हमारी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी होनी चाहिए।

September 1951

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(श्री लालन राम जी शुक्ल एम. ए.)

चेतना का प्रकाश जिस ओर जाता है, उसी ओर आलोक हो जाता है और जिस ओर उसका प्रकाश नहीं जाता, उस ओर अंधकार हो जाता है। चेतना के प्रकाश में दो विशेषताएं हैं-एक, वह पदार्थ का ज्ञान कराता है और दूसरे, वह उसे प्रिय बनाता है। उससे जिस ओर हमारी चेतना जाती है, अर्थात् जिन वस्तुओं की ओर हम ध्यान देते हैं, वे न केवल हमें ज्ञात हो जाती हैं वरन् वे हमें प्रिय हो जाती हैं। जिन बातों के बारे में हम कुछ जानते नहीं वे हमें प्रिय भी नहीं होतीं। मनुष्य को जो वस्तु प्यारी लगती है, वह उसकी वृद्धि करने की भी चेष्टा करता है। इस प्रकार चेतना से प्रकाशित वस्तुओं की वृद्धि होने लगती है। मनुष्य के साँसारिक धन वैभव की वृद्धि इसी प्रकार होती है। शरीर की उन्नति भी शरीर के विषय में सोचने से होती है।

जब मनुष्य बहिर्मुखी रहता है, तो वह साँसारिक उन्नति करता है। उसके धन, यश और मान-प्रतिष्ठा बढ़ते हैं। पर उसका स्वत्व अंधकार में रह जाता है। अन्धकार में रहने के कारण न तो मनुष्य को अपने-आपका कुछ ज्ञान होता है और न उसे अपने आप प्रिय ही लगता है। इतना ही नहीं, बहिर्मुखी व्यक्ति को यदि अकेला छोड़ दिया जाय तो वह अपने आपसे इतना विफल हो जायगा कि आत्म-हत्या करने की इच्छा होने लगेगी। यदि किसी कारण से बहिर्मुखी व्यक्ति को कभी अकेले रह जाना पड़ता है तो वे जीवन से निराश हो जाते हैं, उनके विचार उनके नियंत्रण में नहीं रहते, उनकी मानसिक ग्रन्थियाँ उन्हें भारी त्रास देने लगती हैं। यहाँ तक उनका जीवन भार रूप हो जाता है।

चेतना का प्रकाश बाहर जाने से मनुष्य के मन में अनेकों प्रकार के संस्कार पड़ते हैं। ये सभी संस्कार मानसिक क्लेश के कारण बन जाते हैं। इनसे आत्मा की प्रियता कम हो जाती है और बाहरी पदार्थों की ओर आकर्षण बढ़ता जाता है। इस प्रकार मनुष्य की चेतना के पीछे साँसारिक पदार्थों की इच्छाओं के रूप में एक अचेतन मन की सृष्टि होती है। जो व्यक्ति जितना ही बहिर्मुखी है, उसकी साँसारिक पदार्थों की इच्छाएँ उतनी ही प्रबल होती हैं। इन ग्रन्थियों के कारण मनुष्य का आन्तरिक स्वत्व दुखी हो जाता है। वह फिर चेतना के प्रकाश को अपने आपके पास बुलाने का उपाय रचता है। रोग की उत्पत्ति अपने आपकी ओर चेतना के प्रकाश के बुलाने का उपाय है।

मनुष्य का वैयक्तिक अचेतन मन उसकी मानसिक ग्रन्थियों और दलित इच्छाओं का बना हुआ है। दबी हुई इच्छाओं का चेतना पर प्रकाशित होने से रेचन हो जाता है और बहुत सी मानसिक ग्रन्थियाँ इस प्रकार खुल जाती हैं, पर इससे मानसिक ग्रन्थियों का बनना रुकता तक नहीं। नयी मानसिक ग्रन्थियाँ बनती ही जाती हैं। इस प्रकार अचेतन मन का नया भार तैयार होता जाता है। मनोविश्लेषण चिकित्सा से मनुष्य की व्याधि विशेष का उपचार हो जाता है, पर उससे मूल रोग नष्ट नहीं होता। वह नये-नये रूपों में प्रकाशित होता रहता है। जब तक अचेतन मन पर चेतना का प्रकाश नहीं जाता, तब तक मानसिक प्रकाश को बाहर की ओर जाने से रोककर, उसे भीतर की ओर ले जाता है।

