गायत्री द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्ति

September 1951

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कुबुद्धि का दूसरा लक्षण “अदूरदर्शिता” है। आज का, इसी समय का, तुरन्त का, लाभ देखना और भविष्य के परिणामों पर विचार न करना इसे अदूरदर्शिता कहते हैं। इसके चँगुल में फँसकर अनेक व्यक्ति विविध विधि कष्ट भोगते हैं।

स्वास्थ्य को नष्ट करने में अदूरदर्शिता सबसे बड़ा कारण है। इन्द्रियों के भोग भोगने में लोग इतने निमग्न हो जाते हैं कि यह नहीं देखते कि आगे इसका परिणाम क्या होगा। जीभ के स्वाद में पेट की मर्यादा से अधिक भोजन किया जा सकता है। मसाले और चीनी मिलाकर अनुपयुक्त पदार्थों को पेट में ठूँसा जाता है। जब तक पहला भोजन पचने नहीं पाया कि नया बोझ पेट पर लाद दिया। इन अत्याचारों से पेट की पाचन शक्ति खराब हो जाती है, कब्ज रहने लगता है, भूख लगती नहीं, दस्त साफ नहीं होती, आँतों में मल इकट्ठा होकर सड़ने लगता है। उस सड़न से उत्पन्न हुआ विष विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है।

काम सेवन की मर्यादा यह है कि जब संतानोत्पादन करने की आवश्यकता अनुभव हो तब पति-पत्नि का संयोग हो। इस प्राकृतिक मर्यादा का अदूरदर्शी लोग बेतरह उल्लंघन करते हैं। क्षणिक खुजली को शान्त करने के लिये अपने जीवन रस को निचोड़ते रहते हैं और अन्त में स्वास्थ्य को खोखला बनाकर सिर धुनते, पछताते हैं।

रात्रि को तेज रोशनी में सिनेमा नाच रंग देखने या अन्य काम करने से आँखें खराब हो जाती हैं। तात्कालिक लोभ या स्वार्थ के वशीभूत होकर लोग आँखों से अधिक काम लेते हैं और उनकी रोशनी से हाथ धो बैठते हैं। यदि नेत्रों से उनकी सामर्थ्यानुसार काम लिया जाए, तो वे वृद्धावस्था तक ठीक काम करते रह सकते हैं। इसी प्रकार शरीर के अन्य अवयव हैं, यदि उनका ठीक उपयोग हो, तात्कालिक स्वाद, लोभ या मनोरंजन के लिए उनकी शक्ति को अनुचित रूप से नष्ट न किया जाए तो बीमार पड़ने का, असमय शक्तिहीन होने का, अकाल मृत्यु का अवसर न आवे। पशु, पक्षी भी प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं। स्वाद के लिए नहीं, वरन् शरीर की स्वाभाविक आवश्यकता के अनुरूप कार्य करते हैं, फलतः न वे बीमार पड़ते हैं और न उन्हें वैद्य डाक्टरों की आवश्यकता पड़ती है।

गायत्री के दूसरे चरण (तत्सवितुर्वरेण्यं) में उस तेजस्वी एवं वरण करने योग्य, श्रेष्ठ भविष्य की ओर संकेत किया गया है, जो वर्तमान काल का दूरदर्शिता पूर्ण उपयोग करने से ही प्राप्त है। जो शक्तियाँ, सहयोग, सामर्थ्य, योग्यताएं, एवं सुविधाएं उपलब्ध हैं, यदि उनका संयम एवं समझदारी से उपयोग किया जाए तो निश्चय ही आशाजनक भविष्य की आधार शिला रखी जा सकती है।

किसान धैर्यपूर्वक अपनी खेतों में श्रम करता रहता है। घर से अन्न ले जाकर उसमें बीज बो देता है। अदूरदर्शिता की दृष्टि से देखा जाए तो उसका यह सब कार्य बेवकूफी से भरा हुआ प्रतीत होगा। रोज-रोज कठिन परिश्रम करना और शाम को खाली हाथ वापिस लौट आना, साथ ही घर में रखा हुआ अन्न भी मिट्टी में बिखेर आना, यह भी कोई समझदारी की बात नहीं मालूम होती। पर दूरदर्शी किसान यह जानता है कि मेरा यह परिश्रम कभी नष्ट नहीं जा सकता। इसका समुचित परिणाम मुझे मिलकर ही रहेगा। वह मिलता भी है। समयानुसार खेती पकती है और किसान का घर धन-धान्य से पूरा कर देती है, उसका परिश्रम सफल हो जाता है।

