मामेकं शरणं ब्रज

March 1952

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(महामंडलेश्वर स्वामी श्री विद्यानन्दजी महाराज)

गीता के अठारहवें अध्याय में लिखा है—’सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।’ यहाँ धर्म शब्द अधर्म का भी वाचक है, क्योंकि ‘नाविरतो दुश्चरितात्।’ ‘त्यज धर्ममधर्म च।’ इत्यादि श्रुति और स्मृति के वचनों से मनुष्य को अन्त में धर्म-अधर्म का त्याग कर नैष्कर्म्य प्राप्ति ही करनी चाहिये, यही बात कही गई है। इसलिए धर्म-अधर्म जो कुछ कर्मरूप वस्तु है, उस सबका त्याग एकमात्र परमात्मा की शरण में जाने का ही भगवान् अर्जुन को उपदेश देते हैं।

परमात्मा की शरण छोड़कर अन्य की शरण में जाना इस महा मूल्यवान् शरीर पाने के समस्त सौभाग्य को तिलाञ्जलि समर्पित कर देने जैसा है। जब परमात्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु ही नहीं है, तब अन्य की शरण में जाने का विचार अज्ञानमूलक न कहा जाय तो और क्या कहा जायगा?

मनुष्य शरीर से कुछ न कुछ कर्म तो हुआ ही करेंगे—’न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।’ कोई क्षण भर भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। शुभाशुभ कर्म स्वर्ग और नर्क में डालने वाले हैं, इसलिए जन्मान्तरादि संसार पैदा करने वाले सुख-दुख हेतु कर्मों का परित्याग करना ही चाहिए। यों भगवान् ने उक्त वाक्य से उत्तर दिया है।

जैसे अकर्म में भी बीजरूप से कुछ कर्म करना पड़ता है—वैसे ही कर्मा भाव के लिए कुछ कर्म करना ही होता है। नैष्कर्म्य के लिए किया गया कर्म बन्धक नहीं होता। जैसे यह कहा जाय कि शरीर को शुद्ध स्वच्छ बनाने के लिए सब कर्म छोड़कर स्नान करना चाहिए। इससे स्नान के लिए जो कर्म करना पड़ेगा वह शरीर की अस्वच्छता में हेतु नहीं होगा, परन्तु स्वच्छता में ही उपकारक होगा। इसी न्याय से नैष्कर्म्य प्राप्ति के लिए जो कर्म करना होगा, वह बंधक नहीं हो सकता।

‘परमात्मा से सिवा कुछ है नहीं’ इस प्रकार की नैष्कर्म्य-सिद्धि के अनंतर हुई परमात्म शरणागति की स्थिति से क्या फल होगा? तो इसका भी भगवान उत्तर देते हैं—’सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि।’ उक्त शरणागति के बाद सब पापों से मैं मुक्त कर दूँगा, शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं। धर्म-अधर्म के बंधनों से यानी संसार रूपी महान दुःख रूप अग्नि से मुक्ति पानी है, तो मनुष्य को सब कुछ छोड़कर भगवान के बतलाए हुए मार्ग का अवलम्बन करना ही पड़ेगा। भगवान ने जिस मार्ग का अनुसरण करने के लिए अर्जुन के बहाने से समस्त मानव जाति को उपदेश दिया उसका बिना पालन किये आप इस घोर दुःख से मुक्ति चाहेंगे तो, मुक्ति नहीं होगी, कभी नहीं। भगवान ने मनुष्य को बताया, उसकी रक्षा के लिए अनेक वनस्पति औषधि आदि का निर्माण किया, शरीर में उन वनस्पतियों को पहुँचाने के लिए मुखरूपी द्वार, जानने के लिए इन्द्रिय, चलने के लिए पैर आदि बनाये।

किसी आदमी को पेट में खूब भूख लगी है, वह यदि पेट पर जौनपुर की उत्तम ढाई सेर इमरती बाँध ले, तो क्या उसकी उससे भूख मिट जायगी। नहीं, भूख की निवृत्ति तो बत्तीस दाँतों से चबाकर मुख द्वारा गले के नीचे उतारने पर ही होगी। इसी प्रकार परमात्मा ने इस संसार दुःख से मुक्ति चाहने वाले पुरुष को गीता द्वारा जो मार्ग बतलाया है, उसके सिवा दूसरे किसी मार्ग से मुक्ति नहीं हो सकती।

