कमी की पूर्ति कैसे हो?

March 1952

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(पं. श्रीलालजीरामजी शुक्ल, एम. ए.)

प्रत्येक मनुष्य निरन्तर अपने में किसी न किसी कमी का अनुभव करता है—किसी को धन की कमी है, तो किसी को मकान की, किसी को सम्बन्धियों की कमी है, तो किसी को अपने शारीरिक स्वास्थ्य की कमी का अनुभव होता है। कोई व्यक्ति अपने चरित्र की कमी के लिए अपने-आपको दुखी बनाये रहता है। इन सब प्रकार की कमियों की पूर्ति कैसे हो? सभी मनुष्य अपने-अपने दुख से दुखी रहते हैं। एक कमी की पूर्ति दिखाई पड़ी तो दूसरी कमी का अनुभव होने लगता है। अब प्रश्न यह है कि क्या कोई ऐसा एक ही उपाय है कि जिससे सभी कमियों की पूर्ति हो जाय।

इस प्रश्न पर विचार करने से एक उपाय सूझता है, वह यह कि जिस प्रकार की कमी की अनुभूति कोई व्यक्ति अपने-आप में करे, दूसरे में उसी प्रकार की कमी की खोज कर के उसे पूरा करने की चेष्टा करे तो उसकी अपनी कमी की अनुभूति नष्ट हो जाय। हाल में ही लेखक को चिन्ता हुई कि उसके पास रहने के लिए मकान नहीं है और उसके बाद उसके बच्चों के लिए भी मकान नहीं है। इस विचार ने कुछ देर तक परेशान किया। आज प्रातःकाल इस चिन्ता का निवारण अपने-आप हो गया। मन में विचार आया कि जिस प्रकार की वस्तु की कमी तुम अपने लिए अनुभव करते हो, उसी प्रकार की कमी की पूर्ति दूसरे के लिए करो तो तुम्हारी कमी की पूर्ति अपने-आप ही हो जायगी।

वास्तव में यह विचार ठीक है। मनुष्य अपनी कमी के विषय में जब तक चिन्ता करता है, तब तक उसका विचार नकारात्मक रहता है। वह कमी के बारे में ही सोचता रहता है। पर जब मनुष्य दूसरे व्यक्ति की कमी के बारे में सोचने लगता है और उसकी पूर्ति की चिन्ता करने लगता है तब उसका विचार रचनात्मक हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य दूसरे व्यक्ति की सहायता में जितना सफल हो सकता है, अपने-आपके लिए प्रयत्न करने में उतना सफल नहीं होता है। जब मनुष्य का मन रचनात्मक कार्य में लग जाता है तो वह अपने-आपके लिये भी स्वयमेव ही सुन्दर सृष्टि कर लेता है।

मनुष्य की इच्छाएँ उसकी कमी की सूचक हैं। ये इच्छाएँ केवल उसे दुखी ही बनाती हैं। ये तब तक फलित नहीं होती, जब तक मनुष्य इच्छाओं की ओर से मुख नहीं मोड़ लेता। इच्छाओं की ओर से मुख मोड़ने से इच्छाएँ फलित होने लगती हैं। जब हम किसी व्यक्ति से अपने लिए पैसा माँगते हैं तो हम अपने-आपके गिर जाने का अनुभव करते हैं। पर जब हम अपने लिये न माँग कर सार्वजनिक कार्य के लिये पैसा माँगते हैं, तब हम आत्म-उत्थान का अनुभव करते हैं। इस मानसिक स्थिति में दूसरे लोग हमारी सहायता भी करने लगते हैं। देखा गया है कि जिस बात की मनुष्य को चिन्ता हो जाती है वह उसे पूरी करने में कभी भी सफल नहीं होता। उसकी चिंता की मनोवृत्ति दूसरे लोगों की इच्छा शक्ति को भी निर्बल बना देती है। अतएव वे उसे सहायता न देकर उससे भागते हैं।

किसी प्रकार की कमी के बारे में नित्यप्रति चिंता करने से मन निर्बल हो जाता है। ऐसी अवस्था में नकारात्मक भाव और नकारात्मक मन भी प्रबल हो जाता है। जो व्यक्ति अपनी कमी को हटाने के लिए जितना ही अधिक चिंतित रहता है, वह उतना ही उस कमी को दृढ़ बना देता है। रोगों के विषय में देखा गया है कि जो व्यक्ति अपने रोग के विषय में जितना ही अधिक चिंतित होता है, वह उस रोग से उतना ही अधिक जकड़ जाता है। जब कोई व्यक्ति अपने रोग के प्रति उदासीन हो जाता है और सभी प्रकार के कष्ट और मृत्यु तक के लिए अपने मन को तैयार कर लेता है तब उसका रोग जाने लगता है।

