इस वनस्पति “घी” को मत खाइए।

February 1952

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(श्री मनोहरदास जी अप्रावत उम्मेदपुरा)

किसी घटिया चीज का रंग-रूप बदल कर किसी बढ़िया चीज के नाम और रूप का बताकर केवल अधिक दाम लेने के लिए किसी चीज को बनाना और बेचना धोखा है, नकली घी, तेल है उसमें घी का कोई गुण नहीं फिर भी घी का रंग रूप सुगन्धि देकर तेल से अधिक दामों पर बेचना ईमानदारी नहीं। यह धोखा और भी बढ़ जाता है जब वह असली चीज के नाम से या मिलावट करके बेची जाय।

प्रसिद्ध विशेषज्ञ डॉ. राईट की जाँच के अनुसार 90 प्रतिशत वनस्पति घी केवल मिलावट के काम आता है कारखाने वाले मिलावट के लिए घी का रंग रूप तथा सुगन्ध देते ही हैं, दुकानदार मिलावट करके बेचते हैं, किसान भी मिलावट करने पर मजबूर हुआ है। प्राचीन काल से किसी असली चीज में नकली की मिलावट करना या असली जैसी बनाना दोष और अपराध माना गया है, आज भी संसार के प्रायः सभी देशों में मिलावट करना एक संगीन जुर्म है। हमारे देश में भी एक कागजी कानून बना हुआ है। वनस्पति घी के प्रचार से कारखाने वाले ही नहीं दुकानदार और शुद्ध घी पैदा करने वाले किसान का नैतिक पतन हो रहा है। नैतिक पतन होने के कारण शुद्ध घी की तसल्ली नहीं रही। कितने ही लोग जो वनस्पति घी का नाम लेने में शर्म महसूस करते थे, मिलावट के कारण शुद्ध घी का विश्वास न होने से खुले बाजार वनस्पति घी खरीदते हैं। कारखाने वालों ने मूँगफली, बिनौले और नारियल के तेल को जमा, उसमें शुद्ध घी जैसी सुगन्ध दे दानेदार तो बनाया है, जिस इलाके में भैंस का घी अधिक होता है वहाँ हल्का हरा और जहाँ गाय का वहाँ हल्का पीला रंग मिलाकर, ऐसा नकली घी तैयार करते रहे हैं जिसकी मिलावट करने की जरूरत नहीं, वनस्पति का लेबल उतार कर कनस्तर खोलें तो यह शुद्ध वनस्पति, गाय या भैंस का शुद्ध घी प्रतीत होगा, यह नैतिक पतन की पराकाष्ठा है।

नकली घी जिन तेलों से बनता है उनमें अधिक गुण नहीं रहता, जमाने के कारण हजम करने में कुछ न कुछ कमी या खराबी ही आती है, इसमें शरीर को पौष्टिक करने वाले तत्व विटामिन या खनिज और प्रोटीन भी नहीं होते। सर्वप्रथम सन् 1937 में कैप्टन थामस आई. एम. एस. कैमिकल इनेलाईजर ने पंजाब सरकार से अनुभव करके बतलाया कि नकली घी के खाने से कोई लाभ नहीं हानि ही होती है। पंजाब सरकार ने अपने पत्र नं. 63186 ता. 15, 12, 17, द्वारा भारत सरकार को इसे बन्द करने के लिए लिखा। कर्नल मैकी आई. एम. एस. डायरेक्टर वैक्टोरी ओलोजीकल लैबोरेटरी बम्बई सरकार ने बताया कि बालक और वृद्ध इन तेलों को खाकर अपने स्वास्थ्य को बरबाद करे देंगे। इसकी बिक्री कतई बन्द कर देनी चाहिए। देश के प्रसिद्ध हाफकिन संस्था के संचालक सर साहिबसिंह, श्री सोखे ने भारत सरकार के भूतपूर्व खाद्य मन्त्री श्री बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी के इस कथन पर कि जमाये तेलों पर पोसे चूहों की तीसरी पीढ़ी अन्धी हो गई, अपना अभिप्राय देते हुए बताया कि हाफकिन संस्था के प्रयोग से यह तथ्य निकला कि जमाये तेल के खाने से शरीर की वृद्धि कम हुई, कैल्शियम (चूने) के परिपाचन में बाधा पहुँची, शरीर की घटना में बदल हुआ। आपने कहा जमाये तेल की अपेक्षा शुद्ध तेल का खाना अधिक अच्छा तथा सस्ता रहेगा। देश के प्रायः डॉक्टरों, वैद्यों तथा हकीमों ने इस जमाये तेल को सेहत के लिये खराब बतलाया।