किसान जैसी दूरदृष्टि को अपना कर हम भी अपने जीवन को सुख शान्ति की राशि से भर सकते हैं। विद्यार्थी जानता है कि मुझे आगामी जीवन में सफलता और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है, तो आरम्भ में कठिन परिश्रम पूर्वक विद्याध्ययन करना पड़ेगा। विद्याध्ययन के समय उसका समय, श्रम और पैसा सभी लगता है, तत्काल उसे कुछ लाभ नहीं होता, वरन् हानि ही रहती है परन्तु यह निश्चित है कि इस हानि की आगे चलकर ब्याज समेत भरपाई हो जाती है। विद्यार्थी और किसान का दृष्टिकोण अपनाकर जो लोग आशाजनक भविष्य के लिए आज कठिनाई उठाने को तैयार है, उन्हें गायत्री का सदा आज्ञाकारी पुत्र कहा जा सकता है। माता अपने आज्ञाकारी बालकों को दुलारने में कमी नहीं रखती, पर अवज्ञाकारी को दुत्कारने में भी उसे संकोच नहीं होता।

ब्रह्मचारी संयम पूर्वक वीर्य रक्षा करता है। उस समय उसे अपना मन मारना पड़ता है। दूसरे उच्छृंखल युवक कामुकता की इन्द्रिय लिप्सा में अपना शरीर निचोड़ते हैं। आरम्भ में वह उच्छृंखल लड़के अपने आपको बड़ा चतुर समझते हैं और ब्रह्मचारी को मूर्ख मानते हैं। पर कुछ दिन बाद जबकि उनका शरीर खोखला होकर अनेक रोगों का घर बन जाता है और उधर वह ब्रह्मचारी दिन-दिन स्वस्थ, सुदृढ़ बलवान और सुन्दर बनता जाता है, तब उन्हें पता चलता है कि वस्तुतः कौन मूर्ख और कौन बुद्धिमान था। लोभ के चटोरेपन में वशीभूत होकर जो लोग चटपटे, मसालेदार, और मीठे जायकेदार पदार्थ दिन भर चाटते रहते हैं वे आरम्भ में उस संयमी पुरुष को मूर्ख कह सकते हैं, जो स्वाद के लिए नहीं वरन् शरीर पोषण के लिए औषधि रूप आहार लेता है। औषधि में स्वाद कौन देखता है, उसके गुण ही देखे जाते हैं। शरीर की आवश्यकता पूर्ण करने वाला आहार उतनी मात्रा में, उस समय लिया जाना चाहिए जबकि पेट को जितनी मात्रा में आवश्यकता हो। जीभ के स्वाद के मारे असमय, अनावश्यक, अनुचित मात्रा में जो लोग भोजन करते हैं, वे अपनी पाचन शक्ति से हाथ धो बैठते हैं। पेट खराब होने से, आवश्यक मात्रा में शुद्ध रक्त नहीं बन पाता फलतः अनेक आकार प्रकार के रोग सामने आ खड़े होते हैं। परन्तु जिसने जीभ पर काबू रखा है, तात्कालिक स्वाद लोलुपता को ठुकराकर भविष्य के स्थिर स्वास्थ्य का ध्यान रखा है, वह निरोग दीर्घ जीवन का आनन्द लेता है।

आज ‘निकट दृष्टि’ की बीमारी बुरी तरह फैली हुई है। लोग आज का, अभी का, इसी समय का लाभ देखते हैं और यह भूल जाते हैं कि जल्दी की हविश में जो अनुचित कार्य प्रणाली अपनाई जा रही है उसका परिणाम कल क्या होगा। जैसे बन सके, वैसे, जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी, जितना अधिक हो सके, उतना अधिक धन, प्राप्त करने के लालच में अन्धा होकर मनुष्य बुरे-बुरे काम करता है। चोरी, डकैती, लूट, ठगी, धोखाधड़ी की सारी योजनाएं इसी मनोभावना से बनती हैं। जिसके नेत्रों में ‘निकट दृष्टि’ का रोग होता है, उसे पास की चीजें तो साफ दिखाई पड़ती हैं, पर दूर की वस्तुएं दिखाई नहीं पड़तीं। इसी प्रकार का बौद्धिक रोग ‘अदूर दर्शिता’ है उसे यह नहीं सूझ पड़ता कि इसका परिणाम आगे चलकर क्या होगा। इसके कारण मनुष्य चिरस्थायी, सुस्थिर, प्रतिष्ठा युक्त, बड़े लाभ से वंचित हो जाता है।

