यज्ञ चिकित्सा से तपेदिक का इलाज

February 1952

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(पं. दुर्गा प्रसाद शास्त्री)

वैज्ञानिक तरीके से यह बात प्रमाणित हो चुकी है, कि सूक्ष्म वस्तु स्थूल में प्रवेश करती है, स्थूल सूक्ष्म में नहीं घुस सकती। आटे में मिली हुई शक्कर के सूक्ष्म परमाणुओं को पृथक-पृथक करने में मनुष्य की अँगुली सर्वथा असमर्थ है, लेकिन चींटी का सूक्ष्म मुँह उसको पृथक-पृथक कर देता है। उसी प्रकार दुनिया के विज्ञान-वेत्ताओं का मत है कि तपेदिक का कीड़ा इतना सूक्ष्म होता है, कि पच्चीस हजार कीड़े एक इञ्च स्थान में समा जाते हैं तथा वजन में इतने हल्के होते हैं, कि एक खसखस के दाने पर करोड़ों कीड़े चढ़ जाते हैं। बुद्धिमान इस बात को जानते हैं, कि इतने सूक्ष्म से सूक्ष्म कीड़ों के पास स्थूल कण वाली औषधियों की बड़ी-2 मात्राओं की पहुँच कैसे हो सकती है? यही कारण है, कि लोग तपेदिक रोग को लाइलाज कह कर पुकारते हैं, क्योंकि स्थूल पदार्थों का सूक्ष्म में प्रवेश सर्वथा असम्भव है और इलाज करते करते ही रोगी परलोक धाम को सिधार जाता है। होम्योपैथिक चिकित्सा के आविष्कार कर्त्ता महात्मा हैनीमन साहब लिखते हैं, कि अधिक निर्बल रोगियों को किसी भी प्रकार की औषधि खिलाने की अपेक्षा सुँघाना बहुत लाभदायक है। आपने लिखा है कि मेदे के अतिरिक्त जिह्वा और मुँह में ऐसे भाग हैं जो औषधि के प्रभाव को बड़ी शीघ्रता से ग्रहण करते हैं इसके अलावा नाक का भीतरी भाग औषधि के गुण से अतिशीघ्र प्रभावान्वित हो जाता है। औषधि का सबसे अधिक प्रभाव सूँघने और श्वांस लेने से होता है।

प्रोफेसर मैक्समूलर “फिजिकल रिलीजन” में लिखते हैं, कि सुगन्धयुक्त पदार्थों को आग में जलाने से अनेक प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। आगे आप लिखते हैं, कि स्काटलैंड, आयरलैंड, दक्षिणी अमेरिका में महामारी जैसे भयंकर रोग को दूर करने के लिये यह प्रथा प्रचलित रह चुकी है। जापान और चीन में होम को घोम कहते हैं और नित्य मन्दिरों में घृत के साथ सुगन्धित द्रव्य जलाकर भयंकर रोग दूर किए जाते हैं। जर्मनी में लवेन्डर की बत्ती जलाई जाती है। ईरान के पार्सी लोग हवन यज्ञ को हिन्दुओं की तरह बड़ी उत्तमता से करते हैं। जर्नल किंग आई. एम. एस. सेनेटरी कमिश्नर मद्रास में “ब्यूबानिक प्लेग“ नामी पुस्तक में लिखा है—”सुगन्धयुक्त रोगनाशक औषधियों के जलाने से महामारी प्लेग और अनेक प्रकार के विष युक्त रोग दूर हो जाते हैं।” इस प्रकार के हवन की क्रिया मेडिकल साइंस के सर्वथा अनुकूल है। इसकी भूमिका डब्लू. एम. टैफकिन साहब मुम्बई वालों ने लिखी है। उन्होंने अनेकों प्रणाम देकर इस यज्ञ की क्रिया को प्रमाणित किया है।

हवन करने से सुगन्धि फैलती है, जिसकी साक्षी प्रत्येक नासिका रखने वाला नीरोग मनुष्य दे सकता है, इस सुगन्धि के कारण वायु में “ऑक्सीजन” तथा ‘ओजून” भर जाता है। जिसको पश्चिमी डाक्टरों की परिभाषा में ‘ओजून’ कहा गया है, उसको संस्कृत भाषा में सुगन्धित वायु अथवा शुद्ध वायु कहते हैं और ‘ऑक्सीजन गैस’ का ‘प्राणवायु’ नाम है।

तपेदिक के लिए वेद का आदेश :-

“मुञ्चामि त्वा हविषा जीवन य-अज्ञात यक्ष्मादुत राजक्ष्मात ग्राहिः जग्राहि यद्यते देवं तस्या इन्द्राग्नि प्रभु मुक्त मेनम्।

अथर्ववेद- काँ 3, अ. 3, सूक्ल 11, मन्त्र 1।

अर्थात् हे व्याधिग्रस्त (त्वा) तुझको (कम) सुख के साथ (जीवनाय) चिरकाल तक जीने के लिये (अज्ञात यक्ष्मात्) गुप्त यक्ष्मा रोग से (उत्) और (राजयक्ष्मात्) सम्पूर्ण प्रकट राजयक्ष्मा रोग से (हविषा) आहुति द्वारा (मुञ्चामि) छुड़ाता हूँ (यदि)जो (एतत्) इस समय में (एनमा) इस प्राणी को (ग्राहिः) पीड़ा ने वा पुराने रोग ने (जग्राहि) ग्रहण किया है (तस्याः) इससे (इन्द्राग्नि) वायु तथा अग्नि देवता इसको अवश्य छुड़ावें।

