तत्वाज्ञास्तु विद्वान्सो ब्राह्मणाः स्वतपश्चयैः।
अन्धकारमया कुर्युार्लोकादज्ञान सम्भवम्॥
—गायत्री स्मृति
अर्थ—तत्वदर्शी विद्वान ब्राह्मण अपने तप द्वारा संसार के अज्ञानजन्य अन्धकार को दूर करें।
अन्धकार में अनेक प्रकार के भय, त्रास एवं विघ्न छिपे रहते हैं। दुष्ट तत्वों की घात अंधकार में ही लगती है। चोर, डाकू, हत्यारे, दुराचारी अपने कुकर्म अंधेरे में ही करते हैं। भूत, पलीत, साँप, बिच्छू, सिंह व्याघ्र, उल्लू, चमगादड़ आदि निशाचरों से अंधकार के समय ही विशेष हानि होती है। रात्रि में सब काम रुक जाते हैं। प्रकाश के अभाव में व्यापक जीवनी शक्ति में शिथिलता आ जाती है और मनुष्य, पशु, जीव, जन्तु, वृक्ष, वनस्पति आदि सभी निद्राग्रस्त हो जाते हैं। अंधकार से आलस्य और अकर्मण्यता पैदा होती है एवं प्रगति का क्रम अवरुद्ध हो जाता है।
भौतिक जगत में अंधकार से जो अवरोध, भय एवं त्रास उत्पन्न होता है, यही सूक्ष्म जगत् में, आँतरिक जीवन में भी होता है। अविद्या के अंधकार में बुद्धि को दिशाभूल हो जाता है, और जिस प्रकार अँधेरे में रास्ता भूल कर कोई पथिक इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता है उसी प्रकार मस्तिष्क भी अवांछनीय विचार और कार्यों में उलझकर, निर्धारित लक्ष से विपरीत दिशा में भटक जाता है और कुकर्म करता हुआ दुखदायक परिणाम प्राप्त करता है।
अविद्या को अहंकार कहा गया है। अविद्या का अर्थ “अक्षर ज्ञान की जानकारी का अभाव” नहीं है वरन् “जीवन की लक्ष भ्रष्टता” है। इसी को नास्तिकता, अनीति, माया, भ्राँति, पशुता आदि नामों से पुकारते हैं। इस बौद्धिक अंधकार में, आत्मिक निशा में विचरण करने वाला जीव-ईश्वर द्वारा निर्धारित धर्म, नीति, लक्ष, आचरण और कर्त्तव्य से विमुख होकर ऐसी गतिविधि को अपनाता है जो उसके लिए नाना प्रकार के दुखों को उत्पन्न करती है।
संसार में दुखों के तीन कारण हैं। (1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। इन तीनों में सबसे प्रधान कारण अज्ञान जन्य अंधकार ही है। अपने चारों ओर दृष्टि पसार कर देखिए लोगों के बहुत प्रकार के दुखों की जड़ में प्रायः उनका गलत विचार, गलत कार्य, गलत दृष्टिकोण ही होगा। ईश्वर के सुरम्य उपवन संसार में उसके अमर युवराज, मनुष्य के लिए केवल सुख ही सुख विनिर्मित किया गया है। प्रभु के निर्धारित आदेशों पर यदि वह भलमनसाहत से चले तो कभी कोई दुख भी उसके पास न फटके। परंतु जब प्राणी अपने धर्म कर्त्तव्य को भूल कर अवांछनीय विचार और कार्यों को अपनाने की भूल करता है तो वह भूल रूपी अँधियारी ही उसके लिए असह्य दुखों की जननी बन जाती है।
