साधकों के आवश्यक कर्त्तव्य

February 1952

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(श्री डॉक्टर चतुर्भुज सहाय जी)

जिन चीजों को हम देखते हैं या जिन बातों को हम सुनते हैं वह हमारे अन्दर एक नक्शा बनाती हैं और यही नक्शा या चित्र गहरा हो जाने पर ‘संस्कार’ कहलाता है। ऐसे अनेकों संस्कार हम दिन रात में अपने बना डालते हैं और फिर इन्हीं संस्कारों में जकड़े हुये जन्म-मरण की चरखी में झूलते रहते हैं। मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रथम उपाय यह है कि हम संस्कार बनना रोक दें और पिछले किये हुए संस्कारों को तप से या भोग से समाप्त कर डालें। जब तक यह जाल नहीं कटेगा, मुक्ति नहीं मिल पायेगी।

संसार में रहते हुए यह मुमकिन नहीं हो सकता कि हम किसी वस्तु को न देखें या किसी बात को न सुनें, इससे तो वन और गुफाओं में रहने वाले भी नहीं बच पाते, वन पशुओं की भयानक गर्जना, पक्षियों के सुरीले राग, जल स्रोतों का प्रपात, इत्यादि तो उनके कानों में पहुँचेंगे ही? वृक्षों की हरियाली, पर्वतों की चट्टानें, नदियों का प्रवाह सुन्दर-सुन्दर फुदकती हुई चिड़ियाँ, हिरनों के बच्चे इत्यादि को उनकी आँखें भी देखती ही हैं और सुनी हुई या देखी हुई वस्तुयें संस्कार बना डालती हैं। इसलिए महापुरुषों ने यह बताया है कि आँख को देखने से मत रोको, उसे देखने दो, क्योंकि देखना उसका स्वभाविक गुण है। परन्तु यदि कोई वस्तु तुम्हें प्यारी लगती है और मन फिर से देखने को लुभायमान हो रहा है, तो आँख को उस ओर जाने से रोक लो। ऐसा करने से मन पर अधिकार ही नहीं होगा बल्कि संस्कार बनना रुक जायगा। क्योंकि संस्कार एक बेर के देखने से या एक बेर किसी बात को सुनने से नहीं बनता बल्कि बार-बार एक ही तरफ इन इन्द्रियों के प्रयोग करने पर बना करता है।

चंचलता और अशान्ति का कारण विचार है। विचार अपना हो या दूसरे का वह अन्तर के चिदाकाश में कम्पन उत्पन्न कर देता है और उसी से मन व इन्द्रियाँ चंचल हो उठती हैं। चंचलता आते ही शान्ति भंग हो जाती है और मन में विकार आने लगते हैं।

—मन के विकारों का प्रभाव शरीर पर आता है। इन्द्रियाँ विकारी बन विषयों की ओर दौड़ने लगती हैं, और प्राणी को बुरी तरह पटक के मारती हैं। शरीर अनेक रोगों से ग्रसित हो जाता है, और वह दुःखी हो चिल्लाने लगता है। इन सब का एक ही उपाय है कि अभ्यास या सत्संग के द्वारा या तो विचार बिल्कुल ही न उठने दिया जाय और यदि उठे भी तो वह शुद्ध सात्विकी हो, अशुभ और राजसी, तामसी न हो।

—पुस्तकों का, चित्रों का प्रभाव, भी मन पर बहुत पड़ता है, इसलिए अध्ययन में अच्छी पुस्तकें रक्खो। चित्रों को अपने गृह में रखना या तो बिल्कुल छोड़ दो या संत-महात्मा और देवताओं के चित्र रक्खो ताकि बुरे विचार मन न उत्पन्न करने पावे, उसमें सात्विक विचार ही आवें।

—अभ्यासी को भोजन में भी संयमी रहना पड़ता है। अन्न से ही मन बनता है। कुधान्य और कुविचारों में खाया हुआ भोजन मन को विकारी बनाता है, इसलिए अच्छी व शुद्ध कमाई का, शुद्धता से परोसा हुआ, और शुद्धता से खाया हुआ भोजन ही अभ्यासी को लाभदायक होता है। जहाँ तक बन पड़े, चुपचाप खामोशी से भोजन करो। भोजन के समय इष्ट या गुरु का ध्यान निरन्तर बनाये रखने का उद्योग करते रहो। शान्ति और खुशी के साथ भोजन करो। क्रोध-भय शोक या चंचल वृत्ति को लिए हुए भोजन अभ्यासी को त्याज्य है, इससे मन में और शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं।

