क्या स्त्री ब्रह्मचर्य में बाधक है?

March 1952

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(श्री वीरेन्द्र सिंह जी, कोटा)

अविवाहित रह कर ब्रह्मचर्य पालन करने के समान, विवाहित होते हुए भी ब्रह्मचर्य पालन करना सम्भव है, वरन् बहुत हद तक सुगम भी है। जो लोग विवाहित हैं उन्हें समझना चाहिए कि—पत्नी गृहस्थ धर्म का मूल है। उसे कामोपभोग की सामग्री या ब्रह्मचर्य का विघ्न समझना भूल है।

साधारण तथा पत्नी से दूर रहने से नारी जाति के प्रति वासनामय विचारों की सृष्टि होती है। दूरी में सदैव एक आकर्षण रहता है जो समीपता में नष्ट हो जाता है। जिन्हें दाम्पत्य जीवन अप्राप्य है उन्हें वह अप्राप्य वस्तु बड़ी आकर्षक और सरस दीखती है और उसकी प्राप्ति के लिए उनके मनः क्षेत्र में बड़ी घुड़दौड़ मचती रहती है, किंतु जो पति-पत्नी साथ साथ रहते हैं वे यदि चाहें तो स्वाभाविक और सरल जीवन व्यतीत करते हुए उन विकारमय विचारों से सहज ही बच सकते हैं।

जब तक परीक्षा की कसौटी न हो तब तक यह नहीं जाना जा सकता कि किस की साधना किस हद तक परिपक्व हो चुकी है। जो लोग अविवाहित रह कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उनकी निष्ठा किस हद तक परिपक्व हो चुकी है इसका ठीक प्रकार पता नहीं चलता, वे प्रलोभन के समय फिसल सकते हैं। परन्तु जो प्रलोभन से नित्य संघर्ष करते हैं उन्हें पता रहता है कि वे कितने संयमशील हो चुके हैं। साधन सामने रहते हुए जो त्याग कर सकता है उसी का त्याग परीक्षित है। अभाव को त्याग मान कर सन्तोष कर लेना, एक कच्चा आधार ही रहता है।

पति-पत्नी यदि वासना पर विजय प्राप्त करते हुए संयमशील जीवन बितावें तो वासना के स्थान पर एक अत्यंत शक्तिशाली आध्यात्मिक तत्व का आविर्भाव होता है जिसे ‘पतिव्रत’ या ‘पत्निव्रत’ कहते हैं। यह तत्व दाम्पत्य जीवन की पूर्णता, पारिवारिक सुव्यवस्था उत्तम संतति एवं आत्म शाँति के लिए बहुत ही उपयोगी एवं आवश्यक होता है। यह तत्व मानव जीवन की एक अपूर्णता को पूरा कर देता है।

द्वैत को मिटाये बिना, अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। स्त्री से दूर रहने वाला उससे घृणा करने वाला व्यक्ति , उसे अपने से भिन्न एवं विपरित मानता है ऐसी दशा में उसकी द्वैत बुद्धि मजबूत होती जाती है और उसे अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति में भारी बाधा दिखाई देती है। अद्वैत की प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी (अर्धांगिनी) को अभिन्न मानने की आवश्यकता है। जैसे अपने ही सौंदर्य पर कोई मोहित नहीं होता, जैसे अपने आप से स्वयं ही वासना पूर्ति करने के भाव नहीं आते वैसे ही यदि पत्नी को अभिन्न मान लिया जाय तो वह बाधा सहज ही दूर हो जाती है, जिसके भय से ब्रह्मचारी लोग दूर-दूर भागते फिरते हैं। अपनी अर्धांगिनी को आत्म रूप समझना अद्वैत तत्व ज्ञान की प्रारम्भिक साधना है। इसमें परीक्षित हो जाने पर आत्म भावना का विश्वव्यापी विस्तार करना सुगम होता है।