हमारे चारों ओर दुखों का सागर भरा पड़ा है, उसमें अधिकाँश जन समुदाय डूबा रहता है। इस वैतरणी में बिलखते हुए लोगों को पार करना उन व्यक्तियों का परम पावन कर्त्तव्य है जो सामर्थ्यवान साधन सम्पन्न और सहृदय हैं। ब्राह्मण उसे ही कहते हैं जो उपरोक्त सामर्थ्यों से सम्पन्न है। गायत्री का प्रथम अक्षर “तत्” ब्राह्मणों को यही आदेश करता है कि वे तपश्चर्या द्वारा, विद्या द्वारा, तत्वज्ञान द्वारा संसार के समस्त दुखों के मूल कारण अज्ञानान्धकार को दूर करें।
गायत्री का पहला अक्षर ‘ब्राह्मण’ को आदेश देता है। यहाँ यह ब्राह्मण शब्द किसी जाति, वंश, कुल एवं वर्ण के लिए प्रयोग नहीं हुआ है। आत्मा का सर्व प्रधान गुण ब्रह्म निष्ठा, आध्यात्मिकता है। यह तत्व जिसमें जितना न्यूनाधिक है वह उतने ही न्यूनाधिक अंश में ब्राह्मण है। इसी ब्राह्मणत्व को गायत्री ने सबसे प्रथम चुनौती दी है, ललकारा है, जगाया है, और कहा है कि “अपने और दूसरों के कल्याण के लिए व्यापक अज्ञानान्धकार को घटाना तेरा परम पवित्र कर्त्तव्य है।”
दूसरे शब्दों में हम विवेकशीलता, आस्तिकता, सात्विकता, मनुष्यता, उदारता, दयालुता पवित्रता की वृत्ति को “ब्राह्मणत्व” कह सकते हैं, जिसमें यह वृत्ति जितनी अधिक हो, उसका उतना ही बड़ा कर्त्तव्य है कि वह शिश्नोदर परायणता से विमुख होकर अपना और अपने आत्म बंधुओं का कल्याण करने वाले सद्ज्ञान रूपी प्रकाश की ज्योति जगावे। जिसके हृदय में दया है, करुणा है, पुण्य है, परमार्थ है, वह दूसरों के दुखों को भी अपना दुख अनुभव करेगा और उसे दूर करने के लिए पूरी तत्परता के साथ प्रवृत्त होगा। विषय भोग, धन संचय, मान-बड़ाई आदि के लिए मनुष्य तब तक प्रवृत्त नहीं होता जब तक कि ऊपर आये हुए त्रासदायक दुख का निराकरण न कर लें। ब्राह्मणत्व के साथ-साथ अपार करुणा जुड़ी होती है वह संसार में सर्वत्र फैले हुए दुखों को देखकर रो पड़ता है और उन्हें मिटाने के लिए अज्ञानान्धकार को हटाने में प्रवृत्त हो जाता है। ऐसी दशा में उसकी गति विधि अपने लक्ष की ओर ही रहती है। धन संचय, विषय भोग की ओर उसकी इच्छा एवं प्रवृत्ति ही नहीं होती और उन निरर्थक बातों में गँवाने के लिए उसके पास फालतू समय भी नहीं होता।
जिसकी आत्मा में जितना ब्राह्मणत्व है वह उतना ही (1) तपस्वी, (2) दूरदर्शी और (3) विद्यावान् होता है। गायत्री के प्रथम अक्षर में ब्रह्मणत्व का आह्वान किया है, उसे आमंत्रण दिया है और कहा है कि ‘हे ब्राह्मणत्व! तू सच्चिदानन्द स्वरूप है, ज्ञान और प्रकाश का पुँज है। अपने स्वरूप को निखार और सर्वत्र सुख शाँति की किरणें फैला।” यह ईश्वरीय आदेश यदि अन्तःकरण ने सुन लिया तो वह स्वयं भी तरता है और अनेकों को तारता है। स्वयं भी प्रकाशवान होता है और अनेकों को प्रकाशित करता है।