इस विषय में विद्वान लोग अनेक तरह के संदेह करते हैं—इस गीता में भगवान ने कौन सा मुक्ति साधन बतलाया है? क्या ज्ञान से मुक्ति होती है, यह बतलाया है या कर्म से मुक्ति होती है, यह बतलाया है? या क्या ज्ञान और कर्म दोनों से मुक्ति होती है, यह बतलाया है? ‘ज्ञात्वामृतमश्नुते’ ‘ततो मा तत्वतो ज्ञात्वा विशते’ इन वाक्यों से तो ज्ञान ही मुक्ति का साधन है, यह मालूम पड़ता है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ ‘कुरुकमैव तस्मात्वम्’ इत्यादि से कर्म ही मुक्ति के साधन हैं, यह प्रतीत होता है, ज्ञान कर्म दोनों को मुक्ति साधन कहने से यह भी बात हो सकती है कि दोनों मिलकर मुक्ति के कारण हैं।

इस तरह के संशयों का निर्णय कर लेना परम आवश्यक है, क्योंकि यदि निर्णय न किया जाय तो मुक्ति साधनत्व के अज्ञान से कौन कहाँ प्रवृत्त होगा।

उपर्युक्त जो संशय हुए हैं, उनका निर्णय यही है कि मुक्ति ज्ञान से ही होती है, न कर्म से या न कर्मज्ञान दोनों से। भेदबुद्धि ही दुःख का कारण है, भेदबुद्धि का कारण अज्ञान है, इसलिए अज्ञान की जिससे निवृत्ति होगी, वही मुक्ति का कारण होगा। अज्ञान की निवृत्ति ज्ञान से ही होगी, ज्ञान प्रकाशरूप होता है और अज्ञान अन्धकार रूप। प्रकाश से ही अन्धकार की निवृत्ति होती है, घड़े आदि से नहीं।

कर्मों से अज्ञान की निवृत्ति रूप मुक्ति होगी यह तो हो नहीं सकता, अपिच कर्म नित्य बुद्ध मुक्त आत्मा में क्या उपकार कर सकते हैं, कुछ भी नहीं कर सकते हैं। जैसे जमीन पर रखे हुए गले के हार को गले में धारण कर भूल से जमीन पर खोजने वाले उदास पुरुष को कोई बतला दे कि तुम्हारे गले में हार है, क्यों व्यर्थ परिश्रम करते हो। तो हार प्राप्त समझ कर खोजने वाला मारे खुशी के नाच उठता है। वैसे ही अनेक जन्म जन्मान्तरों के संस्कार को पुरुष आत्मा को भूल गया है, ज्यों−ही तत्वज्ञ महापुरुष उसको बतलाता है, त्यों−ही अखण्ड भूमण्डल के साम्राज्य से भी कोटि गुण आनन्द पाकर मारे खुशी के वह इतना आनन्दविभोर बन जाता है कि उसका वर्णन ही नहीं कर सकता, सारे लौकिक साम्राज्य सुखों को भूलकर अपनी आनंदरूप आत्मा में डूबा रहता है।

यह ज्ञान ही अद्वैत आत्मा का है, जब तक द्वैत का मान रहता है तब तक भय और भय जनित दुःख उसे मिला करते हैं। श्रुति कहती भी है—’द्वितीयाद्वै भयं भवति।’ द्वितीय से ही भय होता है यानी भेदबुद्धि ही दुःख की जननी है। ‘यत्र सर्वमात्मैवाभूत।’ जिस दशा में सारे संसार में अपनी आत्मा का ही स्वरूप दीखने लगा—सब अपनी ही आत्मा बन गये, तब दृश्य-दर्शन रहा ही कहाँ; यानी किस कारण की वृत्ति किस विषय पर आक्रमण करेगी, कहीं भी नहीं। इससे फल यह होगा कि बाहर या भीतर के सुख दुःख तो उसे स्पर्श ही नहीं कर पायेंगे, फलतः आत्मा के अखण्ड आनन्द का भोग करता हुआ वह जीवनमुक्ति का आनंद भोगता रहेगा।

इस विषय पर अधिक और किसी खास लेख में विचार होगा, पर निष्कर्ष यह निकलता है कि ज्ञान के सिवा मुक्ति नहीं। ज्ञान प्राप्ति के लिए ही भगवान् का उपदेश है, ज्ञानोपार्जन के समय एकमात्र गुरुवाक्यों का सावधानी से अर्थानुसंधानपूर्वक श्रवण करते रहना चाहिए। उसमें अविश्वास या अश्रद्धा करने से महान क्षति होगी, जब तक श्रद्धा नहीं, तब तक गुरु के वाक्य भीतर बोध नहीं करते। इसलिए कहा गया है—’श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।’ श्रद्धावान् ही ज्ञान पाता है, यह ज्ञान आत्मा के विषय का ही समझना चाहिए।

