ठा की सम्पत्ति ऐसी है जिसे पाकर मनुष्य सच्चा धनी बनता है। दया, प्रेम, करुणा, मैत्री, सेवा, उदारता, संयम तथा सच्चाई जिसके मन में बढ़ने लगे समझना चाहिए कि वह वास्तविक उन्नति की ओर अग्रसर हो रहा है।

ईश्वर भक्ति, सब में परमात्मा को देखना, अपने में ईश्वर की झाँकी करना यह उन्नति का सर्वोच्च शिखर है। आत्मा में परमात्मा का दर्शन करने वाले मनुष्य जीवन को सब प्रकार सफल और पूर्ण उन्नतिशील कहा जा सकता है।


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