इज्जत नगर (बरेली) की सरकारी प्रयोगशाला में 1-10-45 से 31-3-46 तक छः महीने मनुष्य जैसे पाचक शक्ति आदि रखने वाले चूहों पर शुद्ध घी तथा नकली घी का अनुभव करने पर परिणाम निकला कि वनस्पति घी खाने वालों में अधरंग, पेशाब की खराबी, या नपुंसकता आदि बीमारी हो गई, छः माह बाद 40 से सौ फीसदी तक मृत्यु भी हुई पर शुद्ध घी खाने वाले स्वस्थ रहे तथा बढ़े। भारत सरकार ने इज्जत नगर का नतीजा जनता को बतलाने के लिए एक चित्र द्वारा सन् 1947 की खाद्य तथा पशु प्रदर्शिनी में यह दिखलाया कि-चूहों पर यह नतीजा तीन पीढ़ी में मालूम हुआ, चूहों की यह तीन पीढ़ी छः महीने में ही हो गई पर मनुष्य की कम से कम साठ साल में होती है। अतः नकली घी का परिणाम मनुष्य शरीरों पर जल्दी मालूम नहीं होगा। जो लोग वनस्पति घी के साथ-2 अन्य पदार्थ खाते हैं उनका तो और भी देर में प्रतीत होगा। पर कारखाने वालों का यह कहना है कि उन्होंने पौष्टिकता की कमी दूर करने के लिए विटामिन मिला दिया है। यह विटामिन प्रायः मछली के तेल में से ही निकाले जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय भोजन पौष्टिक सम्मेलन होट स्प्रिंग (वर्जिनीया) ने निश्चय किया कि विटामिन का अलग मिलाना सेहत की दृष्टि से हानिकारक है। नकली घी में प्राकृतिक विटामिन नहीं, बाहर से मिलाना हानिकारक है अतः नकली घी में जो नकली पौष्टिकता मिलाई गई है वह और भी अधिक खराबी करती है।

अर्थशास्त्र का एक सर्वसिद्ध करेंसी या सिक्के का नियम है कि जब बाजार में नकली तथा जाली सिक्के आ जाते हैं तो असली को बाजार में से निकाल देते हैं। इस नियम का प्रभाव सब चीजों पर पड़ता है। इसी नियम के अनुसार नकली घी शुद्ध घी को निकाल रहा है। जिससे नकली घी की उत्पत्ति दिन-2 बढ़ती तथा शुद्ध घी कम हो रहा है जैसा कि नीचे सरकारी अंकों से प्रकट होता है—

सन् 1937 में शुद्ध घी की पैदावार देश भर में दो करोड़ 30 लाख मन थी, सन् 1947 में वह केवल 1 करोड़ 11 लाख मन रह गई अर्थात् आधे के करीब घट गई। इसके विपरीत वनस्पति घी के उत्पादन में पाँच गुनी वृद्धि हुई सन् 37 में वनस्पति घी 6॥ लाख मन थी वह सन् 47 में 31॥ लाख मन हो गई।

