निद्रा कैसे लेनी चाहिए।

February 1952

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(श्री मालीराम जी पुरोहित)

निद्रा शरीर रूपी यन्त्र का स्वाभाविक विश्राम है। दिन में मानसिक एवं शारीरिक कार्य करने से शरीर क्लान्त हो जाता है, निद्रा से उसकी पूर्ति होती है। अतएव निद्रा स्वास्थ्य रक्षा और बल-वृद्धि के लिए आवश्यक है। निद्रा के बिना कोई भी मनुष्य अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकता। जिस प्रकार काम करने के लिए दिन है उसी प्रकार शयन के लिए रात्रि है। निद्रा में अधिक समय व्यतीत नहीं करना चाहिए।

स्वास्थ्य के लिए अधिक निद्रा की नहीं, किन्तु प्रगाढ़ निद्रा, स्वप्न-दूषित 8--10 घण्टे की हल्की निद्रा की अपेक्षा अधिक हितकारी है। दीर्घ निद्रा हानिकारक है इस कारण निद्रा जितनी दीर्घ होती है, उतनी ही हल्की होती है। एक युवा मनुष्य के लिए 24 घण्टे में केवल 5-6 घण्टे की निद्रा पर्याप्त है। शीतऋतु की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में, निरोग मनुष्य की अपेक्षा रोगी मनुष्य को, बड़े आदमी की अपेक्षा छोटे आदमी को या बालक को एवं शारीरिक परिश्रम करने वाले मनुष्य की अपेक्षा मानसिक परिश्रम करने वाले मनुष्य को अधिक निद्रा की आवश्यकता है। रात्रि ही गहरे विचारों को मन में प्रवेश कराने का सर्वोत्तम समय है। ऐसे श्रेष्ठ समय को केवल निद्रा में न व्यतीत कर, उसका कुछ भाग अन्य कार्यों के लिए भी निर्धारित करना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में दोपहर के समय विश्राम करना स्वास्थ्य के लिये अच्छा है।

निद्रा प्रकृति दत्त अमूल्य वस्तु है। प्रकृति देवी की आज्ञानुसार चलने वाले इस स्वर्गीय सुख से कदापि वञ्चित नहीं रहने पाते। प्रकृति के नियमों को तोड़ने वाले मनुष्यों को ही अनिद्रा रोग होता है।

अनिद्रा आलस्य की जननी है। आलस्य में पड़े रह कर निद्रा के सुख की आशा करना व्यर्थ है। अतः परिश्रम ही उत्तम निद्रा का मूल कारण है। प्रकृति देवी के नियमानुसार स्वच्छ वायु में उपयुक्त परिश्रम करने से प्रगाढ़ निद्रा अवश्य आयेगी। किन्तु यह याद रखना चाहिए कि अधिक परिश्रम भी अनिद्राकारक और स्वास्थ्य नाशक है उत्तम निद्रा आने पर बुरे स्वप्न की सम्भावना नहीं रहती।

खुली हवा में भ्रमण करके मस्तिष्क सम्बन्धी दुस्तर रोगों से ग्रसित अनेक मनुष्य निरोग हुए हैं। भ्रमण का अर्थ रेल आदि पर घूमना नहीं है, लेकिन पैदल चलना ही श्रेष्ठ भ्रमण है। यह अनेक रोगों की अचूक औषधि है। दृढ़ शय्या सुनिद्रा के लिए उत्तम है। उत्तम निद्रा के लिए परिमित शारीरिक और मानसिक परिश्रम उत्तम पौष्टिक और सादा आहार, दृढ़ शय्या, शुद्ध शीतल वायु का सेवन, अन्धकार, निस्तब्धता, निश्चिन्तता, नियम और समय निष्ठादि विशेष अनुकूल हैं।

निद्रा के आने पर क्रम से दर्शन, स्पर्श, स्वाद, घ्राण आदि इन्द्रियाँ निद्रित होती हैं मस्तिष्क सबके पीछे निद्रित होता है। अनेक बार मस्तिष्क पूर्णरूपेण निद्रित नहीं होता। निद्रावस्था में भी उसकी किंचित क्रिया होती रहती है। मस्तिष्क के क्रिया शून्य न होने से निद्रा का उद्देश्य पूर्णतया सिद्ध नहीं होता। मस्तिष्क के निद्रित न होने पर उसको उत्तम निद्रा नहीं कहा जा सकता। इसलिए निद्रा आने से प्रथम मन को पूर्ण रूप से चिन्ता शून्य कर लेना आवश्यक है। शयन करते समय बहुत लोग समस्त चिन्ताओं को सहज ही में दूर करके तथा गम्भीर निद्रा का यथेष्ट सुख लाभ कर सकते हैं, बशर्ते वे अपना कालयापन, यावज्जीवन सात्विक आहार तथा सात्विक कामों से करें।

निद्रावस्था में मस्तिष्क में रुधिर का प्रवाह कम हो जाता है इसलिए तम्बाकू , चाय, काफी आदि जिन पदार्थों के सेवन से रुधिर का मस्तिष्क की ओर अधिक संचालन होता है, शयन करने के पहले उनका सेवन नहीं करना चाहिए। ये सभी पदार्थ निद्रा में व्याघात करते हैं। सिर के ऊपर शीतोपचार करने से सिर में जो तीव्रता से रुधिर का संचालन होता है वह तत्काल कम हो जाता है।

रात्रि के प्रथम भाग की निद्रा अर्थात् 12 बजे से पहले की आधी रात के बाद की निद्रा की अपेक्षा श्रेष्ठ है। उठने का समय 4 बजे लाभकारी होता है। समय पर सोना और सवेरे उठना स्वास्थ्य रक्षा का सबसे श्रेष्ठ नियम है। उत्तम निद्रा में स्वप्न आदि नहीं दीखते और यदि दीखते भी हैं तो याद नहीं रहते।

दायीं करवट सोने की अपेक्षा बायीं ओर सोना हित कारी है। दायीं करवट से सोने पर पाकस्थली के ऊपर भारयुक्त यकृत का और हृदय पिण्ड पर पाकस्थली का दबाव पड़ता है। सीधा याने चित होकर शयन करना अत्यन्त हानिकर है क्योंकि ऐसा करने से रुधिर संचालन में बाधा पड़ती है, स्नायुओं के ऊपर दबाव पड़ता है। इस कारण स्नायुओं में दुर्बलता उत्पन्न हो जाती है। इसलिए दक्षिण करवट से शयन करना ही हितकर है। सिर को उत्तर की तरफ करने से बहुत हानि होती है। दक्षिण की ओर पाँव करके शयन करना निषिद्ध बताया गया है।

जागते ही तत्काल बैठ नहीं जाना चाहिए। उस समय शरीर में कुछ आलस्य होता है। इसलिए ऐसी अवस्था में उठने से शरीर में दुर्बलता हो जाती है। निद्रा से मुक्त होने पर कुछ देर बाद शय्या से उठना चाहिए।

अधिक ऊँचा तकिया लगाकर शयन करना ठीक नहीं है। ऐसा करने से श्वासोच्छवास की क्रिया ठीक तरह से संचालित नहीं हो पाती।

शयन के स्थान से दीपक या लैम्प दूर रखना चाहिए, यानी उसकी रोशनी नेत्रों पर न पड़नी चाहिए।


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