माता का स्नेह और मातृ-पूजा

March 1952

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(श्री भूपेन्द्रनाथ सन्याल)

हम क्या प्रेम कर सकते हैं प्रेम करने वाले वे प्राण ही हमारे अन्दर कहाँ हैं? तन मन की सुधि भुला देने वाले और जगत की विस्मृति करा देने वाले भाव में डूबने के लिए हमारे प्राणों में वह आकर्षण ही कहाँ है? इसी से हम न तो प्रेम का स्वरूप ही जान सकते हैं और न प्रेम कर ही सकते हैं? हम इस संसार में जो प्रेम करते हैं, वह तो मानो राक्षसी प्यार है, वह प्रेम तो हम करते हैं। प्रेमास्पद को खा डालने के लिए उसे पददलित कर उसके सारे सौंदर्य को नष्ट कर डालने के लिए और लोक में उसे घृणा पात्र बना देने के लिए छिःछिः क्या इसी का नाम प्रेम है? प्रेम का स्वरूप समझे बिना प्रेम करने से वह असली प्रेम नहीं होता है, वह तो केवल इन्द्रिय-चरितार्थता होती है। जिस प्रेम का उद्देश्य इन्द्रिय-चरितार्थता है, वह कभी विशुद्ध नहीं हो सकता। इसलिए संसार में अन्त तक किसी के साथ प्रेम करके सुख नहीं मिलता। हम सभी के अन्दर जैसे देवता निवास करते हैं, वैसे ही पशु भी हैं। सभी समय हमारे हृदय सिंहासनों पर केवल देवता ही विराजित नहीं रहते। अधिकाँश समय तो हमारे अन्दर रहने वाले पशु (पशुवृत्ति) ही छिपकर प्रेम के सिंहासन पर बैठ जाते हैं और समय-असमय धीरज के बाँध को तोड़कर वे अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं। इसी से संसार में इतना हाहाकार मच रहा है और इसी से जगत में इतनी अशान्ति फैल रही है।

इस संसार में प्रेम का यत्किंचित् स्वरूप समझना या देखना हो तो माता के समीप जाओ। वहाँ बहुत कुछ विशुद्ध प्रेम का स्वरूप देख सकोगे। यह माता भी हमारी उस जगजननी का ही अंश है, उस त्रिलोक प्रसविनी नित्य माता का ही स्वरूप है, उसी का प्रतिबिम्ब है, इसी से इससे जो प्रेम मिलता है वह इतना सुन्दर और निर्मल है, ठीक मानो पुण्य सलिला भागीरथी की पवित्र धारा के समान अत्यन्त स्वच्छ, अत्यंत शुद्ध और परम पवित्र है। जो इस माता की भक्ति कर सकता है, दिल खोलकर ‘माँ’ पुकार सकता है, वह शीघ्र ही उस चिन्मयी माता को भी पहचान सकेगा। वह सर्व चराचर रूपिणी जगत्मयी हमारी माँ कितने रूपों में, कितने भावों में और कितने स्वाँगों में सजकर हमें अनवरत कितना आनंद दे रही है। हम कभी उसे आँखें खोलकर देखते हैं? माँ जैसे बच्चे को गोद में लेकर उठाकर नचाती है, वैसे ही वह सच्चिदानंदमयी माँ हमें कितने नाच-नचा रही है उसके नित्य नवीन मनोहर नित्य की भाव-भंगिमाओं में न मालूम कितने जन्म और हमारा कितना रूपांतर हो जाता है। उस माँ की हम क्या पूजा करेंगे? कितना समय उसकी पूजा में लगावेंगे? वह तो प्रतिक्षण ही हमें लाड़-लड़ा रही है, हमारी पूजा कर रही है। हम उसके मातृ हृदय को तृप्त करने के लिए ‘माँ’ ‘माँ’ पुकारें, हमारे मुख से इस ‘माँ’ शब्द को सुनने के लिए ही वह न मालूम कितने दिनों से कान लगाये बाट देख रही है कितने युग बीत गये, बाट देखते-देखते कितनी बार सृष्टि स्थिति और प्रलय हो चुके। तब भी हम ‘माँ-माँ’ पुकार कर उसके हृदय को सुखी नहीं कर सके। हाय दुर्भाग्य! हाय रे पाशविकता! हमारी उस माँ का हृदय अनन्त प्रेम का निर्झर है, इसी से वह हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है, इतनी उपेक्षा करने पर भी वह हमारी अपेक्षा कर रही है। हमारे लिए न मालूम कितने युगों से माता के वक्षःस्थल से स्तन्यसुधा की अनवरत धारा बह रही है। उस प्रेम सुधा-धारा से आज कल न मालूम कितनी प्रेम-नदियाँ और कितने प्रेम समुद्र बन गये परंतु हमारे अभागे हृदय पाषाण का एक कण भी नहीं बहा। यह जीवन की कैसी विडम्बना है? हम किस अभिमान के पहाड़ की चोटी पर बैठे हैं? वह अनंत प्रेम धारा कितने हृदयों को धोकर चली गयी, पर क्या उसने हमारे हृदय तीर को स्पर्श ही नहीं किया? नहीं निश्चय ही उसने स्पर्श किया है। हम सोच-समझ कर इस बात को नहीं देखते वह तो रोज-रोज ही स्पर्श कर सकती है, परन्तु हम उसे दिल लगाने तक ही देखते हैं! हम तो अपने मन के आवेग में ही मस्त हुए बैठे हैं, न मालूम किस काल्पनिक सुख के नशे में चूर हो रहे हैं फिर उसकी पूजा हमारे कानों में कैसे प्रवेश कर सकती है, सुनने वाला तो स्वयं पागल हो रहा है। जगत में न मालूम कितनी तरह के पागल हैं।

