उपासना की व्यवहारिक रूप रेखा

September 1951

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(श्री स्वामी रामतीर्थ)

ऐ मेरे प्यारे कृष्ण! मुझे तो अब उस देवता की उपासना करने दे, जिसकी समस्त पूँजी एक बूढ़ा बैल, एक टूटी हुई पलँगड़ी, एक पुराना चिमटा, थोड़ी-सी राख, नाग और एक खाली खोपड़ी है। क्या यह महिम्न-स्तोत्र के महादेव हैं? नहीं, नहीं। ये तो साक्षात् नारायण-स्वरूप भूखे भारतवासी है। यही मेरा धर्म है, और भारत के प्रत्येक मनुष्य का यही धर्म, साधारण मार्ग, यही व्यवहारिक वेदान्त और यही भगवान की भक्ति होना चाहिए।

संसार में कोई भी बच्चा शिशुपन के बिना युवावस्था को प्राप्त नहीं हो सकता। इसी तरह कोई भी मनुष्य उस समय तक विराट भगवान् से अभेद होने के आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता, जब तक कि समस्त राष्ट्र के साथ अभेद भाव उसकी नस नस में पूरा जोश न मार ले।

भारत-माता के प्रत्येक पुत्र को समस्त देश की सेवा के लिए इस दृष्टि से तैयार रहना चाहिए कि “समस्त भारत मेरा ही शरीर है।” भारत का प्रत्येक नगर, नदी, वृक्ष, पहाड़ और प्राणी देवता माना और पूजा जाता है। क्या अभी वह समय नहीं आया, जब हम अपनी मातृभूमि को देवी मानें और इसका प्रत्येक परमाणु हमारे मन में सम्पूर्ण देश के प्रति देश भक्ति उत्पन्न कर दे।

जब प्राण-प्रतिष्ठा करके हिन्दू लोग दुर्गा की प्रतिमा को साक्षात् शक्ति मान लेते हैं, तो क्या यह ठीक नहीं कि हम अपनी मातृभूमि की महिमा को प्रकाशित करें और भारत-रूपी सच्ची दुर्गा में जीवन और प्राण की प्रतिष्ठा करें?

अपने चित्त को शान्त रक्खो, अपने मन को शुद्ध विचारों से भर दो, तो कोई भी मनुष्य आप के विरुद्ध नहीं हो सकता। यही दैवी विधान है।

दैवी विधान यह है कि मनुष्य आराम-चैन से तथा विद्वेष-रहित रहे और उसका जीवन सदैव हरकत करता रहे। उसका मन स्थित-विद्या के आधीन रहे और तन गति-विद्या के। शरीर तो काम में लगा रहे और अन्तरात्मा सदैव आराम में रहे।

वेदान्त आप से यह मनवाना चाहता है कि दान देने में आनन्द है, लेने में नहीं।

अलमारियों में बंद वेदान्त की पुस्तकों से काम न चलेगा, तुम्हें उसको आचरण में लाना होगा।

यदि वेदान्त आप की निर्बलता को दूर नहीं करता, यदि वह आप को प्रसन्न नहीं रखता, यदि वह आप के बोझों को परे नहीं हटाता, तो उसे ठुकराकर अलग फेंक दो।

वेदान्त-दर्शन के प्रचार का सर्वोत्तम मार्ग उसे अपने आचरण में लाना है, अन्य कोई भी सुगम मार्ग नहीं है।

वेदान्त चाहता है कि आप काम को काम की खातिर करें, फल के लिए नहीं।

तन को काम में और मन को प्रेम और राम में रखने का अर्थ इसी जन्म में दुःख, पाप से मुक्ति पाना है।

शरीर और मन निरन्तर काम में इस हद तक प्रवृत्त रहें कि परिश्रम बिलकुल ही जान न पड़े।

जहाँ कहीं भी तुम से हो, दानी की हैसियत से काम करो, भिक्षुक की हैसियत कदापि न करो, ताकि आप का काम विश्वव्यापी हो और किंचित मात्र भी व्यक्तिगत न हो।

संसारी मनुष्य के लिए निरन्तर कर्म और निरन्तर परिश्रम ही सबसे महान् योग है। संसार के लिए तभी आप सब से महान् कार्यकर्ता हैं, जब आप अपने लिए काम नहीं करते।

वह हमारी स्वार्थ-पूर्ण चंचलता है, जो सारा काम बिगाड़ देती है।

शब्दों की अपेक्षा कर्म अधिक पुकार-पुकार कर उपदेश देते हैं।

परिणाम और नतीजा मेरे लिए कुछ नहीं है, सफलता अथवा असफलता मेरे लिए कुछ नहीं है। मुझे काम जरूर करना चाहिए, क्योंकि मुझे काम प्यारा लगता है। मुझे काम काम के लिए ही करना चाहिए। काम करना मेरा उद्देश्य व लक्ष्य है, कर्म में प्रवृत्त रहना ही मेरा जीवन है। मेरा स्वरूप, मेरी असली आत्मा स्वयं शक्ति है। मैं अवश्य काम करूंगा।

सदा स्वतंत्र कार्यकर्ता और दाता बनो। अपने चित्त को कभी भी याचक तथा आकाँक्षी की दशा में न डालो। सर्वेसर्वा बनने के स्वभाव से पीछा छुड़ाओ।


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