आत्मा जब गायत्री के प्रथम अक्षर ‘तत्’ का सन्देश सुनती है तो उसे प्रतीत होता है कि इस दैवी प्रेरणा का अनुमान करने के लिए उसे तीन आधार गृहण करने होंगे। (1) तप (2) तत्वज्ञान (3) दूरदर्शिता। तप के बिना आत्मा के मलों का, कषाओं का, कुसंस्कारों का, परिमार्जन हो नहीं सकता, तप के बिना आत्मबल प्राप्त नहीं हो सकता, तप के बिना ब्रह्म शक्ति , तितीक्षा, ऋतम्भरा प्रज्ञा, दैवी सान्निध्य की उपलब्धि नहीं हो सकती इसलिए तप अत्यावश्यक है। निश्चय ही ब्राह्मणत्व के विकास के लिए तप आवश्यक है। जिस प्रकार तप आवश्यक है उसी प्रकार तत्वज्ञान, वास्तविकता की जानकारी भी अभीष्ट है। उसके लिए स्वाध्याय और सत्संग का आयोजन होना चाहिए। तीसरे उसे यह भी चाहिए कि वर्तमान काल के प्रलोभनों, तात्कालिक क्षुद्र साँसारिक लाभों की अपेक्षा दूरवर्ती, जन्म जन्मान्तरों तक फल देने वाले परिणामों को महत्व देने वाला दृष्टिकोण अपनाये। जो इस निष्ठा का अवलम्बन करता है, वह सच्चा ब्राह्मण बन जाता है, उसका ब्रह्मत्व दिन-दिन सुविकसित होता है और स्वल्प काल में ही पूर्ण ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो जाती है।
दीपक जब स्वयं जलता है तो उसका प्रकाश चारों ओर फैलता है और उससे बहुत दूर तक का अन्धकार नष्ट होता है। इसी प्रकार तप, तत्व ज्ञान, और दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाने से जो अन्तर्ज्योति प्रकाशित होती है वह उस व्यापक अज्ञानाँधकार को हटाती है जो समस्त प्रकार के दुखों का प्रधान कारण है। सद्ज्ञान के द्वारा प्रकाशवान होने से मस्तिष्क ऐसे विचारों को अपनाता है, शरीर ऐसे कार्यों को करता है, जो केवल शान्ति दायक परिणाम ही उपस्थित कर सकते हैं। दुखों को हटा कर सुख की स्थापना करने के लिए ही संसार में समस्त पुण्य दान किये जाते हैं, पर वे अन्न, वस्त्र, धन आदि भौतिक वस्तुओं पर आधारित होने से तात्कालिक एवं क्षणिक परिणाम ही उत्पन्न करते हैं। परिणामतः उनका पुण्य फल भी वैसा ही स्वल्पकालीन होता है। परन्तु ब्राह्मणत्व की अभिवृद्धि से जो प्रकाश उत्पन्न किया जाता है वह चिरस्थायी एवं दीर्घकालीन परिणाम उत्पन्न करने वाला होता है फलस्वरूप उसका पुण्य भी अक्षय होता है।
गायत्री के प्रथम अक्षर ‘तत्’ का संदेश यही है कि हम अपने ब्राह्मणत्व को जागृत करें, तपस्वी बनें, तत्वदर्शी बनें, दूरवर्ती दृष्टिकोण अपनावें, जिससे हमारा जीवन पुण्य परमार्थ में ओत-प्रोत हो जाये। गायत्री की इस प्राथमिक शिक्षा को जितना ही अपनाया जायगा उतना ही मनुष्यता का, दिव्य भावनाओं का व्यापक प्रसार होगा और उसी अनुपात से मनुष्य जाति की असंख्यों उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझेंगी, और उसी अनुपात से पीड़ाओं, वेदनाओं, चिन्ताओं और व्यथाओं का विनाश होगा। गायत्री कहती है कि मनुष्य की अन्तरात्मा में ब्राह्मणत्व का तीव्र गति से विकास होना चाहिए। यही हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक सुख शान्ति का उपाय है।