यज्ञ का महत्व

September 1951

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(पं0 लक्ष्मीधर जी वाजपेयी)

संसार के हित के लिए जो आत्मत्याग किया जाता है, उसी को यज्ञ कहते हैं। हिन्दू जाति का जीवन यज्ञमय है। यज्ञ से ही इसकी उत्पत्ति होती है और यज्ञ ही में इसकी अन्त्येष्टि होती है। यज्ञ का अर्थ जितनी पूर्णता के साथ आर्य या हिन्दू जाति ने जाना है, उतना अन्य जाति ने नहीं। हिन्दू धर्म के सभी ग्रन्थों में यज्ञ का विस्तृत वर्णन है। आदि धर्म ग्रन्थ वेद तो बिल्कुल यज्ञमय हैं। एक हिन्दू जो कुछ कर्म जीवन भर करता है, सब यज्ञ के लिए। श्रीमद्भगवतद्गीता के तीसरे और चौथे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने यज्ञ का रहस्य अत्यन्त सुन्दरता के साथ बतलाया है। आप कहते हैं-

यज्ञार्थार्त्कमणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥

अर्थात् यदि यज्ञ के लिए कर्म नहीं किया जायगा, तो वही कर्म बन्धन कारक होगा। इसलिए हे अर्जुन, तुम जो कुछ कर्म करो, सब यज्ञ के लिए अर्थात् संसार के हित के लिए-करो और संसार से आसक्ति छोड़कर, आनन्द पूर्वक आचरण करो। यज्ञ की उत्पत्ति बतलाते हुए भगवान् कहते हैं -

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्पध्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥

अर्थात् प्रजापति परमात्मा ने जब आदि काल में यज्ञ के साथ ही साथ अपनी इस प्रजा को उत्पन्न किया, तब वेद द्वारा यह कहा कि, देखो, ‘यज्ञ’ से तुम चाहे जो उत्पन्न कर लो, यह तुम्हारी कामधेनु है, यह तुम्हारी सब मनोकामनाओं को पूर्ण करेगा। क्योंकि-

देवान् भावयताऽनेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

इस यज्ञ ही से तुम देवताओं-सृष्टि की सम्पूर्ण कल्याणकारी शक्तियों को प्रसन्न करो। तब वे देवता स्वाभाविक ही तुमको भी प्रसन्न करेंगे। इस प्रकार परस्पर को प्रसन्न करने से तुम सबका परम कल्याण होगा ।क्योंकि-

इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानऽप्रदायैभ्यो यो भुँक्ते स्तेन एव सः॥

वे यज्ञ से प्रसन्न किये हुए देवता लोग तुमको सब प्रकार के सुख देंगे। परन्तु उनके दिये हुए उन सुखों को यदि तुम फिर उनको अर्पित किये बिना भोगेंगे, तो चोर बनोगे। क्योंकि यज्ञ के द्वारा देवता लोग तुमको जो सुखद पदार्थ देंगे, उनको फिर यज्ञ के द्वारा उनको अर्पित करके, तब तुम सुख भोग करो। इस प्रकार सिलसिला सुख भोग का लगा रहेगा। यह करके जो सुख भोग किया जाता है, वही कल्याणकारी है।-

यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।

भुँजन्ते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥

अर्थात् यज्ञ करने के बाद जो शेष रहा जाता है, उसी का भोग करने से सारे पाप दूर होते है, किन्तु जो पापी, यज्ञ का ध्यान न रखकर केवल अपने ही लिए पाक सिद्धि करते हैं, वे पाप खाते है। बिना यज्ञ किये भोजन करना मानो पाप ही का भोजन है।

जो अन्न हम खाते हैं, वह किस प्रकार उत्पन्न होता है, इस विषय में भगवान् कृष्ण कहते हैं-

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

अर्थात् अन्न से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्न वृष्टि से उत्पन्न होता है, और वृष्टि यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म वेद से उत्पन्न हुआ जाने और वेद ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार सर्वव्यापी ईश्वर सदैव यज्ञ में स्थित है। इसलिए-

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अधायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

हे अर्जुन, परमात्मा के जारी किये हुए उपर्युक्त सिलसिले के अनुसार जो मनुष्य आचरण नहीं करता अर्थात् यज्ञ के महत्व को समझ कर जो नहीं चलता वह पापी जीवन अपनी इन्द्रियों के सुख में भूला हुआ इस संसार में व्यर्थ ही जीता है।

इससे अधिक जोरदार शब्दों में यज्ञ का महत्व और क्या बतलाया जा सकता है। परन्तु अत्यन्त दुःख की बात है कि हम लोगों ने यज्ञ करना छोड़ दिया है। यही नहीं, बल्कि हममें से अनेक सुशिक्षित कहलाने वाले लोग तो यज्ञ की हंसी उड़ाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की यह बात कि यज्ञ से वृष्टि होती है, उनकी समझ में नहीं आती। वे लोग कहते हैं कि सूर्य की गर्मी से जो भाप समुद्रादि जलाशयों से उठती है, उसी से बादल बनकर वृष्टि होती है। यह तो ठीक है, परन्तु फिर क्या कारण है कि किसी साल बहुत अधिक वृष्टि होती है और किसी साल बिल्कुल नहीं होती। आप कहेंगे कि भाप तो बराबर उठती है, परंतु हवा बादल को कहीं उड़ा ले जाती है और इसी कारण कहीं वृष्टि अधिक हो जाती है और कहीं बिलकुल नहीं होती। ठीक। परन्तु हवा ऐसा क्यों करती है? इसका कोई बुद्धियुक्त उत्तर नहीं दिया जा सकता। यही तो भेद है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस भेद का खुलासा किया है। उनका कथन है कि यथाविधि यज्ञ-हवन करने से मुख्य तो वायु की ही शुद्धि होती है, फिर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इत्यादि सभी भूतों पर यज्ञ का असर पड़ता है। अग्नि में घृत इत्यादि जो सुगन्धित और पुष्ट पदार्थ डाले जाते हैं, वे वायु में मिलकर उसकी भी शुद्धि करते हैं। महर्षि मनु ने कहा है-

अग्नौ प्रास्ताहूतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।

आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥

अर्थात् अग्नि में जो आहुति डाली जाती है, वह सूर्य तक पहुँचती है, सूर्य से वृष्टि से अन्न होता है, और अन्न से प्रजा।

ग्रामे ग्रामे स्थितो देवः देशे देशे स्थितो यज्ञः।

गेहे गेहे स्थित द्रव्यम् धर्मश्चैव जने जने॥

-भविष्य पुराण

अर्थात् गाँव-गाँव में देवता स्थित हैं, देश देश में, भारत के प्रत्येक प्रान्त में यज्ञ होते हैं, घर-घर में द्रव्य मौजूद है, अर्थात् कोई दरिद्री नहीं है, और प्रत्येक मनुष्य में धर्म मौजूद है।

इसी प्रकार यज्ञ की प्रथा यदि फिर हमारे देश में चल जायगी, तो अतिवृष्टि, अनावृष्टि और बहुत से रोग-दोष दूर हो जायेंगे।


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