लेखक के एक छात्र को क्षय रोग का सन्देह हो गया था। कुछ डॉक्टरों ने भी कहा था कि उसे क्षय रोग होने जा रहा है। यह उसकी पहली हालत है। रोगी को चारपाई से न उठने का आदेश एक डॉक्टर ने दिया। घर के लोग घबड़ाये हुए थे। वह कुछ दिनों तक इसी प्रकार रहा। अपनी चारपाई से नहीं उठता था। इस प्रकार वह प्रतिदिन निर्बल होता गया। एक दिन उसके मन में आया कि मरना यदि निश्चित है तो इससे डरना क्या? अब मृत्यु का स्वागत ही करना चाहिये। इस विचार के आते ही उक्त विद्यार्थी के विचार आशावादी बन गये। वह फिर अपने अभिभावकों से छिपकर घूमने जाने लगा। कुछ दिनों बाद वह अपने-आप में परिवर्तन देखने लगा। अन्त में उसके क्षय रोग का अन्त हो गया।

लेखक के एक दूसरे मित्र के क्षय रोग का अन्त दूसरे लोगों की उसी रोग की चिकित्सा के प्रयत्न से हो गया।

एक बार लेखक के पास एक सभा में जाने के लिये अच्छे कपड़े नहीं थे। उसे इस कमी की अनुभूति हो रही थी। वह विचार करता था कि कपड़े कैसे तैयार हो जायं, अभी पैसा भी नहीं मिला था। इसी बीच लेखक के एक शिष्य ने अपने शिक्षक की इसी प्रकार की कमी की चर्चा की। इस शिक्षक को उसी सभा में पुरस्कार पाने के लिये बुलाया गया था। पर यह बेचारा इतना गरीब था कि सभा में उपस्थित भी नहीं हो सकता था। उसके विद्यार्थी को उस पर दया आयी और उसने ओढ़ने-बिछाने के कपड़े ही शिक्षक को दे दिये। इसे देखकर लेखक अपनी कमी को भूल गया। इसी बीच उसने दर्जी को कुछ कपड़े सिलने के लिये दिये थे। उसका मन इनसे उदासीन हो गया। पुराने कपड़े ही उसे फिर प्रिय बन गये। लेखक के मन में भावना आती थी कि उस गरीब शिक्षक की सहायता की जाय। उसकी वास्तव में सहायता कुछ भी नहीं की गई, पर केवल भावना मात्र ने ही उसकी गरीबी को दूर कर दिया।

कोई भी मनुष्य धन को प्राप्त करने की चेष्टा से धनी कदापि नहीं बन सकता। धन दान करने की इच्छा से ही मनुष्य धनी बनता है। दान करने का भाव मनुष्य के ध्यान को अपनी कमी से हटाकर दूसरे व्यक्ति की कमी पर लगा देता है। इस प्रकार वह अपने-आप में पूर्णता की अनुभूति करने लगता है। वह जितना ही दूसरे को पूरा बनाने की चेष्टा करता है, अपने-आप भी वह उतना ही पूर्ण बनता जाता है।

जो विद्यार्थी भली प्रकार से विद्या-अध्ययन करना चाहता है उसे चाहिये कि वह दूसरे विद्यार्थी को पढ़ाने लगे। अपने से कमजोर विद्यार्थी को पढ़ाने से न केवल उस विद्यार्थी को विद्या आ जाती है वरन् अपना मन भी पढ़ने में ठीक से लगने लगता है। इससे उस विद्यार्थी में आत्मविश्वास आ जाता है और वह दिन-प्रति-दिन अपनी उन्नति करने लगता है। किसी विषय का ज्ञान हमें तब तक ठीक से नहीं होता, जब तक हम उसे किसी दूसरे को नहीं सिखा देते। दूसरे के सिखाने के प्रयत्न से ही विद्या ठीक से आती है। विचार प्रकाशित करने से दृढ़ होते हैं और अपने-आप की समझ में आते हैं। अधिक पुस्तकें पढ़ने वाला व्यक्ति विद्वान् नहीं बनता। उसका ज्ञान केवल पुस्तक में ही रह जाता है। पर जो अपने ज्ञान का दूसरे के लिये वितरण करता है; वही सच्चा विद्वान बनता है। उसी की विद्या समय पर काम में आती है। वह केवल मस्तिष्क के लिये बोझ बनकर नहीं रहती। जिस समय लेखक कालेज का छात्र था, अपने साथियों को पाठ्य विषय पढ़ाया करता था। इसके परिणाम स्वरूप उसके साथी तो परीक्षा पास होते ही थे, वह स्वयं भी उस विषय को भली भाँति जान लेता था। जो विषय जितना ही कठिन होता था, वह लेखक को उतना ही याद भी रहता था। सरल विषय को अधिक साथी नहीं पूछते थे, अतएव उसके संस्कार मन पर दृढ़ होते थे। कठिन विषय को अधिक लोग पूछते थे, इसलिए उसे बार-बार अनेक प्रकार से दुहराना पड़ता था। इस तरह वह विषय पक्का हो जाता था।