सरकारी तखमीने के अनुसार 1952 तक नकली घी का उत्पादन 4॥ लाख टन या 126 लाख मन हो जायगा। इसे पूरा करने के लिये नये कारखाने लगाये जा रहे हैं। यदि शुद्ध घी की कमी तथा नकली घी का उत्पादन बढ़ाने की यही गति रही तो अगले दस साल में शुद्ध घी का मिलना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो जायगा शुद्ध घी से किसान को अनुमानतः दो अरब रुपये वार्षिक मिलते रहे हैं वह नहीं मिलेंगे। सन् 1937 में जब नकली घी की उत्पत्ति 25 हजार टन थी किसान को तीन करोड़ रुपये वार्षिक केवल मिलावट के कारण नुकसान था। अब इसका उत्पादन तथा मिलावट बढ़ाने के कारण इन दिनों भी 15 करोड़ सालाना से कम नुकसान नहीं। किसान प्रायः शुद्ध घी खाते हैं न नकली खरीद सकते हैं। उन्हें शुद्ध घी निकालने से तैयार हुई छाछ खाने से सी पौष्टिकता प्राप्त करने तथा बैसाख जेठ की तपती हुई धूप और पाँच माह की कड़कड़ाती सर्दी में काम करते हैं (हमारे देश में 6075 लाख मन छाछ तैयार होती है) शुद्ध घी की पैदावार कम होने से छाछ भी न मिलेगी। किसान शुद्ध घी की आमदनी से ही वंचित नहीं होगा। उसका शारीरिक ह्रास भी आवश्यक है। जब शुद्ध घी की पैदावार तथा बिक्री को धक्का लगेगा तो महात्मा गाँधी जी के 8-1-40 के लेख तथा शाही कृषि कमीशन की रिर्पोट के अनुसार पशुओं का रखना कठिन हो जायगा। कृषि तथा पशुपालन को नुकसान पहुँचेगा। नकली घी के कारखाने दिन-2 गाय को दबा रहे हैं तथा किसान भी नकली घी खरीद रहा है।

भारत सरकार के कृषि तथा पशुपालन महकमे में तथा भारत सरकार द्वारा नियुक्त की गो रक्षा विशेषज्ञ कमेटी ने गोवंश तथा किसान नुकसान को दृष्टि में रखते हुए तेलों के जमाने को बन्द करने की सिफारिश की है। नकली घी का खरीददार अज्ञान या ज्ञान से घी के नाम पर तेल खरीदता है। पर उसे शुद्ध तेल की अपेक्षा 50 प्रतिशत या 15 करोड़ रुपया अधिक देने पड़ते हैं। जिसके बदले उसे तेल नहीं तेल से घी घटिया चीज मिलती है। आज जब कि शिल्प कार्य बढ़ाने के लिए धन, समान, मजदूर तथा रेल गाड़ियों की बड़ी जरूरत है। वनस्पति के काम में 15 करोड़ रुपया, 50 लाख के रासायनिक पदार्थ, 15 हजार रेल गाड़ियाँ, हजारों मन कोयला और कितने ही मजदूर तथा कार्यकर्त्ता इस व्यर्थ चीज पर लगे हुए हैं। इतना धन जन तथा सामान लगने पर भी देश को तोला भी चिकनाई नहीं मिलती। बल्कि दक्षिणी भारत, मद्रास, उड़ीसा इत्यादि में जो लोग मूँगफली या नारियल का शुद्ध तेल खाते हैं उन्हें भी नकली घी नुकसान पहुँचा रहा है। भविष्य में तो मिलेगा भी नहीं। वनस्पति घी प्रायः मूँगफली के तेल से बनता है। इस तेल की कुल पैदावार अनुमानतः 4 लाख टन ही हैं। सन् 1952 तक नकली घी तैयार होगा साढ़े चार लाख टन।

शुद्ध तेल के खाने वाले को 50 रु . मन में शुद्ध तेल मिलता है उसे 90 या 95 रु . प्रति मन का नकली घी खरीदना पड़ेगा। नकली घी के प्रचार से किसान और इसके पशु तो बर्बाद होंगे ही, शुद्ध तेल खाने वाले लोगों को भी हानि उठानी पड़ेगी। उपयोगी और आवश्यक शिल्प बढ़ाने के साधनों में भी रुकावट आयेगी॥


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