किसी किसी पागल को ऐसा ख्याल होता है कि हम माता की पूजा करते हैं, उसके लिए अनेक साधन करते हैं। वह हमारे इस भजन साधन से आकर्षित होकर हम पर कृपा दृष्टि करेगी। हाय रे मूर्खता! हाय रे पागलपन! इस बात को सुनते ही हँसी आती है। हम उसे आकर्षित कर सकें, ऐसी हमारे अन्दर कौन-सी शक्ति है तब भी हमारी वह माँ हमारी व्याकुलता देखकर पुकार उठती है। यह उसकी हम पर असीम कृपा है। हम उसको कहाँ पुकारते हैं? वह माँ ही तो हमें पुकारती है। हम क्या धूल उसकी पूजा करते हैं, वह तो हमारी पूजा करती है खिलौने सजकर खिलाड़ी को आनन्द देते हैं यों खिलाड़ी ही खिलौनों को सजाकर उनसे आनन्द प्राप्त करता है?

उसकी पूजा के लिए बड़ी भारी तैयारी चाहिए विराट आयोजन होना चाहिए। ऋषि मुनियों ने भक्ति विहल चित्त से इस बात को समझा था, इसी से वे मनुष्यों के लिए कुछ-कुछ प्रकट कर गये हैं। हम अज्ञानी यदि कभी उसे समझ सकेंगे, हम अन्धों की भी किसी दिन आँखें खुल जायेंगी तो पता लगेगा। अहा! ऋषियों की कितनी दया है, व्यथित पीड़ित आर्तों के लिये उनके हृदय में कितनी सहानुभूति है? क्यों न हो? माता के सच्चे सपूत तो वही हैं, जिन्होंने माँ ही को समझा है, वह माँ के मन की बात जान सके हैं। हमारी वह माँ नित्य आर्तत्राण-परायणा है, सन्तान वत्सला है। पर हम ऐसे कपूत हैं ऐसे पाषाण हृदय हैं कि ऐसी माता की ओर भी एक बार आँख उठाकर नहीं देखते। हम जिस जमीन पर बैठे हैं जिस पर से चल-फिर रहे हैं, उठते-बैठते हैं, और जिसका रस प्रतिदिन फल फूलों के रूप में नाना प्रकार के अन्न के रूप में हमें तृप्ति कर रहा है, वह कौन है? अरे, वही तो हमारी माँ है, माँ को दूसरी जगह ढूँढ़ने कहाँ जाओगे? रोज ही तो नन्हें से शिशु की तरह उसके हृदय पर चढ़ कर शक्ति भर उसका रस खींचकर पी रहे हो उसी से तुम पुष्ट हो, वही तो हमारी करुणामयी है, वही तो धरणी है—हमारी माँ! ‘महीस्वरूपेण यतः स्थितासि।’ रोज जो प्यास से व्याकुल होकर कुल-2 करते हुए जल पीते हो और उससे प्राण बचे समझते हो। जानते हो उस जल के अन्दर जीवनी शक्ति कौन है? जल पीकर क्यों तृप्ति होते हो? इस जीवन रूप में भी जगत की जीवन स्वरूपा हमारी वह माँ ही है, ‘अपाँ स्वरूपा स्थित्यात्वयेतत्’ यह जो मंद-मंद सुख भरी हवा चल रही है, जिससे शरीर और मन शाँत हो रहे हैं। यह उसी का तो स्पर्श है। जो इतना सुख देती है, इतनी स्पष्टता के साथ सदा तुम्हारे सामने खड़ी रहती है—तुम उसको कहाँ पहिचानते हो? कहाँ समझते हो अरे तुम तो समझने की चेष्टा भी नहीं करते। इतने पर भी यह कहने में नहीं सकुचाते कि वह कहाँ है? उसके दर्शन कहाँ हो सकते हैं उसको प्राप्त करना केवल बात ही बात है।’ तुम समझते हो मानो माँ सदा छिपी ही रहती है उसे खोज निकालने का भार मानो तुम्हारे ही ऊपर पड़ा हुआ है इसी से तुममें से कोई माला खटकाते हैं तो कोई फूँ-फूँ करते हुए प्राणायाम करते हैं और सोचते हैं कि माँ हमारे साधन जाल में फँस गई है, क्यों? पर यह सब कुछ भी नहीं है। बात तो ठीक इससे उल्टी है। हम उसे नहीं खोजते हैं, वहीं हमें खोज रही है। न जाने कितने दिनों से, कितने युग-युगाँतरों से वह अपना मातृस्नेहपूर्ण वक्षःस्थल लिये हमारे पीछे-पीछे दौड़ रही है, और पुकार रही है, ‘बेटा आ! दौड़ आ!’ एक बार मेरी छाती से लग जा, अरे चंचल, अरे अबोध, मेरे लाल चला आ, एक बार फिर माँ की गोद में।’