चोर मनोवृत्ति के धोखेबाज व्यापारी सस्ती, खराब, नकली वस्तुएं लोगों को उलटा सीधा समझा कर मड़ देते हैं और तात्कालिक लाभ उठा लेने पर बड़े प्रसन्न होते हैं। परन्तु उनसे एक बार जो व्यवहार कर लेता है, वह सदा के लिए उनका विरोधी हो जाता है। ऐसी दशा में उसका व्यापार चमक नहीं पाता। इसके विपरीत जो लोग अच्छी, असली वस्तुओं का व्यापार प्रामाणिकता के आधार पर करते हैं, आरम्भ में उनकी दुकान कम चलती है, पर अन्त में अपनी प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता के आधार पर वे मालामाल हो जाते हैं। वेस्टएण्ड वाँच कम्पनी की घड़ियाँ और फोर्ड मोटरें यद्यपि महंगी होती हैं, तो भी अपनी प्रामाणिकता के कारण वे खूब बिकती हैं और उनके मालिक मालोमाल हो गये हैं। इसके विपरीत ऐसे अनेक चोर व्यापारी हैं, जो सस्ती और खराब चीजें अनुचित रीति से ग्राहक को मेड़ने में बड़े चतुर हैं, परन्तु वे सदा कंगाल ही रहते हैं। इनको कभी स्थिर प्रतिष्ठा या सम्पत्ति प्राप्त नहीं हो सकती। अदूरदर्शी लोग अपने को चतुर समझते हैं, पर समय बतला देता है कि उनकी वह चतुरता और सफलता कितनी पोली, कितनी अवास्तविक और कितनी अस्थिर है।

‘लोभ’ की शास्त्रों में निन्दा की गई है। वह निन्दा न्यायोचित रीति से परिश्रम पूर्वक कमाने और मितव्ययता पूर्वक सत्कार्यों के लिए बचाने की नहीं है। उसके लिए तो कहा गया है कि “सौ हाथों से कमा और हजार हाथों से दान कर”। लोभ वह है जिसमें ललचाकर अनुचित रीति से धन, भोग या यश का अपहरण किया जाता है। लोभ को पाप का मूल बताया गया है।

तात्कालिक प्रलोभन के आकर्षण में अन्धे होकर घुस पड़ना और भविष्य के दुष्परिणाम को भूल जाना इसी का नाम लोभ है। इस लोभ की मनोवृत्ति से प्रेरित होकर ही लोग नाना प्रकार के दुष्कर्म करते हैं और अन्त में जब उन दुष्कर्मों का दुखदायी परिणाम सामने उपस्थित हो जाता है तो उसका दारुण वेदनाओं से चीत्कार करते हैं।

जैसे माता उंगली के इशारे से बालक को चन्द्रमा दिखाती है, वैसे ही गायत्री अपने द्वितीय चरण की शिक्षा द्वारा हमें बताती है कि-”पुत्र! दूर तक देखो, अपनी दृष्टि लम्बी फेंको, मृत्यु की घड़ी को निकट समझ कर उसके लिए समुचित तैयारी करो, इसी क्षण की लिप्साओं में इतने बे खबर न हो जाओ कि आगे का कुछ ध्यान न रहे। किसान और विद्यार्थी से शिक्षा लो कि वे भविष्य के निर्माण के लिए आज तप करते हैं। तुम भी अपने दूरवर्ती भविष्य को आनन्दमय बनाने के लिए आज के प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करो।”

माता की इस शिक्षा को मानकर यदि हम दूरदर्शी बनने का प्रयत्न करें, तो निश्चय ही हम उन बालक्रीड़ाओं को छोड़ देंगे जो आरम्भ में बड़ी लुभावनी मालूम पड़ती हैं, पर अन्त में दुखों के पर्वत पटक देती है। अदूरदर्शिता की मूर्खता से बचाकर गायत्री का दूसरा चरण हमें उस स्थिति तक ले पहुँचता है, जिससे जीव अपने जन्मजात अधिकार आनन्द का शान्त चित्त से आस्वादन करता रहता है।


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