जब मनुष्य अन्तर्मुखी हो जाता है तो बाह्य-पदार्थों की प्रियता चली जाती है। उसके कारण वे मनुष्य के मन पर अपने दृढ़ संस्कार नहीं छोड़ते। इस प्रकार नया कर्म विपाक बनना बन्द हो जाता है। सदा आध्यात्मिक चिन्तन करने से मनुष्य की पुरानी मानसिक ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। अब उसे अपने सुख के लिए इधर उधर दौड़ना नहीं पड़ता। उसे अपने विचारों में असीम आनन्द मिलने लगता है। अब अनेक प्रकार की साँसारिक चिन्ताएं किसी प्रकार की मानसिक अशान्ति उत्पन्न नहीं करतीं। मनुष्य निजानन्द में निमग्न रहता है। ऐसा व्यक्ति सदा साम्यावस्था में रहता है।

चेतना का प्रकाश धीरे-धीरे भीतर की ओर मोड़ा जाता है। इसके लिए नित्य अभ्यास और विचार की आवश्यकता है। जब मनुष्य को बाह्य विषयों से विरक्ति हो जाती है, अर्थात् जब वे उसे दुख रूप प्रतीत होने लगते हैं, तभी वह सुख को अपने भीतर खोजने की चेष्टा करता है। मन के हताश होने की अवस्था में मनुष्य के विचार स्थिर नहीं रहते, वह सभी प्रकार के प्रयत्नों को सन्देह की दृष्टि से देखने लगता है, अतएव एकाएक मन को अन्तर्मुखी नहीं बनाया जा सकता पर धीरे-धीरे अभ्यास के द्वारा उसे अन्तर्मुखी बनाया जा सकता है।

जब मनुष्य अन्तर्मुखी होता है, तो उसे ज्ञात होता है कि मनुष्य का मानसिक संसार उसके बाह्य संसार फैलाव से कम नहीं है। जितना बाह्य संसार का विस्तार है, बल्कि उससे कहीं अधिक आन्तरिक संसार का है। अर्थात् मनुष्य को आत्म स्थिति प्राप्त करने के लिये उतना ही अधिक अध्ययन, विचार और अन्वेषण करना पड़ता है, जितना कोई भौतिक विज्ञान में रुचि रखने वाला अन्वेषक करता है, जैसे पदार्थ विज्ञान का भारी विस्तार है, उसी प्रकार आध्यात्मिक विद्या का भारी विस्तार है।

संसार की सभी वस्तुएं आत्म सन्तोष के लिये हैं। यदि मनुष्य को आत्म संतोष का सरल मार्ग ज्ञात हो जाय तो वह सांसारिक पदार्थों के पीछे क्यों दौड़े? पर यह आत्मसन्तोष प्राप्त करना सरल काम नहीं। जितनी कठिनाई किसी इच्छित बाह्य पदार्थ के प्राप्त करने में होती है, उससे कहीं अधिक कठिनाई आत्मज्ञान प्राप्त करने में होती है। आत्मज्ञान मन की साधना से उत्पन्न होता है। जब तक मन निरवलम्ब नहीं हो जाता, पुरुषार्थी को स्वरूप का ज्ञान नहीं होता पर मन का सहज स्वभाव आत्मा से इतर वस्तु पर अवलम्बित होकर रहता है। उसे अपनी इस आदत से मुक्त करने में जितना प्रयास करना पड़ता है, वह कल्पनातीत है।

जब मनुष्य चेतना के प्रयास को अपनी ओर मोड़ने में समर्थ हो जाता है, तो उससे सबसे अधिक प्रिय वस्तु “अपना-आप” ही हो जाता है। फिर वह किसी भी साँसारिक वस्तु में अपना मन नहीं फँसाता। उसका मन स्वभावतः आत्मा की ओर ही जाने लगता हैं। ऐसी स्थिति में पुरानी सभी मानसिक ग्रन्थियाँ नष्ट हो जाती हैं और नई मानसिक ग्रन्थियाँ बनती नहीं। फिर मनुष्य का जीवन प्रकाशमय हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के विचार आत्म नियंत्रण में रहते हैं उसके मन में किसी प्रकार की आत्म ग्लानि की भावना नहीं आती। वह सदा स्वस्थ चित्त रहता है। इस प्रकार के स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को जब कभी अवसर मिले, आध्यात्मिक चिन्तन में समय लगाना चाहिए और उसको अपनी आदत बना लेनी चाहिये।


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