—भोजन के प्रभाव का अनुभव कोई भी अभ्यासी उसी दिन कर सकता है, जिस दिन शाँति व एकत्रित होकर भोजन किया जायगा उस दिन चौबीसों घंटे चित्त प्रसन्न रहेगा और भजन के समय एकाग्रता लाने के लिए कुछ भी उद्योग नहीं करना पड़ेगा। मन स्वयं ही शान्त हो के बैठ जायगा। और जिस दिन गड़बड़ी में भोजन पाया जायगा उस दिन वृत्ति चंचल रहेगी और अभ्यास में कठिनाई पड़ेगी।

—नियमित आहार विहार करना, सदाचारी रहना, एक अभ्यासी के लिए बहुत जरूरी है। आहार विहार के बिगड़ने पर शरीर में निर्बलता और रोग बढ़ते हैं, रोगी और कमजोर से साधन नहीं बन सकता और सदाचारी न रहने से मन पर कालिमा छा जाती है, हृदय मलीन हो जाता है, वह खुद ही अपनी नजरों में अपने को पतित पाता है और शुभ काम के करने को उसकी हिम्मत नहीं रहती।

—दुराचारी का हृदय कम्पित होता रहता है वह श्रेष्ठ पुरुषों की संगत से दूर भागते हैं। भजन पूजन से चित्त उचाट खा जाता है और संत महात्माओं का तो उन्हें भय मालूम देने लगता है इसलिए उनके सन्मुख नहीं पड़ते। इसलिए अभ्यासी को सदाचार का पूरा पालन करना उचित है।

—सभ्यता (अखलाक) भी एक चीज है जो साधक के पास अवश्य होना चाहिए। असभ्य मनुष्य कभी संत या पूर्ण-पुरुष नहीं बन सकता। साधु को सरल स्वभाव-सदाचारी और सभ्य होना जरूरी है। साधन करते हैं पर दूसरों को तुच्छ समझते हैं, गालियाँ बकते हैं, पास आने वाले के साथ दुर्व्यवहार से पेश आते हैं इत्यादि, ऐसा मनुष्य कभी ईश्वर का दर्शन नहीं पा सकता। वह कुछ सिद्धियाँ लेकर संसार में कौतुक दिखा सकता है, प्रतिष्ठा करा सकता है, धन बटोर सकता है, पर ऊँचे पद को नहीं प्राप्त हो सकता।

—असभ्यता (बद अखलाकी) अहंकार का चिन्ह है! अपने को श्रेष्ठ और बड़ा समझेगा और दूसरों को तुच्छ और नीच समझेगा वही ऐसा दुर्व्यवहार कर सकता है। अहंकारी भगवान के दरबार में प्रवेश नहीं हो सकता, वह इस विद्या के पाने का अधिकारी नहीं हो सकता, इसलिए जिज्ञासु को सभ्यता सीखना लाजिमी है।

—दूसरों से ऐसा बर्ताव करो कि जैसा तुम दूसरों से चाहते हो। क्या वह तुम्हारे भाई और प्रभु के पुत्र नहीं हैं? क्या वह हृदय और आत्मा नहीं रखते? और क्या तुम्हारे बुरे व्यवहार से उनके दिल को चोट नहीं लगेगी? फिर यह हिंसा हुई या नहीं? दिल दुखाने को तो हिंसा कहते ही हैं, जिसे सबसे प्रथम, साधक को त्यागने की शिक्षा शास्त्र देते हैं।

—नम्रता और प्रेम हृदय में उत्पन्न करने के लिए ही तो साधन किया जाता है। सबसे छोटा और सबका सेवक अपने को समझना, और प्रेम के दायरे को विस्तृत करते हुए संसार व्यापी कर लेना, यह दो ही साधक के उद्देश्य हैं। प्राणीमात्र हमारा हो और हम सबके सेवक हों, जिस समय पूर्ण रूप से यह भाव हृदय में उदय हो गये उस समय फिर साक्षात्कार में देर नहीं लगती।

—प्रेम से बोलो; प्रेम से बिठा लो, प्रेम से उसकी सेवा शुश्रूषा करो, इस व्यवहार से तुम्हें भी खुशी मिलेगी और दूसरे भी प्रसन्न रहेंगे और तुमको देख कर भगवान भी प्रसन्न होंगे।


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