स्वदेश को पहचानिए।

February 1952

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(श्री स्वामी श्री भोलेबाबा जी महाराज)

एक सत्संग में बैठे हुए कई विचारवान व्यक्ति आपस में विचार विनिमय कर रहे हैं।

एक—क्यों जी! स्वदेश-स्वदेश ऐसा शब्द आजकल बहुत सुनने में आता है, स्वदेश शब्द का क्या अर्थ है? इसका आज हम मिलकर विचार करें, ऐसा मेरे जी में आता है, आप सबकी यदि मर्जी हो, तो अपनी-अपनी बुद्धि अनुसार इसका अर्थ प्रकट कीजिए!

दूसरा-हाँ भाई! मैं भी यह ही चाहता हूँ, यह विषय बहुत ही रोचक और उपयोगी सिद्ध होगा और इसका विचार हमारे चित्त को आनन्द देने वाला और बुद्धि का विकास करने वाला भी ठहरेगा, ऐसी मेरी मति है। शब्दों के अर्थ का समझना समझाना बुद्धि को तीव्र, सूक्ष्म और शुद्ध बनाता है।

तीसरा—भाई! स्वदेश शब्द का अर्थ मेरी समझ में तो यह आया है कि—यह देह ही स्वदेश है, बाहर के समस्त देश इस देह के ही आधीन हैं, इस देह के लिए ही अन्य देशों की आवश्यकता है, इस देह से ही अन्य देश सिद्ध होते हैं, यह देह जहाँ होता है, वहाँ ही हमारा देश हो जाता है, देह नष्ट हुआ, कि—देश अदृश्य हुआ, न कहीं फिर स्वदेश दिखाई देता है, न कहीं परदेश देखने में आता है, जब तक देह है, तब तक देश विदेश का झगड़ा है, देह न हो तो किसको देश कहा जाय किसको विदेश पुकारा जाय! जब तक देह है, तब तक इस स्वदेश रूप देह को खूब खिलाओ खूब पिलाओ, पुष्ट करो, पीछे कुछ नहीं है। जैसे बने वैसे इस स्वदेश का उपकार करो, सेवा करो, उसकी सेवा किये बिना यह मेवा नहीं देता, जितनी उसकी सेवा करोगे, उतना यह भी हमारी सेवा करेगा।

चौथा—भाई! देह को तू देश बताता है, यह तेरा कहना ठीक है, मेरा मत भी ऐसा ही है परन्तु तेरे समान मैं स्वार्थी नहीं हूँ, अपने देह को ही मैं पुष्ट, करना और पालना नहीं चाहता! जैसे मेरा देह है, इसी प्रकार मेरे माता, पिता, भाई बहिनों का और मेरे पुत्रों का भी देह मेरा देह है; एक घर में जितने हम रहते हैं, वे सब एक देश के होने से एक ही हैं, सबका ही अपने देह के समान पालन-पोषण करना चाहिए, यह मेरा मत है, ऐसा मैं करता भी हूँ, सबको ऐसा ही करना चाहिए! किसी ने सच कहा है कि—सबको खिलाकर सबसे पीछे खाने वाला कुटुम्बी धन्य है, यहाँ कीर्ति पाता है, और मरने के पीछे देवताओं के दिव्य भोगों को भोगता है।

पाँचवाँ—मित्रो! आप दोनों का कथन ठीक है, देह को ही मैं भी स्वदेश मानता हूँ परन्तु आप दोनों के समान संकुचित हृदय वाला मैं नहीं हूँ, मैं तो अपनी जाति भर को अपना देश समझता हूँ, और अन्य जातियों को भी अपना देश मानता हूँ, भेद उतना है कि—अपने घर वालों को तो अपने धन का यथायोग्य विभाग करके अपने उपभोग में लाता हूँ, ब्राह्मणों को और अपनी जाति वालों को भी कभी कभी किसी उत्सव पर भोजन करा देता हूँ, ब्राह्मणों को कभी प्रत्यक्ष वस्त्र आदि का दान देता हूँ और जाति वालों की गुप्त या प्रकट यथासंभव सहायता करने को तैयार रहता हूँ, यह बात मैं अभिमान से नहीं कहता किन्तु अपना कर्त्तव्य ही समझता हूँ, आप मित्रों से प्रसंग आने पर मैंने अपने विचार प्रकट कर दिये हैं, नहीं तो मैं कभी किसी से इस बात को कहता नहीं हूँ।

