क्या साधुओं की हिन्दू जाति को आवश्यकता नहीं?

December 1953

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(ले. श्री स्वामी रामानन्द संन्यासी काशी)

काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी शश्य शालिनी। देशेऽयं क्षोभ रहितः साधवः सन्तुनिर्भया॥

अनादि काल से समाज दो भागों में विभक्त होता चला आता है। एक विभाग निवृत्तिशीलों का है और दूसरा प्रवृत्ति परायणों का या यों कह लीजिए कि- एक दल त्यागियों का और दूसरा संग्रहियों का। वास्तव में संसार में आवश्यकता दोनों की है। संग्रही प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग कर और कराकर दुनिया की कमी को पूर्ण करता हुआ लोगों को सर्व कर्म करण समर्थ बनाता है और त्यागी साँसारिक पदार्थों की अनित्यता, असारता आदि बोधन करता हुआ मनुष्य को यह उपदेश देता है कि जिन पदार्थों से तू लाभ ले रहा है ये सब जिसकी सत्ता स्फूर्ति से तेरे उपयोग में आने की सामर्थ्य रखते हैं तुझे उस तत्व का अनुसन्धान करना चाहिए। अब मानव! तू यदि इन्हीं को सब कुछ मान बैठेगा तो तेरी बिगड़ी कुछ भी न बन सकेगी ये पदार्थ तेरे काम आ सकते हैं, किन्तु तेरे सब काम इन्हीं की सहायता से पूर्ण हो जायेंगे यह बात नहीं है इत्यादि।’ उक्त त्यागी समाज में साधु सन्त महात्माओं की गिनती है और संग्रही- समाज में गृहस्थाश्रमियों की गणना है।

पूर्व का संग्रही मनुष्य बाद में जब त्यागी याने साधु हो जाता है तो वह उस दशा में अपने अनुभव से लोगों को जो आदेश देता है, उससे प्रवृत्ति परायण प्राणियों को साँसारिक व्यवहार वहन करने में बड़ी सहायता प्रदान कर सकता है। इसलिए साधु समाज पहले और अब भी अपने अमूल्य- सामाजिक आवश्यक उपदेशों से जनता जनार्दन की सहायता सेवा पथ प्रदर्शकता आदि कर सकता है। महाभारत से पूर्व लोग विज्ञाधर्मज्ञ विद्वान थे, जनता पढ़ी लिखी थी, समझदार थी। उस समय साधु लोग स्वयं आदर्श बनकर तपश्चर्या द्वारा जनता को शीतोष्ण आदि द्वन्द्व सहन करने की शिक्षा देते हुए उसके जीवन को तपोमय बनाने का यत्न किया करते थे और महाभारत के अवांछनीय समय के बाद शास्त्रीय शिक्षा दीक्षा से रहित लोगों को उपदेश कथा पाठ प्रवृत्ति से लाभान्वित करते रहे तथा करते हैं।

इस समय मैं परम प्राचीन घटनाओं का उल्लेख न करता हुआ उस समय के बाद की बात कहना चाहता हूँ जिस समय अर्वली के पहाड़ों से उतर कर सुजला सुफला शश्य श्यामला भारत भूमि, दुदन्ति विदेशियों द्वारा आक्रान्त हुई थी। उस समय समर्थ सन्त रामदास की प्रेरणा से छत्रपति शिवाजी ने मिटती हुई हिन्दू जाति को अमिट बना दिया था। पंजाब के गुरुओं ने आर्य सभ्यता के (बुझते हुए) प्रदीप को बुझने से बचाया था। आचार्य शंकर ने विनाशोन्मुख वैदिक विज्ञान की नौका डूबने से बचा ली थी। आचार्य रामानुज ने हिंसा की पाप सब प्रवृत्ति को उखाड़कर फेंक देने में बड़ी तत्परता दिखाई थी। रामानन्द मुनी ने तपश्चर्या और कबीर दास ने समन्वय की दीक्षा से हिन्दू जाति के देह में प्राणवायु का संचार कर दिया था। स्वामी विवेकानन्द की ज्ञान, सेवा, और उपासना रूप स्कन्धत्रयी ने देश विदेशों में हिन्दू जाति का मस्तक ऊँचा कर दिया। रामतीर्थ के वेदान्त ने लोगों को शेर नर बना देने में बड़ी सहायता दी। नामदेव-ज्ञानेश्वर, दयानन्द, नारायण, दाढू, गुरुनानक, गौराँग आदि सन्तों ने समय समय पर लोगों का जो उपकार किया है उसको न्यूनाधिक रूप से प्रायः सब लोग जानते हैं। कहाँ तक कहें साधू समाज ने हिन्दू जाति के विशाल वृक्ष को समय समय पर अपनी तपश्चर्या, त्याग, ज्ञान तथा उपदेश प्रभृति जल, खाद आदि से सिंचन आदि संस्कृत करने में कोई बात उठा नहीं रखी।