यदि कोई व्यक्ति अपने-आप में किसी ऐसे दोष की उपस्थिति देखे जिसके कारण उसे बार-बार आत्मग्लानि हो तो इसके अन्त करने का सर्वोत्तम उपाय यही है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति को उसी प्रकार कमी की से छूटने में सहायता करे। एक व्यक्ति को सिगरेट पीने की भारी लत लग गई थी। वह इसे छोड़ना चाहता था, पर वह लत उसे नहीं छोड़ती थी। उसने अपने एक मित्र से सलाह पूछी। मित्र मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने उस समय कोई सलाह नहीं दी। किसी प्रकार की कमजोरी की अनुभूति करने वाले व्यक्ति को उस कमजोरी के विषय में व्याख्यान देना हानिकारक होता है। उसके मन को अपनी कमजोरी का चिन्तन करने से मुक्त करना ही उसे कमजोरी से छुटाने का पहला उपाय है। अतएव मित्र ने उसकी सिगरेट की आदत पर कोई बातचीत नहीं की। कुछ दिनों बाद उसने एक लड़के की उसकी अभिभावकता में रख दिया। इस लड़के को सिगरेट पीने की आदत थी। मित्र ने इसकी आदत के विषय में कुछ भी चर्चा नहीं की थी। इस आदत की खोज स्वयं अभिभावक ने की। अब उसे चिंता लगी कि इस लड़के की आदत इतनी कड़ी न हो जाय कि वह पीछे उसको मेरे ही समान छोड़ न सके। अतएव उसने प्रतिदिन उस बालक को सिगरेट पीने के दुष्परिणाम पर उपदेश देना प्रारम्भ किया और अपना ही उदाहरण देकर उसे समझाया कि तुम भी पीछे मेरे ही सदृश्य पछताओगे। इस उपदेश का बड़ा ही अच्छा प्रभाव बालक के मन पर पड़ा। उसने सिगरेट पीना छोड़ दिया। पर कुछ दिनों बाद उपदेशक ने भी अपने-आप में इतना परिवर्तन पाया कि वह न केवल अपनी एक सिगरेट पीने की आदत को ही छोड़ दिया, वरन् अनेक दूसरी बुरी आदतों से भी वह मुक्त हो गया।

जब कोई व्यक्ति बालक को केवल व्याख्यान अथवा उपदेश देकर चरित्रवान बनाना चाहता है तो वह बालक को चरित्रवान न बनाकर और भी निर्बल इच्छाशक्ति का व्यक्ति बना देता है। नैतिक उपदेश से बालक समझ जाता है कि उसके लिये क्या करना चाहिये। पर वह बालक की इच्छाशक्ति को मजबूत नहीं बनाता। फिर बालक भली बात को जान कर जब उसके विरुद्ध आचरण करता है तो वह आत्मग्लानि की अनुभूति करता है। इससे उसकी इच्छाशक्ति और भी निर्बल हो जाती है। फिर वह अपने-आपको बुरे कामों से रोक नहीं पाता। अतएव केवल उपदेश देना बालक के चरित्र का विनाशक है। इससे अपने-आपको भी कोई लाभ नहीं होता है। जब कोई व्यक्ति अभिमानरहित होकर बालक से बात करता है और अपने-आपको उससे श्रेष्ठ सिद्ध करने की चेष्टा नहीं करता, तभी वह बालक का और अपना लाभ करता है।

अपनी कमी पर न तो रोना उचित है और न दूसरों की कमी पर हँसना। जो अपनी कमी पर रोता है, वह कमी को बढ़ाता है और जो दूसरों की कमी पर हँसता है वह उस कमी को अपने-आप में ले आता है। अपनी कमी पर हँसना और दूसरों की कमी पर रोना—यही कमियों के अन्त करने का सर्वोत्तम उपाय है।


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