इससे स्पष्ट हुआ, कि वेद हर प्रकार के तपेदिक की चिकित्सा वायु और अग्नि द्वारा बतलाता है।

मसिहुलमुल्क हकीम अजमल खाँ साहब ने लिखा है कि गलाई हुई औषधि अपनी तीव्रता के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों को निःसन्देह दूर करती है।

चरक, चिकित्सा-स्थान, अध्याय 8, श्लोक 184 में लिखा है :—

“यया प्रयुक्त चेष्टया—राजयक्ष्मा पुराजितः ताँ वेद विहितामिष्टिमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्।

जिस यज्ञ के प्रयोग से प्राचीन काल में ‘राजयक्ष्मा’ रोग नष्ट किया जाता था। उस वेद-विहित यज्ञ को रोग दूर करने के लिए करना चाहिए।

मि. ‘ट्रिलिट साहब ने लिखा है, कि खाँड के शीघ्र जलने से ‘फार्मिक एललि हाइड’ नामी वाष्प उत्पन्न होती है, जो रोग के सूक्ष्म जन्तुओं के नाश के लिये प्रबल औषधि है—यह खाँड रोग—नाशक औषधियों के साथ जलाई जाती है।

यज्ञ से इलाज :- अग्नि के साथ रोग नाशक औषधि जलाने से जन-विध्वंसकारक रोग शमन होते हैं तथा श्वास प्रश्वास के द्वारा इस वायु द्वारा विषैले कृमियों का नाश हो जाता है, क्योंकि जिस द्रव्य का हवन किया जाता है, वह उसको सर्वत्र फैला देता है। इसके लिये सम्पूर्ण औषधियों को विधिपूर्वक एकत्रित करके धूप में सुखा लेवें, पश्चात् कूट छानकर उत्तम गाय का घी मिलाकर इसके लड्डू सरीखे बना लेवें, क्योंकि सामग्री सूखी रह जाने से रोगी को कुछ खाँसी हो जाने या बढ़ जाने का अँदेशा रहता है। औषधियों के नाम जो नीचे लिखे हैं वे बहुत प्राचीन नाम हैं, इन औषधियों की नामावली निघण्टु, भाव-प्रकाश अथवा अन्य ग्रन्थ या अनुभवी वैद्यों द्वारा कर लेनी चाहिये।

औषधियों की नामावली :- मंडूटपर्णी, ब्राह्मी, इन्द्रायण की जड़, सतावरी, असगन्ध, विधारा, शालपर्णी, मकोय, अडूसा, गुलाब के फूल, तगर, राशना, वंशलोचन, क्षीरकाकोली, जटामासी, पण्डरी, गोखरु, तालमखाना, बादाम, मुनक्का, जायफल, बड़ी इलायची, बड़ी हरड़, आँवला, छोटी पीपल, जीवन्ती, पुनर्नवा, नगेन्द्रवामड़ी, चीड़ का बुरादा, गिलोग, चन्दन, कपूर, केशर, अगर, तगर, गूगल, पानड़ी, मोथा, चीता, पित्तपापड़ा। यह सब औषधियाँ सम भाग इनका दसवाँ भाग शक्कर तथा आठवाँ भाग शहद डालकर गाय के घृत में लड्डू समान बनाया जावे। इसके अतिरिक्त गाय के दूध में साठी के चावलों की खीर पृथक बनाई जावे। सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों समय यज्ञ करना चाहिए। रोगी, देश, काल और बलाबल के अनुसार स्वाहा शब्द का उच्चारण करें। यज्ञ की अग्नि खूब प्रदीप्त हो जिससे धुआँ ने होने पावे—उपवन अथवा अन्य प्रकार का बाग, तालाब मुख्य तथा चीड़ अथवा बाँस के जंगल में बैठकर यज्ञ करना परमोपयोगी है। साधारण रोगी को वेद-मंत्र उच्च स्वर से उच्चारण करने से यह यज्ञ सद्य फलदायक प्रमाणित होगा। उष्ण काल में दूर बैठकर आहुति देनी चाहिए तथा शीत काल में दोपहर को यज्ञ करना विशेष लाभदायक है। इन दिनों रोगी को बलाबल के अनुसार केवल फलों का रस अथवा अवस्था अच्छी हो तो फल ही सेवन करना चाहिए। दोनों समय वायु-सेवन करे, सुगन्ध युक्त पदार्थों से सुसज्जित वस्त्र धारण करे, एवं अन्य प्रकार के मनोरंजक सामान जुटावे तथा पुरुष रोगी हो तो स्त्री के, स्त्री रोगी हो तो पुरुषों के सम्भाषण, संसर्ग आदि से सर्वथा पृथक एकान्त निवास करे। कभी स्वप्न में भी एक दूसरे का संपर्क न करे।

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