शुद्ध ‘प्रेम’ को परमात्मा का प्रत्यक्ष रस कहा है। यह प्रेम नर-नारी के पवित्र मिलन से सुगमता पूर्वक और अधिक मात्रा में उत्पन्न होता है। माता का पुत्र में, बहिन-भाई में, पति-पत्नी में जितने विशुद्ध प्रेम का उद्रेक होता है, उतना पुरुष में या स्त्री स्त्री में नहीं होता। प्रकृति ने उभय लिंग के प्राणियों के सम्मिलन में एक सहज प्रेम धारा छिपा रखी है। यदि उसे स्वार्थपरता या वासना से दूषित न किया जाय तो प्रकृति प्रदत्त एक स्वर्गीय निर्झरिणी के अमृत जल का रसास्वादन हर आत्मा कर सकती है। यह समझना भारी अज्ञान है कि काम सेवन से ही दाम्पत्य प्रेम बढ़ता है। सच बात तो यह है कि संयमी आत्मा ही ‘प्रेम’ को उत्पन्न कर सकती है और उनके रसास्वादन का आनन्द ले सकती है।

प्राचीन काल में अधिकाँश ऋषि मुनि सपत्नीक रहते थे। ऋषिकाएँ तपोभूमि की व्यवस्था करती थीं और ऋषि लोग स्वयं पर कल्याण के महान आध्यात्मिक आयोजनों में प्रवृत्त रहते थे। योगेश्वर शंकर और योगिराज कृष्ण ने भी योग मार्ग के पथिकों के सम्मुख अपने को विवाहित ही उपस्थित किया ताकि अनुगमन करने में अनुयायियों को सुविधा रहे। यह ठीक है कि प्राचीन काल में अनेक महात्मा अविवाहित भी थे, परंतु वैसा वे केवल अपनी रुचि, सुविधा एवं कार्य प्रणाली के अनुसार ही करते थे अविवाहित रहना उनके लिए कोई आवश्यक प्रतिबंध न था।

काम को ‘मनसिज’ कहा है। यह विकार मन में उत्पन्न होता है और यहीं से संहार लीला प्रारम्भ करता है। मन में यदि काम चिंतन करते रहा जाय और शरीर से ब्रह्मचर्य रखा जाय तो उसका कोई विशेष लाभ न होगा क्योंकि मन में उत्पन्न होने वाली वासना से मानसिक व्यभिचार होता रहेगा और आत्मिक बल संचय न हो सकेगा। उसके विपरित यदि कोई व्यक्ति साधारण गृहस्थ धर्म का पालन करता है और मन से निर्विकार रहता है तो उसका थोड़ा सा शारीरिक स्खलन उतना हानिकारक नहीं होता, जितना कि अविवाहित का मानसिक उद्वेग। यों शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार का संयम रखा जाय तो सर्वोत्तम है।

‘अर्धांगिनी’ और ‘धर्मपत्नी’ यह दोनों ही शब्द आत्मिक पूर्णता और धर्म प्रतिपालन के अर्थ बोधक हैं। पत्नी इन दोनों कार्यों में सहायक होती है, इसलिए उसे अभिन्न अंग एवं जीवन सहचरी माना है। कामिनी, रमणी, रूपसी आदि की विकारग्रस्त दृष्टि स्त्री के प्रति रखना नारी जाति के प्रति अपराध एवं अपमान व्यक्त करना है। स्वाभाविक एवं सरल दृष्टिकोण अपनाकर नारी को एक सच्चा साथी, मित्र एवं आत्म-भाग माना जाय तो उससे जिस प्रकार साँसारिक जीवन में सुविधा मिलती है वैसे ही आत्म कल्याण के मार्ग में भी भारी सहयोग मिल सकता है। स्त्री ब्रह्मचर्य की बाधा नहीं। वह असंयम के विकारों को अनियंत्रित नहीं होने देती, और मनुष्य को सुसंयत जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करती है।


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