छठा—विद्वानों! मैं भी देह को ही देश मानता हूँ, अपने घर के, अपने ग्राम के, अपने शहर के, और अपने देश के सभी प्राणियों को मैं अपना देश मानता हूँ, व्यवहार तो मैं अधिक नहीं बढ़ाता हूँ, क्योंकि व्यवहार के लिये तो घर के ही बहुत हैं, उनके लिए ही महान् चिन्ता करनी पड़ती है, चिन्ता करने पर भी उनसे यथायोग्य व्यवहार नहीं कर सकता और करने की आवश्यकता भी नहीं समझता, क्योंकि मैंने वृद्ध पुरुषों से सुना है कि—शरीर बनने से पहिले शरीर का प्रारब्ध बनता है, सब अपने-अपने प्रारब्ध की झोली लेकर आते हैं और जैसा अच्छा, बुरा, थोड़ा बहुत उनकी झोली में होता है, वैसा खाते, पीते, पहनते हैं, ऐसा समझ कर मैं किसी घर की अथवा बाहर की चिन्ता नहीं करता! प्यार सबसे करता हूँ, सबका भला चाहता हूँ, यथासंभव अपने देश की वस्तु ही अपने उपयोग में लाता हूँ और दूसरों को भी ऐसा ही उपदेश देता हूँ। अपने देश का मैं सेवक हूँ, विदेशियों से यथासंभव दूर रहता हूँ बात यह है कि—मैंने ऐसा सुना है कि-सब देश वाले अपने देश की बनी हुई वस्तुओं को अपने उपयोग में लाते हैं। अन्य देश की वस्तुयें अपने उपयोग में नहीं लाते उनका ऐसा विचार है कि—अपने देश का धन अपने देश में रखना चाहिये, बाहर नहीं जाने देना चाहिये, यह बात मेरी समझ में बैठ गयी है, और मैं ऐसा ही करता हूँ यह ठीक है।

सातवाँ—भाइयो! देह ही देश है, सब देश देह से जानने में आते हैं, देह न हो तो कोई कहीं भी देश न हो भाई! मैं तो पृथ्वी भर को अपना देश मानता हूँ, जैसे एक देह, जैसे एक घर के देह, जैसे ग्राम के देह, शहर, देश आदि के देह हैं, वैसे ही समस्त पृथ्वी के देह हैं, तब एक घर, एक ग्राम, एक शहर, एक देश ही को ही देश क्यों मानना चाहिए! मैं किसी एक देश को देश नहीं मानता, पृथ्वी के सब देश मेरे ही देश हैं। जहाँ से उत्तम उत्तम उपयोगी वस्तु मिलती हैं, वहाँ से मँगा लेता हूँ, किसी देश की वस्तु से मुझे द्वेष नहीं है। ईश्वर ने मुझे धनी बनाया है, सब देशों से माल मंगाता हूँ, सब देशों में माल भेजता हूँ। सुनता हूँ कि—बहुत से अपने देश का ही माल लेते हैं, परन्तु अपना माल तो अन्य देशों में भेजते ही हैं, ऐसा उनका करना मुझे नहीं रुचता! जब सब पृथ्वी जगदीश्वर की है, तो मुझे संकुचित क्यों बनना चाहिए! पृथ्वी भर से मैं व्यवहार करता हूँ! अपने कूप का खारी पानी पिये, पड़ोसी के कूप का मीठा पानी न पीवे, उसे क्या विद्वान्-चतुर कह सकते हैं। नहीं कह सकते!

आठवाँ—(गम्भीर स्वर से) हे विद्वानों! हे मेरे आत्माओं! वेद वेत्ताओं से मैंने तो ऐसा सुना है कि-यह समस्त ब्रह्माण्ड ही मेरा स्वदेश है, और मेरा भी ऐसा ही अनुभव है कि-यह सब ब्रह्माण्ड मेरे बिना सिद्ध नहीं होता, मुझ चेतन से ही इस सम्पूर्ण दृष्टि की सिद्धि होती है; इसलिए यह समस्त ब्रह्माण्ड मेरा स्वदेश है, अथवा यों कहना चाहिए कि—यह समस्त ब्रह्माण्ड मैं ही हूँ, और तुम भी ऐसे ही हो; क्योंकि तुम सब मेरे आत्मा ही हो; यानी मेरे स्वरूप ही हो, और मैं तुम्हारा आत्मा हूँ; यानी स्वरूप हूँ; तब हम सबका समस्त ब्रह्माण्ड ही देश हुआ। यह ब्रह्माण्ड क्या है? और हम तुम क्या हैं? वह बात बताता हूँ; सुनो! सत्व आदि तीन गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। यह प्रकृति भोक्ता पुरुष के अदृष्ट द्वारा यानी कर्मों के कारण से ईश्वर की प्रेरणा से गुणों की विषमता को प्राप्त होकर स्वयं ही देह; इन्द्रिय; प्राण; मन, बुद्धि आदि रूप से, राग द्वेष आदि रूप से, शम-दम आदि रूप से, शब्द आदि विषय रूप से और जगत् के आकार रूप से, बहुत प्रकार से परिणाम को प्राप्त हो जाती है। यह ही कार्य कारण संघात रूप से अनुभव में आने वाले शरीर यानी ब्रह्माण्ड है।