अबोध बालक पढ़ते समय गुरु में अश्रद्धा रख कर उनके वचन श्रवण करे तो वह कभी पढ़ नहीं सकता सारी जिंदगी पश्चाताप करता रहेगा। उसी प्रकार कठिनतम आध्यात्मिक विषय पढ़ने को तो उसके तत्ववेत्ताओं के पास श्रद्धा रखकर ही जाना होगा। तभी तत्वदर्शी आत्म सम्बन्धी गहन तत्व का अत्यंत सुँदर सरल भाषा में उपदेश देंगे और जानने के लिए मार्ग बतलायेंगे। पर इन सबमें मूल है श्रद्धा। जैसे खेत में धान बोने के बाद जल के बिना सूख जाता है, कुछ भी फल नहीं मिलता, वैसे ही गुरु के पास जाने पर भी यदि श्रद्धा नहीं रही, तो कुछ भी फल नहीं होता।

एक समय की बात है—गैया चराने वाले दो बालक अपनी गैया लेकर जंगल में गये, वहाँ उन्होंने एक तपस्वी महात्मा देखे, ये महात्मा उसी जंगल में कुटिया बनाकर रहते थे और नियमपूर्वक ध्यान करते थे, दोनों बालकों को उन पर बड़ी श्रद्धा हुई, दर्शनार्थ उनके पास गये। निर्दोष दस बारह वर्ष के उन बालकों को देखकर महात्मा ने उनसे भाषण किया कि बेटा, यहाँ क्यों आये? कहाँ के रहने वाले हो? पढ़ते हो कि नहीं? इन बालकों ने कहा—बाबाजी कुछ दूर के गाँव के हम लोग निवासी हैं हम दोनों का घर पास पास है—पड़ोसी हैं, गैया चराने आये हैं, कुछ भी पढ़ते नहीं, केवल गैया चराना और खाना-पीना यही काम हैं, आपको दूर से देखकर दर्शनार्थ हम आये हैं। महात्मा इनकी बात सुनकर प्रसन्न हो गये और कहा—कहो क्या चाहते हो, मैं तुम जो चाहोगे, दूँगा। तुम लोगों की बात से मैं बहुत खुश हूँ। उन दोनों में से एक लड़के ने कहा—महाराज, यदि आप मुँहमाँगा दे सकते हैं तो हमें एक हजार गौएं दीजिये। एक गौ से कुछ नहीं होता। उन्हें हम प्रेम से चरायेंगे और खूब दूध की पैदा करेंगे, आपकी भी सेवा करते रहेंगे। इतना कह कर वह चुप हो गया। बाबाजी ने दूसरे से पूछा—बेटा, तुम भी माँगो। तब दूसरा बोला—महाराज, हमें तो एक ही गौ दीजिए, पर उससे इतना दूध घी मिले जितना कि एक हजार गौएँ रखने पर हमें मिल सकता है।

तब महात्माजी ने सोचा—इनमें हजार गौएँ माँगने वाला बालक चंचल है और एक गौ माँगने वाला धीर मालूम पड़ता है। यों विचार करके कहा—भाई देखो, बात ऐसी है कि हजार गौओं के समान एक गौ यदि चाहते हो, तो तुम्हें आठ दिन तक हमारे पास रहना होगा, नौवें दिन जरूर मिलेगी, बोलो है मंजूर? लड़के ने कहा—हाँ बाबाजी; मुझे मंजूर है।

यह सुनकर बाबाजी ने दूसरे बालक से कहा—बेटा; तुम नौवें दिन के बाद आना; फिर तुम्हारे लिए व्यवस्था करूंगा। महात्माजी के पास एक गौ चाहने वाला लड़का रह गया। महात्माजी के पास एक अत्यंत छोटी दूसरी कुटिया थी, उसमें बैठकर जाने लायक छोटा-सा एक ही द्वार था। उस कुटिया को बतला कर महात्माजी ने उस लड़के से कहा—बेटा; जाओ इस कुटिया में, वहाँ एक आसन पड़ा है, उस पर बैठ जाओ ‘गौ-गौ’ जपते जाओ। आठवें दिन तुमको वैसी गौ मिल जायगी, पानी आदि लेना हो तो बाहर आकर ले जाना।

