जगत का तमाशा

September 1951

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यह जगत है एक तमाशा।

हम तमाशाई यहाँ के, है सभी को मधु पिपासा॥

ऐ मुसाफिर सो रहा क्यों,

स्वप्न में दिन खो रहा क्यों,

वेदनाएं ढ़ो रहा क्यों,

जाग, उठ, चल, है बुलाती, पूर्व दिशि से दिव्य आशा॥

यह जगत है एक तमाशा।

किस लिए आँसू बहाता,

किस लिए दामन छुड़ाता,

व्यर्थ करुणा गीत गाता,

छोड़ हठ अपनी हठीले, बोल निर्भय मुक्त भाषा॥

यह जगत है एक तमाशा।

(श्री अज्ञात)


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