इस अनुभव में आने वाले शरीर रूप ब्रह्माण्ड को जो जानता है, यानी गुरु के उपदेश किये हुए ज्ञान से इस सब दृश्य-समूह को जानता है, यानी यह सब मैं ही हूँ; इस प्रकार जानता है; वह चेतन आत्मा है। भाव यह है कि-बाहर और भीतर सर्वत्र समस्त दृश्य को प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से साक्षात् यानी बिना किसी आड़ के जो जानता है; वह शरीरज्ञ आत्मा है; ऐसा शरीर और शरीरज्ञ के जानने वाले कहते हैं।

यह चेतन आत्मा ही इस सब ब्रह्माण्ड को जानता है; यह ही सबका स्वदेश है, और मेरा स्वदेश है, इसके संबंध से सब ब्रह्माँड भी मेरा देश है, न कोई शत्रु है, न मेरा कोई मित्र है, सब मेरे आत्मा ही हैं, गुरु शास्त्र, ईश्वर की कृपा से इस देह में से मेरा अभिमान चला गया है, इसलिए सब देह मेरे ही हो गये हैं। इस देह में अभिमान करने से पूर्ण आत्मा छोटा सा भासता है, अभिमान छोड़ देने से पूर्ण ही भासने लगता है। पूर्ण ही है, किसी का स्वरूप परमार्थ से बदल नहीं सकता, यह पूर्ण आत्मा सर्वत्र, सर्वदा सर्वथा पूर्ण ही है, फिर भी देहाभिमानियों को छोटा सा भासता है, इसी कारण उनमें राग-द्वेष होता है, रागद्वेष होने से किसी को अपना और किसी को पराया समझते हैं, यदि वे उस स्वदेश को जाने लें, तो उनको अपने से भिन्न कोई दिखाई ही न दे! इस आनन्द स्वरूप स्वदेश आत्मा का अज्ञान होने से ही सब अशान्त हैं, अशान्त होने से अपने को देह मान कर देह के संबंधियों को अपने मानते हैं और अन्य देशों को विदेश मानते हैं, इसी कारण परस्पर विरोध करते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं, मरते हैं, एक जान के लिए सैकड़ों की जान खो देते हैं, आप भी दूसरों के हाथ से मारे जाते हैं, यदि दैवयोग से बच गये, तो काल भगवान् के ग्रास तो एक दिन हो ही जाते हैं।

यह देव बुद्धि बहुत ही स्थूल बुद्धि है, घर बुद्धि यानी कुटुम्ब बुद्धि कुछ सूक्ष्म है, ग्राम बुद्धि, जाति बुद्धि, देश बुद्धि और पृथ्वी बुद्धि क्रम क्रम से कुछ उत्तम हैं परन्तु हैं सब स्थूल बुद्धि ही! श्रुति कहती है और विद्वानों का भी अनुभव है कि-देह से सूक्ष्म इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है, मन से सूक्ष्म बुद्धि है, बुद्धि से सूक्ष्म समष्टि बुद्धि है, समष्टि बुद्धि से सूक्ष्म अव्यक्त यानी कारण शरीर है, कारण शरीर से सूक्ष्म पुरुष है यानी सब का आत्मा है, पुरुष से सूक्ष्म कुछ नहीं है, यह ही काष्ठा है, यानी सीमा है, और यह ही परमगति है! हे मित्रो! यह पुरुष ही स्वदेश है, इस स्वदेश के न जानने से ही हम तीन तेरह हो रहे हैं, शोक मोह से ग्रस्त व्याकुल हो रहे हैं, विक्षिप्त हो रहे हैं, तुच्छ और दीन हो रहे हैं, अधिक क्या कहूँ, जितना भी दुःख है; उतना इसी के न जानने का दुःख है, नहीं तो संसार में कोई दुःख हो भी कहाँ से? सुख रूप परमेश्वर के सब अंश हैं अथवा स्वरूप ही हैं। कारण से कार्य भिन्न नहीं होता, इस न्याय से सब स्वतंत्र और सुखी ही है; अपने स्वदेश को न जानने से सुखी और स्वतंत्र होकर भी दुःख, परतंत्र होने का अनुभव करते हैं, यह बड़े शोक की बात है।

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