वह लड़का कहने के अनुसार उसमें घुस गया और आसन पर बैठ कर गौ-गौ जपने लगा। न उठता है, न जल पीता है, न खाता है और न सोता है, उसे गौ की धुन लग गई। पाँचवे दिन महात्मा को चिन्ता हुई कि यह तो निकला बड़ा अक्खड़, बाहर बुलाकर कुछ जलपान कराना चाहिए। यों सोचकर लड़के को पुकारा, लड़के ने उत्तर दिया—महाराज, क्या आज्ञा है? महाराज ने कहा—भैया बाहर आओ, जल पीलो, तब उस लड़के ने कुछ क्षण बाद उत्तर दिया—गुरुवर! द्वार छोटा है, मैं कैसे बाहर आऊँ, मुझे तो बड़े सींग, चार पैर आये हैं बड़ी पूँछ है, स्थूल शरीर है, निकलूँ कैसे? महात्मा को आश्चर्य हुआ और सोचा—अरे, गौ को जपते-जपते यह तो स्वयं अपने को गौ समझ गया है, यह बड़ा उत्तम अधिकारी है। तब गुरु ने कहा—बेटा, तुम अपने को ऐसा मत समझो, किन्तु यह समझो कि मैं नित्य, शुद्ध मुक्त स्वभाव हूँ, स्वयं प्रकाश हूँ, मेरे प्रकाश से सूर्य चन्द्र सब प्रकाशित हो रहे हैं, सारी सृष्टि मेरे संकल्प से हुई है, मेरा किसी से भेद नहीं है, मैं कहीं पर नहीं रहता, सब मेरे में रहते हैं, सबका आधार मैं हूँ।

बालक ने ध्यान से सुना और कहा—अच्छा गुरुजी, अब मैं गैया पाने के लिए वैसा ही अपने को समझकर गौ का जप करता हूँ, अब आप अपने कार्य में लगें, आठ दिन नहीं होंगे, तब तक बाहर निकलूँगा नहीं। यह कह कर गुरुजी के उपदेश के अनुसार फिर धुन लगाकर जपने लगा। केवल दो दिन व्यतीत भी नहीं हो पाये थे कि एकदम वह लड़का बाहर निकल पड़ा और महात्मा जी के चरणों को पकड़कर कर कहने लगा—महाराज, यह आपने मुझको कौन सी वस्तु प्रदान की, आपने मेरा जन्म सफल कर दिया। महाराज, आपने वह चीज मुझे दी है, जिसको इन्द्र आदि देवता भी नहीं पा सकते। बड़े-बड़े महर्षियों की दृष्टि में भी जो अभी नहीं आया है, वह तत्व मुझको दे दिया। महाराज, मेरे पास वह कामधेनु गौ आई है, जिसके सामने करोड़-करोड़ सूर्य चन्द्र सब फीके हैं, चौदह ब्रह्माण्ड मेरे संकल्प से चल फिर रहे हैं। भगवन् आपकी स्तुति किन शब्दों में करूं, महाराज, मैं आपके ऋण से कैसे मुक्त होऊँ, आज्ञा दीजिए, ऐसी कौन सेवा करूं जिससे आपकी प्रसन्नता का कुछ अंश से भाजन बनूँ।

महात्मा उस बालक के ये शब्द सुन कर सोचने लगे—मैं जिस तत्व को जानने के लिए कई वर्षों से यहाँ वास करता हूं, अनेक कष्ट झेलता हूँ, पंचाग्नि तपता हूँ, पर उस तत्व को दूर से भी नहीं जान पाता हूँ, इसने तो केवल सात ही दिन में जान लिया। इसने अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया, परमतत्व पहचान लिया, इसके संकल्प से हजारों तत्वज्ञानी बन सकते हैं अतः गुरुदक्षिणा में ज्ञान ही माँगना चाहिए। ऐसा विचार कर महात्मा जी ने उस लड़के से अत्यन्त कोमल शब्दों में कहा—भैया, मैं तो यही चाहता हूँ कि जैसा इस समय बने हो, वैसा मुझे भी बना दो। लड़के ने महात्माजी के सिर पर हाथ रक्खा, रखते ही महात्माजी के सारे शरीर में रोमाँच हो उठे और उस बालक के पैर पकड़ लिए। लड़के ने कहा—गुरुवर! ऐसा मत कीजिए, यह आपका कर्त्तव्य नहीं है, आप ही मेरे गुरु हैं, रास्ता आपने दिखाया, फल भोग में पूर्वापर भाव हुआ है। इसमें चिन्ता नहीं, प्रारम्भ वैसा ही था। नौवें दिन दूसरा लड़का आया, दोनों ने उसको पास में बैठाया। प्रारब्ध की गति से परिचय हुए महात्मा ने उसे एक हजार गौएँ प्रदान कर उसे विदा किया।

इस दृष्टान्त से निकला क्या, निकला यही कि श्रद्धा रखने से ही उस बालक को सिद्धि मिल गई, आत्मज्ञान प्राप्त हुआ, यदि श्रद्धा नहीं रखता और यों ही बैठता तो न उसका चित्त लगता और न उसे तत्वज्ञान ही होता। इसलिए श्रद्धा तो आध्यात्मिक बोध के लिए चाहिए ही।

इसी बात को लेकर भगवान ने अर्जुन के माध्यम से हमको उपदेश दिया है कि परम श्रद्धा से—’मामेकं शरणं ब्रज।’


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