वह हमें हिलाती है, उठाती है, बैठाती है, खिलाती-पिलाती और सुलाती है, हमारे लिए वह कितने रोने-हँसने के खेल खेलती है, तब भी हम अपनी उस माँ को याद नहीं करते। उसको पुकारने और साधना करने का अब और क्या आयोजन कर रहे हो भाई? वही तो तुम्हारी सब कुछ है, वही तो तुम्हारे भीतर बाहर है, वही अस्थि-माँसमय शरीर है, वही तो तुम्हारे प्राण-मन-बुद्धि है, वही तो तुम्हारा प्रिय अन्तरतर है, अरे वही तो तुम्हारा आत्मा है। उसकी भेंट भी क्या चढ़ाओगे? वह न हो तो तुम्हारी जबान ही नहीं खुले। जो कुछ है सो तो उसी का है, किसकी चीज किसे दोगे? इतना-सा ज्ञान होने पर ही तो सारे साधन-भजन का अंत हो जाता है। इतना तो हमें अवश्य ही करना पड़ेगा, जिससे उसकी स्मृतिधारा बहती रहे। कैसे अचरज की बात है? इतनी उधेड़ बुन कर रहे हो, परन्तु उसे याद नहीं करते। लोग दिखाऊ जो ध्यान करते हो, वह भी कितनी देर? फिर उसमें भी न मालूम कितनी बार अन्यान्य विषयों का चिंतन करते हो? यह न तो उसका असली स्मरण है और न साधना ही है। उसका निरंतर चिंतन करना पड़ेगा; प्रत्येक बोध में उसी का अनुभव करना होगा। क्या तुम जानते हो कि इन्द्रियों के द्वारा यह मन जो असंख्य खेल खेलता है; वह क्या अपनी शक्ति से खेलता है जितने भी बोध के विषय हैं उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसका विकास उस माँ के पदनिक्षेप के बिना हो सकता हो। क्या तुमने कभी इस बात पर विचार किया है? मन जो इन्द्रियों के द्वारा दौड़ता फिरता है, इसके प्रत्येक वेग से जो कल्पना या चिन्ता रहती है वह उस माँ के चरण-कमलों से प्रस्फुटित रहती है। इसके सिवाय अंट-संट और जो कुछ होता है सो सब तो भूत की बेगार के ढोने के समान है। उसमें कोई भी लाभ नहीं है। उठो, जागो। नींद में ही उठकर इधर-उधर हाथ मारने से कोई लाभ नहीं होगा। भली भाँति जाग उठो, सब छोड़कर एक बार जगकर बैठ जाओ। जो कुछ है, सब उसी का है, वही सच है, इस स्मृति को स्पष्ट कर डालना होगा। इसी का नाम यथार्थ साधना है इसके अतिरिक्त और सब तो गुड़ियों के खेल हैं। इसी साधना से मातृ स्नेह का आदर कर माता की यथार्थ पूजा करो।


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