आज भी नगर नगर गाँव गाँव में - साधु लोग हिन्दू जाति को सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और पारमार्थिक प्रभृति सभी कार्यों में सहयोग तथा सहायता दे रहे हैं, रामकृष्ण मिशन के उद्योग से कलकत्ते से हुए ‘सर्व धर्म - सम्मेलन, में ऐसे ऐसे संन्यासी महात्मा दिखाई दिये जो भारत के बाहर विदेशों में ज्ञान, भक्ति हिन्दू सभ्यता का धुँआधार प्रचार प्रसार कर रहे हैं और जो यहाँ धार्मिक तथा नैतिक प्रचार कर रहे हैं उनकी नामावली मात्र लिखने बैठूँ तो एक ग्रन्थ तैयार हो जायगा।

साधुओं का काम आध्यात्मिक सहायता देना है, जिसकी आजकल के डावाँडोल जमाने में बड़ी आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अस्तेय, सत्य, भाषण और मादक द्रव्य निषेध का उपदेश देकर आज भी साधु समाज हिन्दू जाति की बहुत बड़ी मदद कर रहा है। जो साधु लोग उक्त नियम के विरुद्ध आचरण करते पावें, हम उनको ऐसा समझते हैं जैसे चन्द्रमा के काले दाग।

आजकल की अन्याय जातियाँ विपुल धन-राशि व्यय करके अपने उपदेश के द्वारा जनता में स्वसिद्धान्त का प्रचार करती हैं। किन्तु हिन्दू जाति के सौभाग्य से अनादि काल से त्यागी संयमी परिव्राजक एक समुदाय ही स्वतन्त्र बना हुआ है, जो प्रचार को अपना ध्येय लक्ष्य कर्तव्य मानता हुआ आज तक उस काम को बड़ी तत्परता से सर अंजाम दे रहा है, हिन्दू जाति के ये पुश्तैनी प्रचारक यद्यपि बहुत कम हैं पर आर्य सभ्यता के बड़े बड़े दुर्गम स्थानों में प्रचार करने में कुछ कोर कसर नहीं रखते।

‘साधु’ सज्जन उनको भी कहते हैं चाहे यह गृहस्थ हो किन्तु साधु शब्द उक्त विरक्त का ही अटल में बोधक है। कुछ गुणादि सादृश्यात वह गृहस्थाश्रमी पुरुषों में भी प्रयुक्त होने लगा होगा।

अन्त में मैं कहकर अपना लेख समाप्त करता हूँ कि- हिन्दू जाति की नस नस को आध्यात्मिकता से आत्मज्ञान से आप्यायमान करने वाले साधुजनों से हिन्दू जाति को भी लाभ है, जो हित है वह यह या उस जैसा हित साधन और किसी से भी नहीं है, परन्तु यह हित साधन सच्चे साधुओं से ही हो सकता है। दुर्भाग्य से आज सच्चे साधु कम ही दृष्टिगोचर होते हैं फिर भी उसका सर्वथा अभाव नहीं समझ लेना चाहिए। साधु पुरुष किसी भी राष्ट्र की सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को सुरक्षित रखना, बढ़ाना और पोषण करना प्रत्येक राष्ट्र और धर्म से प्रेम करने वाले का कर्तव्य है।


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